Monday, February 1, 2010

...दोस्त दोस्त न रहा

एक कहावत है राजनीति में स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं हुआ करते। अमर सिंह-मुलायम सिंह यादव के विवाद से इस कहावत को नया दृष्टांत प्राप्त हुआ है। मुलायम सिंह और अमर सिंह की दोस्ती राजनीति के सारे सिद्धांतों को तोड़ कर एक नए मुकाम पर जा खड़ी हुई थी। फिलहाल यह दोस्ती की डोर अब टूट चुकी है। इस राजनीतिक लड़ाई में कौन कौन खपेगा यह तो काल और परिस्थिति खुद तय कर देगी पर जिस तरह से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पार्टी के वरिष्ठ नेता अमर सिंह द्वारा दिए गए इस्तीफे स्वीकार करने के बाद कहा कि 'अमर सिंह की नीति और नीयत समाजवादी पार्टी को मजबूत करने और बढ़ाने की रही। हम उनके आभारी हैं और उनके संबंध में न कोई आलोचना की करुंगा और न ही कोई बुराई करुंगा।' इतना ही नहीं उन्होंने तो यह भी कहा कि 'सपा एक मेला है, मेले में लोगों का आना जाना लगा ही रहता है।' यह राजनीति का वह अध्याय है जो अमर सिंह और सपा के साथ जुड़ता है। अमर सिंह की राजनीतिक यात्रा को देखें तो पता चलता है कि उन्होंने जो भी राजनीतिक बुलंदी हासिल की उसमें सपा व मुलायम का बड़ा हाथ है।आजमगढ़ के अमर सिंह ने अपनी राजनीतिक यात्रा कोलकाता से शुरू की। उनकी राजनीतिक शुरुआत कांग्रेस से हुई। अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए कोलकाता आने वाले कांग्रेसी नेताओं की आवभगत करने में वे कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे। इसी आवभगत के दौरान उनकी जान पहचान पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय दिनेश सिंह के निजी सचिव से हुई। दिनेश सिंह के निजी सचिव से अमर सिंह की जब पहली मुलाकात हुई तो उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस के ताकतवर नेता अरुण कुमार सिंह 'मुन्ना 'भी साथ थे। इस माध्यम से अमर सिंह ने दिनेश सिंह के साथ नजदीकी बढ़ायी और दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में सक्रिय हो गए। इसी दौरान वे मशहूर उद्योगपति के.के. बिड़ला के नजदीक आए और उनके जनसंपर्क अधिकारी बन गए। इसके बाद अमर सिंह की राजनीतिक गतिविधियों को सभी जानते हैं।इसी दौरान उनका मुलायम सिंह यादव से परिचय हुआ। मुलायम पर उनका जादू कुछ इस तरह चला कि नेताजी के पुराने दोस्त भी पिछड़ गए। यह वही अमर सिंह हैं जिन्होंने १९९८ में एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की सरकार नहीं बनने दी। बाद में इन्हीं अमर सिंह ने परमाणु करार के मसले पर २००८ में मनमोहन सिंह की सरकार गिरने से बचायी। एक अहम सवाल अब भी राजनीतिक गलियारों में उठता रहता है कि आखिर अमर सिंह की राजनीति है क्या। क्या अमर सिंह ने जो मौजूदा गतिविधियां शुरू की हैं वह किसी खास दल के इशारे पर है। सवाल यह भी है कि कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव के नजदीक लाकर क्या अमर सिंह ने किसी दल की मदद की। शुरुआत काफी पहले हो चुकी थी। यह शुरुआत कहां से हुई सभी जानते है। समाजवादी पार्टी के कई नेता इस समय कांग्रेस में हैं। ये वही नेता हैं जो चंद्रशेखर से अलग होने के बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी के गठन के दौरान उनके सहयोगी थे। इसमें बेनी प्रसाद वर्मा और राज बब्बर प्रमुख मानें जा सकते हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं जोर पकड़ रही हैं कि अमर सिंह ने सारा कुछ उसी दल के इशारे पर किया। क्या सपा के अन्य प्रमुख नेताओं राज बब्बर व बेनी प्रसाद वर्मा की तरह अमर सिंह भी देर सबेर कांग्रेस में शामिल होंगे। लेकिन तब क्या कांग्रेस में घमासान नहीं मचेगा। अमर सिंह ने अभी सपा को अलविदा नहीं कहा है। वे अभी भी सामान्य कार्यकर्ता की हैसियत से इसी पार्टी में हैं। यह भी एक नया खेल है। संजय दत्त और जयाप्रदा खुल कर उनके साथ है। जया बच्चन भी साथ हैं। यानि कि फिल्म से जुड़े सपा के सभी नेता अमर सिंह के साथ हैं पर मुलायम सिंह के कई साथी अब उनके साथ नहीं हैं। इलाहाबाद के सांसद रेवती रमण सिंह सोनिया गांधी से मुलाकात कर आए हैं। सलीम शेरवानी ने यह मुलाकात कराई। कुछ अन्य सांसद बसपा के संपर्क में हैं। इधर अमर सिंह अपने ठाकुर राजनीति को भी सहारा देने की कोशिश में है। अमर सिंह अड़ गये हैं। वे कह रहे हैं कि पार्टी नहीं छोड़ेंगे बल्कि पार्टी ही खत्म कर देंगे। हाल ही में एक पत्रकार वार्ता में उन्होंने कहा कि वे सपा से बाहर नहीं जाएंगे। वे कहते हैं कि 'धक्के मारकर मुझे बाहर कर दो, मैं चला जाऊंगा। 'अमर सिंह काफी चालाक नेता माने जाते हैं तभी वह कह रहे हैं कि न तो सपा से बाहर जाएंगे और न ही नेताजी के खिलाफ कुछ बोलेंगे। वे कह रहे हैं कि मुलायमवादी होने की बजाय समाजवादी होना पसंद करेंगे। फिलहाल दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि अमर सिंह जिस काम के लिए सपा में प्लांट किये गये थे वह उन्होंने कर दिया। सपा से कल्याण सिंह को जोड़कर उन्होंने मुस्लिम मतों का बिखराव किया। मुस्लिम मतदाता अब शायद ही दोबारा सपा में लौटे। सपा से अलग होकर मुस्लिम मत किसकी झोली में गिरेंगे सभी जानते हैं। उत्तर प्रदेश में दूसरे नंबर की पार्टी बनने लिए सपा और कांग्रेस में जोर आजमाइश चल रही है। हो सकता है उत्तर प्रदेश में अगला विधानसभ्ाा चुनाव सपा और बसपा के बीच न होकर बसपा और कांग्रेस के मध्य लड़ा जाए। मुलायम सिंह की सबसे बड़ी चिंता यही है। इसलिए कल्याण के साथ भाईचारा पीछे छोड़ वे अपना राजनीतिक वजूद बचाने में लग गये हैं। इसकी शुरुआत भी मुलायम सिंह ने लखनऊ मे बसपा के खिलाफ आंदोलन तेज करते हुए दी।

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