Monday, February 1, 2010

एक युग का अंत

ईश्र्वरीय सत्ता के बजाय यथार्थवाद में विश्वास करने वाले ज्योति बसु ने वामपंथ को इस तरह से आत्मसात किया कि वह उसका पर्याय बन गए। वह देश में इकलौते ऐसे राजनेता थे जिसके पीछे सत्ता चलती थी। उन्होंने जब तक चाहा पश्चिम बंगाल पर राज किया और जब चाहा तब सत्ता को स्थानांतरित कर दिया। ज्योति बसु की ज्योति बंगाल में इस तरह से फैली कि पश्चिम बंगाल की मौजूदा राजनीति का मतलब ज्योति बाबू से ही लिया जाता था। पश्चिम बंगाल को ज्योति बसु के रूप में ऐसा मुख्यमंत्री मिला जिसे दुनिया ने कभी गलती करते नहीं देखा। देश जब उनकी जन्म शताब्दी मनाने की तैयारी कर रहा था तब उन्होंने नश्र्वर शरीर का साथ छोड़ दिया और उस ईश्र्वरीय सत्ता में विलीन हो गए जिस पर जीते जी विश्र्वास जताने के बजाय उन्होंने यथार्थवाद को महत्व दिया था। ज्योति बसु के निधन के साथ ही देश में वामपंथी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया। उनके निधन से पैदा हुए शून्य को भर पाना शायद ही संभव हो। ज्योति बसु पक्के कम्युनिस्ट थे। सम्पूर्ण कम्युनिस्ट। ईश्वरीय सत्ता में आस्था रखने वाले नहीं थे वे। उनकी आस्था थी यथार्थवाद में। शायद यही कारण था कि वामपंथ को उन्होंने न सिर्फ पढ़ा या माना, बल्कि पूरी तरह आत्मसात भी किया। बसु ने लंदन के मिडिल टेंपल में वकालत त्याग कर राजनीति को अपनाया और वह लगभग छः दशक तक देश के राजनीतिक परिदृश्य पर छाये रहने वाले एक ऐसे करिश्माई व्यक्तित्व थे, जिन्हें दलगत भावना से उपर उठकर सभी नेताओं ने भरपूर सम्मान दिया। कुछ लोग ज्योति बसु को बहुत ही भाग्यशाली मानते थे क्योंकि .जिंदगी में हमेशा उन्हें महत्व मिला। संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी में तो बी.टी.रणदिवे, श्री पाद अमृत डांगे, अजय बोस, सी.पी. जोशी, जेङ ए. अहमद जैसे कई बड़े नेता हुए लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वे सबसे बड़े और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे।भारतीय राजनीति के निराले व्यक्तित्व ज्योति बसु ने अपने पहला चुनाव १९४६ में लड़ा । इस चुनाव में उन्होंने प्रोफेसर हुमायूं कबीर को हराया जो मौलाना आ.जाद के बहुत करीबी थे। बाद में वे नेहरू जी की मंत्रिपरिषद में मंत्री भी बने। उसी वक़्त से वे बंगाल के नौजवानों के हीरो बन गये। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने बेशुमार बुलंदियां तय कीं जो किसी भी राजनेता के लिए सपना हो सकता है। १९७७ में कांग्रेस की पराजय के बाद उन्हें पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनाया गया। जब शरीर कम.जोर पड़ने लगा तो उन्होंने अपनी मर्जी से गद्दी छोड़ दी और बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उनका जीवन एक खुली किताब है। मुख्यमंत्री के रूप में उनका सार्वजनिक जीवन हमेशा कसौटी पर खरा उतरा। उनको कभी किसी ने कोई गलती करते नहीं देखा, न ही सुना। १९९६ की वह घटना दुनिया जानती है जब वे देश के प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार बन गए लेकिन दफ्तर में बैठ कर राजनीति करने वाले माकपा नेताओं ने उन्हें रोक दिया। अगर ऐसा न हुआ होता तो देश देवगौड़ा को प्रधानमंत्री के रूप में न देखता। बहरहाल बाद के वक़्त में यह भी कहा गया कि यह मार्क्सवादियों की ऐतिहासिक भूल थी।वर्ष १९७७ में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार के अगुआ के रूप में राज्य की सत्ता संभालने वाले बसु पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहे। गठबंधन की राजनीति के वे प्रथम सूत्रधार थे। जब उन्हें १९९६ में संयुक्त मोर्चा सरकार का प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया तो उनकी पार्टी ने इस पर सहमति नहीं जतायी।माकपा ने सत्ता में भागीदारी करने से इंकार कर दिया। इस पेशकश को स्वीकार नहीं करने पर बाद में बसु ने इसे ऐतिहासिक गलती करार दिया । पार्टी ने भी उनके इस िवचार को बाद में माना। बसु मार्क्सवाद में विश्वास करने के बावजूद व्यावहारिक नेता थे। पार्टी की कट्टर विचारधारा के बीच उन्होंने विदेशी निवेश और बाजारोन्मुख नीतियों को अपना कर अपने अदभुत विवेक का परिचय दिया था। इससे पूर्व पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार व सार्वजनिक वितरण प्रणाली को उन्होंने मजबूत किया। कुशल राजनीतिज्ञ, योग्य प्रशासक, सुधारवादी और अनेक मामलों में नजीर पेश करने वाले बसु को १९५२ से पश्चिम बंगाल विधानसभा की सदस्यता लगातार हासिल करने का श्रेय जाता है। इसमें केवल एकबार १९७२ में ही व्यवधान आया। बसु ने पंचायती राज और भूमि सुधार को प्रभावी ढंग से लागू कर निचले स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीकरण किया। ज्योति बसु ने १७ जनवरी २०१० को कोलकाता के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। एक जनवरी को उन्हें निमोनिया की शिकायत पर अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन पिछले उनके शरीर के अधिकांश अंगों ने काम करना बंद कर दिया था । उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया था। निधन के बाद उनका शरीर उनकी इच्छा के अनुरुप एक अस्पताल को दन दे दिया गया। ऐसा अप्रतिम उदाहरण कम नेता ही पेश कर पाते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने भी अपने कार्यकाल के दौरान बसु के कामकाज की सराहना की थी। बसु की पहल पर लागू किए गए भूमि सुधारों का ही नतीजा था कि पश्चिम बंगाल देश का ऐसा पहला राज्य बना, जहां फसल कटकर पहले बंटाईदार के घर जाती थी। इस तरह वहां बिचौलियों की भूमिका खत्म की गई। बसु ने राज्य को एक मजबूत उद्योग नीति भी देने की कोशिश की लेकिन वे इसे अमल में न ला सके। उनके बाद जब बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पश्चिम बंगाल में आर्थिक निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए बेतहाशा राजनैतिक प्रयोग किये तो सिंगूर व नंदीग्राम जैसी लोमहर्षक वारदातें हुईं। ज्योति बसु के बेटे पश्चिम बंगाल के जाने-माने उद्योगपति हैं। साल्ट लेक में उनका विशाल आर्थिक साम्राज्य है। इसके बावजूद ज्योति बसु पश्चिम बंगाल में कम्युनिटों के पहले और आखिरी नायक थे। उन्होंने अपने बेटे का आर्थिक साम्राज्य बढ़ाने के लिए कभी अपनी अकूत सत्ता का दुरुपयोग नहीं किया। उनके कार्यकाल में पश्चिम बंगाल में कभी दंगा नहीं हुआ न ही साम्प्रदायिक विद्वेष उत्पन्न हुआ। उन्होंने केंद्र-राज्य संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने के लिए आवाज उठाई। इसके चलते अस्सी के दशक के अंत तक सरकारिया आयोग का गठन किया गया। उन्होंने गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को एकजुट कर केंद्र के समक्ष अपनी मांगे भी रखी थीं। बसु ने राज्य में लोकतंत्र के दायरे में रहते हुए पार्टी को मजबूत करने के लिए भी अपने सहयोगियों और कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया। १९७७ में मुख्यमंत्री बनने के बाद ज्योति बाबू के राजनैतिक जीवन में उतार के दौर कम ही आए। अब इसे ज्योतिषीय भाषा में उनकी कुंडली का महाबली होना कहिए उनके प्रारब्ध में चढ़ाव ही चढ़ाव लिखा होना कहिए या फिर उनकी प्रबल इच्छाशक्ति, जिस काम में भी उन्होंने हाथ डाला उससे पीछे कभी नहीं हटे। पश्चिम बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से सचेतन प्रदेश में विपक्ष का सफाया कर एकछत्र वामपंथी राज चलाने को इसके सिवा क्या कहा जाए। ज्योति बाबू जैसा दूरदर्शी प्रशासक कभी भी अपने फैसले से पीछे नहीं हटा। उन्होंने पार्टी नीतियों के खिलाफ मुंह न खोलने का व्रत हाल के वर्षों में ही तोड़ा। अपने उत्तराधिकारी बुद्धदेव भट्टाचार्य की किसानों की जमीन हड़पने की नीतियों और सिंगूर व नंदीग्राम में गोली चलाने की घटनाओं से वे बेहद खफा थे। यह बात उन्होंने कुछ बयानों के माध्यम से प्रकाश में भी लायी। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उनका यह बयान कि 'लोकसभा चुनाव में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा' अंततः सच साबित हुआ।

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