Sunday, September 12, 2010

'दबंग' का करिश्मा

अक्सर विवादों से नाता रखने वाले सलमान खान बॉक्स ऑफिस पर ऐसा करिश्मा कर दिखाएंगे इसकी कल्पना शायद ही किसी ने नहीं की होगी। जबर्दस्त प्रचार के बाद ईद और गणेश चतुर्थी से एक दिन पहले रिलीज हुई सलमान की 'दबंग' ने पहले ही दिन टिकट खिड़की पर कमाई के पिछले सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए। करीब 18 करोड़ रुपये की लागत से बनी 'दबंग' ने पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर 14.5 करोड़ रुपये की कलेक्शन की। आमिर खान की फिल्म 'थ्री इडियट्स' ने पहले दिन 13 करोड़ रुपये की कमाई की थी। सलमान स्टारर इस फिल्म ने पहले दिन की कमाई के मामले में कटरीना, अजय दवगन की राजनीति (10.50 करोड़), अक्षय कुमार -दीपिका पादुकोण स्टारर हाउसफुल (9.50 करोड़), और इस साल की अब तक की सबसे महंगी प्राइस में बिकी ऋतिक रोशन-बारबरा मोरी की काइट्स ( 10 करोड़ ) को बहुत पीछे छोड़ दिया है। देशभर के 1584 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई 'दबंग' का दर्शकों में जबर्दस्त क्रेज रहा।  फिल्म ने रिलीज के पहले ही दिन दिन दिल्ली यूपी, बिहार, राजस्थान और पंजाब में कमाई के नए रेकॉर्ड बनाए और आमिर खान की ऑल टाइम ज्यादा कमाई वाली फिल्म 'थ्री इडियट्स' को पछाड़ दिया। 

Saturday, August 14, 2010

nirajmani: -आजादी ................................

nirajmani: -आजादी ................................: "पंद्रह अगस्त १९४७ को जब सारा देश आजादी के जश्न में डूबा था। वहीं राष्ट्रपति महात्मा गांधी चिंतन में थे। शायद उनकी चिंता भविष्य की थी। आखिर..."

nirajmani: -आजादी ................................

nirajmani: -आजादी ................................: "पंद्रह अगस्त १९४७ को जब सारा देश आजादी के जश्न में डूबा था। वहीं राष्ट्रपति महात्मा गांधी चिंतन में थे। शायद उनकी चिंता भविष्य की थी। आखिर..."

-आजादी ................................

पंद्रह अगस्त १९४७ को जब सारा देश आजादी के जश्न में डूबा था। वहीं राष्ट्रपति महात्मा गांधी चिंतन में थे। शायद उनकी चिंता भविष्य की थी।   आखिर भारतीयों द्वारा राजकाज संभालने के बाद लोक तंत्र को कैसे अक्षुण्य बनाए रखा जा सकेगा।
आजादी का पहला दिन १५ अगस्त मगर आजादी मिली १४ अगस्त की मध्यरात्रि। आखिर ऐसा क्या था कि हमने आधी रात को सत्ता संभाली? सवाल यह भी है क्या महात्मा गांधी के उद्देश्य  पूर्ण हुए हैं?  वह भूदान ग्रामदान क्या निर्धनों ने स्वतंत्रता का अर्थ समझा? क्या गांधी, विनोबा, जयप्रकाश नारायण ने आम आदमी को जिस तरह आजादी के मर्म समझाए इसका भारतीय और प्रांतीय शासकों ने पालन किया? क्या राष्ट्रभाषा प्रचार समिति राष्ट्रभाषाओं के विभिन्न विद्यालय वास्तव में चलने दिए? क्या बेरोजगारों को भारतीय स्वतंत्रता का अर्थ समझने दिया गया? क्या खादी ग्रामोद्योग बोर्ड ईमानदारी से चल पाया? क्या स्वतंत्रता के पश्चात तमाम ग्रामीण ग्रामों के मोहताज नहीं हो गए?
पराधीनता के समय अंग्रेजों ने जिस तरह भारतीयों को गुलाम बनाया था ठीक वैसे ही पंद्रह अगस्त १९४७ उपरांत भी भारतीय वैसे ही गुलाम बने हुए हैं? महात्मा गांधी ने कहा था भारत की आत्मा गांव में बसती है पर आज आधी शताब्दी पश्चात लगता है भारत नेताओं  अभिनेत्रियों, व्यापारियों करोड़पतियों, शेयर होल्डरों विदेशियों के मध्य भारतीय आत्मा रहती है। लाखों करोड़ों लोग अंग्रेजो के जमाने में भी निर्धन थे। स्तंत्रता दिवस के नाम पर भी निर्धन हैं। भारत के नेता आपातकाल के बाद अपने आपको वायसराय मानने लगे थे। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या सत्ता पर वर्षों तक काबिज नेता सत्ता सुख भोग सकते थे। हमें मालूम है नेहरू, इंदिरा राजीव परिवार ने जनतंत्र को राजतंत्र स्थापति कर दिया। स्वतंत्रता/ जनतंत्र/ भारतीय नागारिकता/ मानवाधिकार/ राजनीतिक दल/ संविधान भारतीय सभ्यता/ भाषा/ धर्म/ मेल मिलाप सब कुछ विदेशी सभ्यता अनुसार ही मान्य है?
अगर वास्तव में ईमानदारी से भारतीयता का जनतंत्र स्थापित होता तो आज का भारत दूसरे ही रूप का होता।
महात्मा गांधी ने भारत को आजादी की व्यवस्था भी नई तरीकों से करने को कहा था। गांधी जी ने राज नेताओं को तपस्वी त्यागी बनने को भी कहा था पर सुख भोगी नेताओं ने स्वतः गांधीजी को ठुकरा दिया। अब सवाल यह है जब भारतीय नवपीढ़ी को वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ ही नहीं जानने दिया। हर नागरिक को राष्ट्र का अर्थ नहीं समझाने दिया। हर किसी को इसका अनुशासन नहीं समझाया। प्रत्येक को पालन नहीं करने दिया और दुनिया से भारत को प्रथक पहचान बनने ही नहीं दी तब भारतीय स्वतंत्रता का अर्थ क्या होगा? तब क्या हम अपने देश में स्वतंत्र नागरिक नहीं है? या सत्ता भोगी राजतंत्री है? अब तो स्थिति यह है की  भारतीय सत्ता भोगी विपक्ष को दुश्मन मानती है। कोई भी चुनाव बाद परस्पर प्रेम मिलाप से राष्ट्र को नहीं चलने देता? फिर कैसे कह सकते हैं की भारत की आम जनता अपने ही देश मैं आजाद  हैं

Sunday, August 8, 2010

आध्यात्मिकता बनाम हिन्दुत्व

हालीवुड अभिनेत्री जूलिया राबर्ट्स हिन्दू हो गयी. देशभर की मीडिया इस खबर से अटी पड़ी है है कि उन्हें हिन्दू धर्म ने इतना प्रभावित किया कि उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया. हाल के दिनों में अमेरिका में एक मजेदार बहस शुरू हुई है. वह बहस आध्यात्मिकता बनाम हिन्दुत्व की है. अमेरिका में धर्म के रूप में हिन्दुत्व का उल्लेख करनेवाले लोगों की कुल संख्या मुश्किल से दस से बारह लाख है. ऋषिकेश नवआध्यात्मवाद का नया तीर्थ बनकर उभरा है. पहाड़ और मैदान के मध्य में स्थित ऋषिकेश के आश्रम वैश्विक पहुंच रखते हैं और दुनियाभर से आध्यात्मिकता की तलाश में नागरिक यहां पहुंचते हैं. यहां के आश्रमों में आपको चीन, जापान से लेकर अमेरिका, यूरोप और अफ्रीकी देशों के नागरिक मिलेंगे. अमेरिका में पहली बार हिन्दू धर्म ग्रन्थों से परिचय राल्फ वाल्दो इमर्सन ने 200 साल पहले करवाया जब उन्होंने बोस्टन हार्बर पर हिन्दू धर्मग्रन्थों का अनुवादित पाठ किया. लेकिन भारत की ओर से पहली बार जिस संत ने अमेरिका में सनातन धर्म के बारे में सार्वजनिक परिचय करवाया उनका नाम है स्वामी विवेकान्द. 1893 में विश्व धर्म संसद में उनके द्वारा हिन्दू धर्म के बारे में ऐतिहासिक भाषण दिया गया. ईसाई धर्मगुरुओं के तीखे आक्रमणों के बीच स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को बहुत सटीक तरीके से हिन्दुत्व की व्याख्या की. स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिकी जमीन पर जिस आध्यात्मिकता की शुरूआत की वह कालांतर में एक प्रवाह बन गयी. अमेरिका अपनी आध्यात्मिक यात्रा की दो शताब्दी में ही हिन्दुत्व और आध्यात्मिकता के अंतर पर बहस कर रहा ह.ै

Sunday, July 11, 2010

बदहाल बुंदेलखंड

बुंदेलखंड में बेतहाशा गर्मी की वजह से न सिर्फ पीने के पानी की किल्लत हो गई है। बल्कि नदियां सूखने की वजह से बिजली उत्पादन पर भी असर पड़ा है। तपिस और झुलसा देने वाली गर्मी ने बुंदेलखंड के कई जिलों में सूखे जैसे हालात पैदा कर डाले हैं। हैरत इस बात को लेकर है कि राज्य सरकार गर्मी से उत्पन्न संकट को दूर करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनायें तो बना रही है, लेकिन धरातल में कारगर न हो पाने से लोगों की दिक्कत बढ़ी है।
आम तौर पर पथरीले बुंदेलखंड में गर्मी के मौसम में धरती जलती है लेकिन इस साल तो तापमान ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले पारा ५० डिग्री के पार तक पहुंचा और गर्मी ने लोगों को बेहाल कर डाला। बुंदेलखंड में इस साल अप्रैल से ही आसमान ने जहां आग बरसाई वहीं धरती भी तवे की तरह लाल रही। इस साल अभी भी बुंदेलखंड वासियों को अच्छे मानसून का इंतजार है। अगर इस वर्ष भी वर्षा अच्छी न हुई तो बुंदेलखंड लगातार पांचवे वर्ष भी सूखा ही झेलेगा। लोगों का पलायन होगा औ भूख से मौते होंगी। पिछले मौसमों में लगातार कम बारिश के चलते जमीन के नीचे के जल स्तर में भारी गिरावट आई, नदियों का भी प्रवाह थम सा गया। गर्मी ने इस संकट को और बढ़ाया और हालात भयावहता की ओर है। शहर ही नहीं बुंदेलखंड के सैंकड़ों गांव पानी के संकट से जूझ रहे हैं। पानी के इस संकट के लिए विशेषज्ञ सरकार की नीतियों को ही जिम्मेदार मानते हैं। बुंदेलखंड में जिस तरीके से नदियों का दोहन किया गया और पारंपरिक जल स्रोतों पर तवज्जों नहीं दी गयी। उसकी वजह से बुंदेलखंड में जल संकट पैदा हो गया है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई  हो या नदी और पहाड़ों का खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा रहा है। नतीजा यह कि सूरज की तपिश की वजह से आम जनता का जीना हराम हो गया है गर्मी के हालातों को देखते हुए ऐसा नहीं है कि सरकार कुछ ध्यान नहीं देती पिछली बार पानी की समस्या से निपटने के लिए साढ़े सात सौ करोड़ बुंदेलखंड को मिले थे। ये रुपया कहां गया किसी को पता नहीं है। इस बार बुंदेलखंड को १२ सौ करोड़ का झुनझुना मिला है लेकिन अगर काम के नाम पर कुछ हो रहा है तो वह सियासत है। समूचे बुंदेलखंड हलक से लेकर खेत तक प्यासा है। जानवरों के चारे का संकट है। तभी तो भूगर्भ जल निदेशालय ने शहर वासियों को पानी से होने वाली परेशानी से चेताया है। रिपोर्ट के अनुसार जल दोहन से बांदा से प्रतिवर्ष भूगर्भ जलस्तर ६५ सेंटीमीटर गिर रहा है जबकि झांसी में ५० सेंटीमीटर गिर रहा है। लखनऊ ५६ तो कानपुर ४५ है।
बुंदेलखंड विन्ध्य पठारी क्षेत्र में स्थित बांदा दक्षिणी पुनिनसुलर क्षेत्र में सेंडीमेंटस शैल समूह के अंतर्गत आता है। प्रदेश में सबसे गहराई वाला जल स्तर क्षेत्र बेतवा और यमुना की घटियों में पाया जाता है। इसमें बांदा चित्रकूट, हमीरपुर जालौन, झांसी सहित इलाहाबाद हैं। बुंदेलखंड में पानी की समस्या नई नहीं है। यहां भूगर्भ है। जल सीमित है क्योंकि धरती के नीचे की बनावट ही ऐसी है कि बहुत बड़ा जल का स्टोर नहीं हो सकता है। स्थिति तब भयावह हो जाती है जब हम लगातार भू गर्भ जल का दोहन करते आ रहे हैें और उसके रिचार्ज की उचित व्यवस्था हमारे पास नहीं है। साथ ही कम होती वर्ष बड़ा संकट है। केन नदी जनवरी में ही सूखने की स्थिति में आ जाती है। गर्मी के पांच महीने जुलाई तक पानी का घोर संकट रहता है। पारंपरिक जलस्रोत सूख जाते हैं। पिछले छह सालों से कम वर्षा बांदा में सूखे काल का प्रमुख कारण है। २००३ से २००९ तक कुल ३७२ दिन बारिश हुई। निरंतर गहराता जलसंकट जन जागरूकता, सामूहिक प्रयासों के अभाव के कारण पैदा हुआ है।
बुंदेलखंड में ज्यादातर क्षेत्र असिंचित होने के कारण बिना बुवाई के रह जाता है। सैंकड़ों लोग प्रदूषित पानी से उपजी बीमारियों के कारण मौत की नींद सो जाते हैं। कुछ क्षेत्र में हाथ, पैर में लकवा, आंखों की अंधता, पथरी, बवासीर, रक्त की कमी, टीवी आदि से ग्रसित रहते हैं। केन नदी को वीभत्स बनाने वाला चाहे करिया नाला हो या मंदाकिनी को प्रदूषित करने वाला सीवर देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि नदी में कितनी तादाद में जहर प्रतिदिन घुल रहा है। बहरहाल रसूखदार मंत्रियों के ग्रह जनपद से लेकर पूरे बुंदेलखंड में एक दर्जन लाल बत्तियां भले ही अपनी प्यास बुझा रही हों लेकिन गिरते जल स्तर ने बुंदेलखंडवासियों के हलक सूखा दिये हैं। बुंदेलखंड में सरकारी खजाने से जारी हुयी करोड़ों रुपये का इस्तेमाल जलसंचयन, जल प्रबंधन नहरों, तालाबों और कुओं की सफाई के लिए इस्तेमाल किया जाना था। साथ ही इन सभी स्रातों में बरसात का पानी एकत्र करने की योजना थी मगर न तो पानी एकत्र किया गया। न ही नहरों की तालाबों की सफाई हो सकी। आखिर सरकार का रुपया कौन डकार गया केंद्रीय भूमि जल बोर्ड के वैज्ञानिक डा. डीएस पाण्डेय साफ कहते हैं कि चित्रकूटधाम मंडल के बांदा जनपद के आठ विकास खंड के चार हमीरपुर के सात में चार महोबा के पांच में तीन व चित्रकूट के पांचों विकास खंडों में जल स्तर एक से तीन मीटर नीचे खिसक गया है। केन बेतवा गठजोड़ से पहले अब भू गर्भ जल स्तर को बचाने की आवश्यकता है।
बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में पोखर तालाब और सरोवर जीवन पालक हैं जहां पशुपक्षी ही नहीं आदमी भी अपनी प्यास बुझाता है। बीते दो दशक में अतिक्रमण के चलते तालाबों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप में कमी आई है। पटेल की माने तो डेढ़ करोड़ हजार तालाबों में करीब पांच सौ ही तालाबों में पानी है। सूरज की भीषण तपन से जहां जीव जन्तु बेहाल हैं वहीं जानवर प्यास बुझाने को जंगलों में भटक रहे हैं। सरकारी आंकड़ों में कुल १५५३ तालाब हैं। जिसमें एक हजार सूख चुके हैं। बानगंगा नदी, कडैली नाला एवं बदरहा नाला के सूखने से पहाड़ों की तलहटों में बसे कुरुह, बरकठा, जरैला, राजाडाडी, खेरियां, महुई, कुलसारी एवं छतैनी गांवों में पेयजल संकट बढ़ा है।

उत्साह की लहर दौड़ा गयी क्वींस बेटन

राष्ट्रमंडल खेलों की मशाल क्वींस बेटन नवाबों के शहर लखनऊ में आयी तो पूरे शहर में उत्साह की लहर दौड़ गयी। नन्हें-मुन्ने बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े तक उसे एक झलक देखने और एक बार उसे छू  लेने की लालसा लेकर घंटों सड़क पर उस तरफ टकटकी लगाकर देखते रहे जिस रास्ते से क्वींस बेटन आ रही थी। तमाम देशों के झंडों के बीच लहराते तिरंगे और देशभक्ति की भावना से ओत प्रोत नारों के साथ स्कूली बच्चे कड़ी धूप के बावजूद घंटों क्वींस बेटन के इंतजार में सड़कों पर खड़े रहे।
क्वींस बेटन को सीतापुर के रास्ते लखनऊ  आना था। लखनऊ में उसका पहला स्वागत इटौंजा में होना था। इसी वजह से इटौंजा और लखनऊ के एतिहासिक आसिफी इमामबाड़े के बाहर लोगों का हुजूम जमा था। अपने निर्धारित समय से डेढ़ घंटा देर से इटौंजा पहुंची क्वींस बेटन के स्वागत के उत्साह में कोई कमी नजर नहीं आयी। इमामबाड़े के बाहर सुबह से ही स्वागत की तैयारियां चल रही थीं। इमामबाड़े के पास उसे शाम पांच बजे पहुंचना था। स्वागत की तैयारियां पूरी थीं। स्कूली बच्चे पसीने से लथपथ थे। इसी बीच खबर आयी कि क्वींस बेटन अब सीतापुर से चली है। उसे पहुंचते-पहुंचते तीन-चार घंटे लग जाएंगे। किसी और का इंतजार होता तो शायद लोगों की वापसी शुरू हो जाती लेकिन क्वींस बेटन का मामला था इसलिए स्कूली बच्चों ने अपने कार्यक्रम का रिहर्सल कर दिया। कुछ ही देर के बाद सड़क पर बढ़ती भीड़ को देखकर मुख्य मार्ग को बंद करना पड़ा। रास्ता बंद हो गया तो उत्साह चरम पर आ गया। स्कूली बच्चों ने अपना कार्यक्रम सड़क पर ही शुरू कर दिया। उधर क्वींस बेटन इटौंजा पहुंच चुकी थी। इटौंजा से लेकर बख्शी का तालाब तक सड़क के दोनों ओर लोगों का हुजूम स्वागत के लिए खड़ा हुआ था। क्वींस बेटन अपने लाव लश्कर के साथ आसिफी इमामबाड़े पहुंची तो लखनऊ के मंडलायुक्त, जिलाधिकारी, ओलम्पिक संघ के पदाधिकारी सबके सब मुस्तैद थे। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रतिनिधि उन ऐतिहासिक पलों को कैद करने के लिए तैयार थे। इधर बादलों की ओट में सूरज छुपा उधर क्वींस बेटन का कारवां टीले वाली मस्जिद की तरफ से आसिफी इमामबाड़े की ओर मुड़ता नजर आया। क्वींस बेटन को देखते ही देशभक्ति से ओतप्रोत नारे वातावरण में गूंजने लगे। देशभक्ति के गीत लाउडस्पीकर पर सुनायी पड़ने लगे। खुली जीप पर चमचमाती क्वींस बेटन हजारों लोगों के बीच से गुजरती कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गयी। महत्वपूर्ण हस्तियों के हाथों में कुछ देर रहने के बाद क्वींस बेटन कानपुर रोड स्थित सिटी मान्टेसरी स्कूल के लिए रवाना हो गयी। सिटी मान्टेसरी स्कूल में स्कूली बच्चों ने क्वींस बेटन के सम्मान में एक से बढ़कर एक सांस्कृतिक कार्यव्रम प्रस्तुत किए।
अगले दिन क्वींस बेटन एक बार फिर इमामबाड़े के बाहर जा पहुंची। भीड़ इस बार भी खूब थी लेकिन इस बार स्कूली बच्चों से ज्यादा खिलाड़ी नजर आ रहे थे। यह नामवर खिलाड़ी भी स्कूली बच्चों की तरह से क्वींस बेटन को छूने और निहारने को लालायित नजर आ रहे थे। जब क्वींस बेटन जाने-माने खिलाड़ी विजय सिंह चौहान के हाथ में आयी और केडी सिंह बाबू स्टेडियम के लिए रिले दौड़ शुरू हो गयी। एक खिलाड़ी के हाथ से दूसरे खिलाड़ी के हाथों में पहुंचती क्वींस बेटन के डी सिंह बाबू स्टेडियम जा पहुंची। स्टेडियम से उसे उसकी मंजिल की तरफ रवाना कर दिया गया। लखनऊ से रायबरेली होते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की यह मशाल देश की राजधानी दिल्ली के लिए कूच कर गयी।

Tuesday, June 29, 2010

रोचक हुआ राजनीतिक खेल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के दौरे ने बिहार की राजनीति को एक नया रंग दे दिया है। उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को लागू करने की घोषणा करके मायावती ने बिहार के अन्य राजनीतिक दलों में खलबली मचा दी है। मायावती के दौरे का असर साफ नजर आने लगा है। सभी राजनीतिक दल अपने अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने में जुट गए हैं। 
बसपा सुप्रीमों मायावती के दौरे का असर भाजपा -जदयू गठबंधन पर साफ दिखायी देने लगा है। भाजपा-जदयू गठबंधन में आयी दरार का मुख्य कारण बसपा सुप्रीमो मायावती के सफल दौरे को ही माना जा रहा है। मायावती की जनसभा में जुटी भारी भीड़ से अन्य दलों को यह आभास हो गया है कि दलित और मुस्लिम मतदाताओं के साथ-साथ सवर्ण मतदाताओं का रुझान भी बसपा की ओर बढ़ा है। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में बसपा को भले ही उत्तर प्रदेश की तरह अपेक्षित सफलता न मिले लेकिन बसपाके लिए  बिहार का चुनावी गणित काफी सक्षम प्रतीत हो रही है। 
हालांकि इससे पूर्व भी बिहार विधानसभा चुनाव में बसपा को कोई बड़ी सफलता हासिल नहीं हुई थी क्योंकि उन चुनाव में बसपा सिर्फ (वोट कटवा ) के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकी थी। लेकिन बसपा ने धर्मनिरपेक्ष मतों का जातिगत आधार पर बंटवारा करके धर्मनिरपेक्ष दलों को काफी नुकसान पहुंचाया था। बसपा के इसी रूप का लाभ भाजपा-जदयू गठबंधन को मिला था और बिहार में इस गठबंधन ने सत्ता संभाली थी। यह कहना उचित न होगा कि बसपा ही बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार बनाने में मदद की थी। क्योंकि पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की लोकप्रियता और जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद की अलोकप्रियता ने इस गठबंधन को सत्ता में पहुंचाया था। आगामी विधान सभा चुनाव में जहां इस गठबंधन को सत्ता में आने की चुनौती है वहीं लालू प्रसाद यादव और पासवान भी कांग्रेस को साथ लेकर सत्ता हासिल करने की चुनौती दे रहे हैं। जबकि उत्तर प्रदेश में बहुमत हासिल करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने बिहार की सत्ता हासिल करने का सपना संजोया है। 
बिहार के सभी राजनीतिक दल बसपा की उपस्थिति से अपनी-अपनी सफलताओं के प्रति चिंतित नजर आ रहे हैं।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  पर भी इस चिंता का असर साफ नजर आने लगा है। यही कारण है कि उन्होंने सांप्रदायिक शक्तियों से अपने को अलग करने का फैसला किया है। आमजनसभा में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्धारा दी गयी आपदा धनराशि को वापस करने की घोषणा को नीतीश कुमार की चुनावी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। नीतीश अपनी इस रणनीति से एक तीर से दो शिकार करना चाह रहे हैं। पहला यह कि नीतीश कुमार मुस्लिम मतदाताओं के बीच यह संदेश देना चाहते हैं कि उनका सांप्रदायिक शक्तियों से कोई लेना देना नहीं। वह मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी हैं। दुसरा यह कि उनकी सरकार ने अपने सहयोगी दल भाजपा के दबाव में कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे कि अल्पसंख्यक हितों की अनदेखी की जाएगी। नीतीश कुमार अपनी इस चाल से एक तरफ कांग्रेस, लालू-पासवान गठबंधन के मुस्लिम मतों में सेंध लगाने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बसपा के प्रति बढ़ते रुझान को भी रोकने का प्रयास कर रहे हैं। श्री कुमार अपनी इन राजनीतिक रणनीतियों के साथ-साथ अपने विकास कार्यों को प्रचारित प्रसारित करके अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बना रहे हैं। फिलहाल बिहार में बसपा की सक्रियता से चुनावी गणित काफी रोचक हो गया है। जहां राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, लोजपा अध्यक्ष रामविलाश पासवान, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व कांग्रेस की प्रतिष्ठा  दांव पर लगी हुयी है। हालांकि कांग्रेस अपनी नयी जमीन तलाशने के प्रयास में नए-नए प्रयोग कर रही है।
फिलहाल बिहार का चुनावी रंगमंच बनकर तैयार है। सभी किरदार अपनी बदली भूमिका में नजर आ रहे हैं। कौन किसको अपने गले लगाएगा और किसकी पीठ में खंजर चुभायेगा यह जानने में अभी वक्त लगेगा। लेकिन राजनीति के धुरंधरों की मांग बढ़ रही है। चौपालों और कस्बों में चुनावी चर्चा जोर पकड़ रही है। बहस का मुद्दा फिलहाल यही है कि नीतीश कुमार दुबारा सत्ता हासिल करेंगे या फिर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे की वापसी होगी। बसपा एवं सपा भी इस खेल को रोचक बनाने में जुटे हुए हैं।  इन सबसे अलग कांग्रेस अकेले दम पर ताल ठोंककर अपनी खोई जमीन वापस लाने को बेकरार है।

Monday, June 21, 2010

ट्वीट-ट्वीट

सेलेब्रिटी और उनकी निजी जिंदगी हमेशा से लोगों के आकर्षण का केंद्र रही है। आम लोग जिसे पर्दे पर ऐक्ट करते या दूर मैदान में खेलते देखते हैं उनके साथ होने का कोई मौका भला कैसे छोड़ सकते हैं। उसके सामने आने पर वे धक्का मुक्की तक कर बैठते हैं पर ट्विटर की आभासी दुनिया में यह परेशानी नहीं है।
फॉलोअर्स में सेलेब्रिटी के नजदीक बने रहने का मनोविज्ञान काम करता है लेकिन यहां भी वे अपनी प्राइवेसी में आपको उतना ही शामिल करते हैं जितने से आप उनके लिए परेशानी का सबब न बनें। वे कहेंगे लोग सुनेंगे। झूमेंगे या सिर धुनेंगे। कुछ मामलों में इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए ट्विटर पर सचिन के आह्वान पर बड़े से बड़ा कंजूस भी कैंसर के लिए अपनी गांठ खोल बैठा और कुछेक घंटों में ही साठ लाख से ज्यादा रुपये इकट्ठा हो गए! यह सेलेब्रिटी ट्विट की महिमा है।
भारत में ट्विटर सुखिर्यों में आया पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की ट्विट्स से। सिर्फ १४० अक्षरों के कुछ ट्विट्स ने यूपीए सरकार के लिए परेशानियों के कई अवसर जुटा दिए। इसी ट्विटर ने आईपीएल में भ्रष्टाचार मामले को गर्माया और पहले थरूर और बाद में आईपीएल चीफ ललित मोदी को अपने अपने पदों से हाथ धोना पड़ा। अब कोई सेलेब्रिटी किसी मसले में अपने को घिरा हुआ पाता है तो तत्काल ट्विटर पर सफाई पेश करने में जुट जाता है। आप पाएंगे कि ट्विटर पर इस मकसद से इंट्री मारने वाले सेलेब्रिटी की तादाद उसके रेग्युलर ट्विट करने वालों से कहीं ज्यादा है। उन्हें तवा गर्म होने का इंतजार रहता है। वह गर्म हुआ नहीं कि वे रोटी सेंकने बैठ जाएंगे। अक्सर आलोचना झेलने वाले गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी की हालिया ट्विट इसका एक प्रमाण है। उन्होंने लिखा है कि एनडीटीवी ने देश भर में ३४ हजार लोगों का सर्वे किया। ८५ फीसदी लोगों ने माना कि मैं बेस्ट परफॉमिर्ंग सीएम हूं। उधर पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ट्विटर जॉइन कर चिदंबरम को न्यौत रहे हैं। शाहरुख खान ट्वीट करते हैं काफी दिनों बाद आइसक्रीम खाई। कहा जाता है कि यह सर्दी जुकाम के लिए बेहतर है। उनके फॉलोअर्स इस बात पर अनेक तरह से रायशुमारी करते हैं। बिग बी यानि अमिताभ बच्चन ट्वीट करते हैं और उनके प्रशंसक उस पर प्रतिक्रिया करते हैं। आज कल सेलेब्रिटी से लेकर आम आदमी तक ट्वीट कर रहा है। हालांकि ट्वीट से कुछ लोगों को नुकसान भी उठाना पड़ रहा है पर इसका नशा ही कुछ ऐसा है कि लोग ट्वीट करने से बाज नहीं आते। शाहरुख सेलेब्रिटी हैं इसीलिए उनके आइसक्रीम खाने से लेकर अपनी बच्ची को स्वीमिंग के लिए ले जाने जैसी मामूली बातों में भी हमारी रुचि है। हमारा आपका जीवन इतना मामूली है कि उसमें बहुत खास मौकों पर भी आप ट्विटर पर कुछ लिखें तो वह बात आपके आठ दस दोस्तों के बीच घूम फिर कर खत्म हो जाएगी। हालांकि ट्विटर पर अकाउंट खोलना बाएं हाथ का खेल है लेकिन यह तथ्य है कि यह हमारे आपके नहीं, सेलेब्रिटीज के काम की चीज बन गई है। आप क्या कर रहे हैं, क्या खा रहे हैं, किससे मिल रहे हैं या आपके गर्लफ्रेंड/बॉयफ्रेंड कौन हैं जैसे सवालों के जवाब में यदि आप की जगह दीपिका पादुकोण को रख दिया जाए तो उसमें लोगों की दिलचस्पी अचानक बढ़ जाती है।
विभिन्न क्षेत्रों के सेलेब्रिटीज के इस नये प्रेम पर गहराई से विचार करें तो कुछ और बातें भी साफ होती हैं। ऐसे वक्त में जब अफवाह, गलतबयानी और गॉसिप को बड़े ध्यान से सुना जाता है, स्टार्स इसका अपने हक में इस्तेमाल न करें, यह असंभव है। आश्चर्य नहीं कि ट्विटर के पहले और इसके समानांतर भी बॉलिवुड में गॉसिप का अच्छा खासा बाजार रहा है। एक आंकलन के मुताबिक स्टार्स और फिल्म मेकर्स ऐसी गॉसिप को प्लांट करने के लिए सालाना १५ से २५ करोड़ की रकम खर्च करते हैं। ऐसे में ट्विटर उनके लिए एक सुविधाजनक यंत्र की तरह उभरा है। अपने फैंस और फॉलोअर्स तक ऐसी गॉसिप को पहुंचाने के लिए पहले जहां वे मीडिया के विभिन्न माध्यमों का सहारा लेते थे, ट्विटर के जरिए अब वे सीधे उन तक पहुंच रहे हैं। उन्हें किसी बात को खासो आम तक पहुंचाने के लिए इंतजार नहीं करना है। वे अपनी सुविधा और शर्तों पर ट्वीट कर रहे हैं। इस तरह उनकी पीआर अपने आप हो रही है और उनके मन से यह डर भी जाता रहा है कि उनकी बातों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाएगा।
ट्विटर में जिस मिजाज की बातें लिखी जाती हैं, उसका फायदा यह भी है कि विवाद होने पर उससे आसानी से पल्ला झाड़ा जा सकता है। कोई भी सेलेब्रिटी आसानी से यह कह कर विवाद को खारिज कर सकती है कि अरे वह तो बेहद हल्के फुल्के ढंग से उसने ऐसा कहा था लेकिन दूसरी तरफ इसी की आड़ में दूसरों पर फब्ती भी कसी जा सकती है, अपने दाग धब्बे धोए जा सकते हैं। जहां स्टार्स की जिंदगी को हसरत भरी निगाहों से देखने और वैसी ही जिंदगी बसर करने का ख्वाब देखने वालों की तादाद बढ़ी है, वहां स्टार की इमेज का भी महत्व होगा ही। रितिक रोशन शिरडी में बदसलूकी करते हैं और ट्विटर पर आकर उसके लिए अफसोस जाहिर करते नजर आते हैं। इन सबके बीच एक्ट्रेस मिनीषा लांबा की ताजा ट्विट काबिले गौर है ट्विटर से बोर हो रही हूं।

सकते में राजनीति

छोटे दल इतने खतरनाक हो सकते हैं। सभी राष्ट्रीय दलों इसका एहसास उत्तर प्रदेश में होने लगा है। दो साल पूर्व गठित पीस पार्टी आफ इंडिया ने डुमरियागंज विधानसभा उप चुनाव में अपनी दमदार उपस्थिति से राष्ट्रीय दलों को जिस तरह चौंकाया, उससे स्पष्ट है कि आगामी विधानसभा चुनाव में तमाम छोटे राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। हालांकि डुमरियागंज विधानसभा उप चुनाव में बसपा को सफलता मिली है और पीस पार्टी के बढ़ते प्रभाव का उस पर असर नहीं दिखाई दिया है। फिर भी इस चुनाव में पीस पार्टी न सिर्फ नंबर दो पर रही, बल्कि सपा और कांग्रेस को चौथे और पांचवे स्थान पर धकेलने में सफल पीस पार्टी रही।
एक ऐसा राजनीतिक दल न जिसका जन्म ही दो साल पहले हुआ हो इतने अल्पसमय हो, उसने, उपचुनाव में सपा, भाजपा और कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। उसने शैशव काल में ही दिग्गज राजनीतिक दलों को झटका देते हुए अपनी प्रभावशाली उपस्थिति का अहसास करा दिया। हालांकि पीस पार्टी मुख्य रूप से मुस्लिम संगठन माना जाता है लेकिन उसने डुमरियागंज विधानसभा उपचुनाव में एक ब्राहमण प्रत्याशी को मैदान में उतारकर मुस्लिम-ब्राहमण का समीकरण बनाया व सपा और कांग्रेस को पीछे धकेल दिया। सफलता बसपा को जरूर मिली लेकिन १७.७ प्रतिशत मत प्राप्त करके पीस पार्टी ने अन्य दलों को सदमें में डाल दिया। कांग्रेस जैसी पार्टी को पांचवा स्थान मिलना उसे फिर से सोचने पर मजबूर करता है। यह कांग्रेस के लिए झटका कहा जा सकता है क्योंकि उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए वह राहुल गांधी के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा कर रही थी।
राजनीतिक विश्लेषक इन परिणामों को कांग्रेस के मिशन २०१२ के लिए शुभ संकेत नहीं मानते। उनका कहना है कि यह सच है कि जनता कांग्रेस को एक बार फिर पसंद कर रही है लेकिन जहां पर स्थानीय मुद्दों की बात होती है वहां अभी भी लोग छोटे दलों पर निर्भर हैं। इन राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो जिस तरह से कभी समाजवादी पार्टी ने यादव, मुस्लिम और ब्राहमण गंठजोड़ से प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाया था और बहुजन समाज पार्टी ने ब्राहमण, मुस्लिम व पिछड़ी जातियों के बूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी वैसा करिश्मा छोटे दल शायद ही कर सकें लेकिन वे बड़ी पार्टियों का गड़ित जरूर बिगाड़ सकते हैं। इसी फलसफे के आधार पर पीस पार्टी प्रदेश में जनाधार बढ़ाने का काम कर रही है।
हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी के बढ़ते प्रभाव से सांप्रदा विकल्प मतों के बढ़ने का भी खतरा बढ़ गया है। इसका अंदाजा डुमरियागंज चुनाव से लगाया जा सकता है। जहां भाजपा प्रदेश में जनाधार विहीन होते हुए भी नं.तीन पर रही। पीस पार्टी/ का जन्म मूलतः मुस्लिम समुदाय को ही एक जुट करने और उसको मजबूत करने के लिए हुआ था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम एकजुटता से नाराज हिंदूओं का भी ध्रुवी करण हो सकता है। गोरखपुर के सांसद महंत योगी आदित्य नाथ ने हिंदू ध्रुवीकरण के लिए अभियान छेड़ रखा है।
ऐसा माना जा रहा है कि पीस पार्टी के गठन से पूर्वी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक शक्तियों का भी एकजुट होना प्रारंभ हो गया है। पूर्वांचल के सपा और कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि पीस पार्टी का गठन गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ के इशारे पर ही किया गया है। योगी पूर्वांचल में पीस पार्टी के गठन के बाद से हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़का कर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने की योजना में जुट गए हैं। इन नेताओं का मानना है कि पीस पार्टी का उदय धर्मनिरेपक्ष ताकतों के लिए बहुत बड़ा खतरा बनने जा रहा है और प्रदेश की जनता को इससे सावधान रहना होगा।
पीस पार्टी का जन्म उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को एकजुट करने और इस समुदाय को मजबूत मंच देने के उद्देश्य से हुआ था। पार्टी के संस्थापक डाक्टर अयूब पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण शहर गोरखपुर के सफलतम चिकित्सकों में से एक माने जाते हैं। उनकी पार्टी को २००७ के विधानसभा चुनाव में पैरों का निशान चुनाव चिन्ह मिला था। २००९ के लोकसभा चुनाव के दौरान इसी चुनाव चिन्ह पर इस पार्टी ने मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वर्तमान समय में पीस पार्टी का प्रभाव आजमगढ़, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, संतकबीर नगर, जौनपुर, देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर, महाराजगंज और बस्ती में है। धीरे-धीरे यह इन क्षेत्रों में जनाधर बढ़ाकर मुस्लिमों को एकजुट करने का काम कर रही है। इससे सपा, भाजपा कांग्रेस सहित अन्य प्रमुख दलों की पूर्वांचल में नींद उड़ रही है। अगर आगामी विधानसभा चुनाव में भी इस पार्टी का यह जादू चला तो सबसे बड़ा झटका कांग्रेस और सपा को लग सकता है। यह दोनो ही दल मुस्लिम वोटों पर निर्भर हैं।
यह भी कहा जा रहा है कि अगर आगामी विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस सत्ता की दहलीज तक नहीं पहुंच पाते तो उसकी एक बड़ी वजह पीस पार्टी सहित अन्य छोटे दल भी होंगे। इसी तरह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए एक और दल भारतीय समाज पार्टी भी खतरा बन सकता है। ओमप्रकाश राजभर की भारतीय समाज पार्टी पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजभर समुदाय के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों में अच्छा खासा प्रभाव रखती है। पार्टी के कर्ता धर्ता ओमप्रकाश राजभर अपने समुदाय को अनुसूचित जाति की श्रेणी में सूचीबद्ध कराने का भी प्रयास कर रहे हैं, इससे वह राजभर समुदाय के बीच यह जताने का प्रयास कर रहे हैं । पूर्वी उत्तर प्रदेश के कम से कम १२ विधानसभा क्षेत्रों में राजभर समुदाय की अच्छी खासी आबादी है। जिससे आगामी विधानसभा चुनाव में सपा, कांग्रेस, भाजपा और बसपा को मुसीबत खड़ी हो सकती है। अगर आगामी चुनाव में भारतीय समाज पार्टी को कुछ सफलता मिलती है तो वह सपा, बसपा या कांग्रेस से समझौता करने में पीछे नहीं रहेगी। इसकी वजह उनके अपने हित और राजनीतिक समीकरण हैं। डुमरियागंज में पीस पार्टी को मिली ताजा सफलता के पीछे भारतीय समाज पार्टी के योगदान को भी अहम माना जा रहा है । भारतीय समाज पार्टी ने डुमरियागंज विधानसभा उपचुनाव में पीस पार्टी का समर्थन किया था।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इन छोटे दलों की प्रदेश में बढ़ती लोकप्रियता बड़े दलों के लिए मुसीबत बन रही है। इनका मानना है कि छोटे दलों का अपना खस वोट बैंक है, जिसे अपने हिसाब से वह चाहें जिधर प्रयोग कर सकते हैं। समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन छोटे दलों के बढ़ते जनाधार का खामियाजा सपा को सबसे ज्यादा भुुगतना पड़ा है। मुख्य रूप से पीस पार्टी के चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों में नया ध्रुवीकरण होने से सपा का प्रदर्शन लगातार धरातल की ओर जा रहा है। २००९ के लोकसभा चुनाव के दौरान भी यही तमाम छोटे-छोटे दल समाजवादी पार्टी के लिए खतरा बने थे। राजनीतिक विश्लेषकों को यह भी लगता है कि यह प्रवृत्ति प्रदेश की राजनीति के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। अब जातिवाद की राजनीति के अगले चरण में उपजाति और समुदाय की भी रणनीति अमल में लायी जानी शुरू हो चुकी है। इससे समाज में विभाजन की रेखा तो खिंचेगी ही लेकिन तात्कालिक लाभ की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलेगा। सामाजिक वैज्ञानिक डा. एस के सिंह कहते हैं कि प्रमुख राजनीतिक दलों अपने राजनीतिक मतभेद भुलाकर देश और प्रदेश के हितों को तय करना चाहिए। अगर अब भी ये सचेत न हुए और इन दलों की अनदेखी की गयी तो एक दिन यही बड़े दलों के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं।

Monday, June 14, 2010

आसान नहीं डगर

भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तर प्रदेश में सूर्य प्रताप शाही के हाथ में पार्टी की कमान सौंप दी। लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुकी पार्टी को पुर्नर्जीवित करने की अभिलाषा संजोए संगठन के नये सेनापति सूर्य प्रताप शाही की पहचान न तो राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रदेश के बड़े नेता के तौर पर की जाती है। आज भी उन्हें पूर्वांचल का ही नेता माना जाता है।
फिलहाल नयी भूमिका में वे संगठन में कितनी जान फंूक पाते हैं यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि प्रदेश संगठन के अब तक जितने कद्दावर नेता हुए हैं उनका भी बड़ा जनाधार नहीं रहा। हालांकि वे पार्टी में बड़े कद के नेता जरूर माने जाते रहे हैं। चाहे पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हों या फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र अथवा सांसद लालजी टंडन सबका यही हाल है। विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह सबकी सीमायें जगजाहिर हैं। प्रांतीय संगठन में पिछड़ों के नेता होने का दम भरने वाले ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास न कर सके। प्रदेश भाजपा में टांग खींचू राजनीति का यह खेल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका है। ऐसे में नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही धुरंधरों एवं बंटे समर्थकों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं यह एक यक्ष प्रश्न है।
प्रदेश भाजपा में ऊपर से लेकर नीचे तक व्याप्त तमाम तरह की विकृतियों को यदि एक तरफ कर दिया जाए और नवनियुक्त अध्यक्ष से चमत्कार की उम्मीद की जाए तो यह बेमानी होगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ग्राम पकहाँ, थाना पथरदेवाँ (वर्तमान थाना बघऊच घाट) के मूल निवासी सूर्य प्रताप शाही ने १९८० से २००७ नौ चुनावी महासमर में ताल ठोंकी है। जिसमें से मात्र तीन बार ही जीते, ६ बार उन्हें करारी शिकस्त का स्वाद चखना पड़ा। आर.एस.एस. से संबंध रखने वाले सूर्य प्रताप शाही अपने जीवन में पहली बार कसया विधानसभा से १९८० में जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े। तब इन्हें कुल २००० मत ही प्राप्त हो सके। १९८५ के चुनाव में इसी विधानसभा सीट पर उन्होंने अपने निकटतम निर्दल राजनैतिक प्रतिद्वंदी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को २५० मतों से पराजित किया था। जबकि १९८९ के आम चुनाव में इसी सीट पर जनता दल के प्रत्याशी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग बारह हजार मतों से उन्हें हराया। दो वर्ष बाद हुए चुनाव में राम लहर के कारण शाही ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को पराजित करने में कामयाब हुए। जबकि १९९३ के चुनाव में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग पंद्रह हजार मतों से शाही को पराजित किया। आखिरी बार १९९६ में उन्हें मिली। २००२ एवं २००७ में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने उन्हें हराया। १९९१ में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे भाजपा के इस महारथी को प्रदेश सरकार में पहली बार गृह राज्यमंत्री तथा स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। १९९६ में वे आबकारी मंत्री भी बने। शाही के मंत्री पद का दोनों कार्यकाल विवादों से घिरा रहा। बतौर गृह राज्यमंत्री उनका कार्यकाल इतिहास के काले पन्नों में दर्ज है। उनके इस कार्यकाल में ही बहुचर्चित पथरदेवाँ बलात्कार कांड की गूंज लोकसभा से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गूंजी। अब ऐसे में यह स्वतः विचारणीय हो जाता है कि सूर्य प्रताप शाही मृत पड़ी प्रदेश भाजपा में जान फूंकने का कार्य कैसे करेंगे। भाजपा की पूर्वांचल की राजनीति भी उनके लिए निष्कंटक नहीं है। यहां उन्हें गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्य नाथ से जूझना होगा। योगी शुरू से ही उन्हें प्रदेश भाजपा की कमान सौंपे जाने के खिलाफ थे। ऐसे में वह सूर्य प्रताप शाही का किस हद तक और कितना साथ देंगे यह देखना दिलचस्प रहेगा। योगी आदित्य नाथ के प्रकोप से पूर्वांचल में भाजपा के वरिष्ठ नेता शिव प्रताप शुक्ल आज तक नहीं उतर सके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वे घटक उनका कितना साथ देंगे जो इस बार अपना प्रतिनिधि बतौर प्रदेश अध्यक्ष चाहते थे। वैसे सूर्य प्रताप शाही ने एक काम अच्छा किया। वे सड़क मार्ग से लोगों से मिलते जुलते हुए लखनऊ पहुंचे। उनकी निगाह ट्विटर जैसे आधुनिक संचार माध्यमों पर भी हैं। वैसे यहां उनकी मौजूदगी पर पार्टी का एक वर्ग नाराज भी है।

यह कैसा न्याय

भोपाल गैस त्रासदी के मुददे पर भी राजनीति शुरू हो गयी है। सीबीआई ने केस की जिस तरह से लचर पैरवी की है। उसका परिणाम सामने दिख रहा है। देश के आज तक के सबसे भयानक हादसे , जिसमें २७०० लोगों की मौत हो गयी थी सिर्फ आरोपियों को दो वर्ष की सजा सुनायी गयी। इन्हें बाद में जमानत पर रिहा भी कर दिया गया । इस फैसले से भोपाल के गैस पीड़ित परिवारों को घोर निराशा हुई है।
हालांकि केंद्रीय कानून मंत्री ने यह घोषणा करके कि अभी भोपाल गैस त्रासदी मामला खत्म नहीं हुआ है पीड़ितों के परिवारों के घावों पर मरहम लगाने का काम किया है लेकिन लोग उनके इस वक्तव्य पर शंका व्यक्त कर रहे हैं । वे इस फैसले के लिए राज्य और केंद्र सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं। इसके खिलाफ हर क्षेत्र से व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिली है। समाज के सभी तबकों ने सीबीआई पर अपनी जिम्मेदारी वहन न करने का आरोप लगाया है। इन सबका मानना है कि सीबीआई ने अगर ढंग से पैरवी की होती तो इस कांड के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिल सकती थी।
हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला देने वाले मामले पर २५ साल बाद भोपाल की सीजेएम कोर्ट ने फैसला सुना ही दिया। पंद्रह हजार से ज्यादा लोग भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली गैस से मारे गए थे। अभी भी कम से कम से कम ६ लाख लोग ऐसे हैं जिनके भीतर जहरीली गैस समाई है। इसके बुरे असर से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक के शिकार लोग हो रहे हैं। यह असाधारण मसला था लेकिन इसकी पूरी जांच और सुनवाई भारतीय संविधान की उन कमजोर कड़ियों का इस्तेमाल करके की गई कि यह लापरवाही का मामला बनकर रह गया। कमाल तो यह है कि उस समय यूनियन कार्बाइड के सीईओ रहे वॉरेन एंडरसन को आज भी दोषी नहीं बताया गया। जबकि वे इसी मामले में करीब दो दशक से भगोड़ा घोषित है। इसलिए जरूरी ये है कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी असाधारण परिस्थितियों के लिए संविधान में नए सिरे से बदलाव किया जाए।
दो-तीन दिसंबर १९८४ को भोपाल में जो औद्योगिक दुर्घटना हुयी थी जिसकी मार आज भी उस शहर के लोग झेल रहे हैं। इस भीषणतम दुर्घटना के पीड़ितों को आज तक उचित मुआवजा नहीं मिल पाया है। आज पच्चीस बरस बीत गए उस हादसे को। समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े लोग आज भी इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि किस तरह दुर्घटना में मारे गए लोगों को न्याय दिलाया जाए। न्याय भी मिला तो ऐसा कि लोगों के गले नहीं उतर रहा। दो - तीन दिसंबर की वह काली रात जब यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनाइड गैस लीक हुई थी तो १५ हजार से अधिक लोग मारे गए थे और तकरीबन पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। आज २५ बरस बीत चुके हैं तो गैस कांड के पीड़ित लोगों का न्याय देश में कोई मुद्दा नहीं है।
इस त्रासदी के उपरांत आज भी प्रभावित इलाके में भूजल बुरी तरह प्रदूषित है इससे प्रभावित लोगों की आने वाली पीढिय़ां बिना किसी जुर्म के शारीरिक और मानसिक तौर पर सजा भुगत रहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि हजारों को असमय ही मौत की नींद सुलाने वाले दोषियों को २५ साल बाद महज दो दो साल की सजा मिली और तो और उन्हें जमानत भी तत्काल ही मिल गई। हमारे विचार से तो इस मुकदमे की सजा इतनी होनी चाहिए थी कि यह दुनिया भर में इस तरह के मामलों के लिए एक नजीर पेश करती, वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं। कानून मंत्री वीरप्पा मोईली खुद भी लाचार होकर स्वीकार कर रहे हैं कि इस मामले में न्याय नहीं मिल सका है। फैसले में हुई देरी को वे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहे हैं। दरअसल मोईली से ही यह प्रश्न किए जाने की आवश्यक्ता है कि उन्होंने या उनके पहले रहे कानून मंत्रियों ने इस मामले में क्या भूमिका निभाई है।
इस औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक़ या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया था। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद लोगों का भरोसा सीबीआई से भी उठना स्वाभाविक है। इस मामले ने भारत के तंत्र को ही बेनकाब कर दिया । क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिका और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष की लौंडी बनकर रह गए हैं।

सीबीआई ने तीन साल तक लंबी छानबीन की और आरोप पत्र दायर किया था। इसके बाद आरोपियों ने उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाए थे। उच्च न्यायालय ने इनकी अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद आरोपी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए । वहां से उन्होंने आरोप पत्र को कमजोर करवाने में सफलता हासिल की। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या सीबीआई इतनी कमजोर हो गई थी कि उसने मामले की गंभीरता को न्यायालय के सामने नहीं रखा या रखा भी तो पूरे मन से नहीं । कारण चाहे जो भी रहे हों पर पीडि़तों के हाथ तो कुछ नहीं लगा।

आखिर क्या वजह थी कि एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद गेस्ट हाउस में रखा गया। इसके बाद जब उसे जमानत मिली तो विशेष विमान से भारत से भागने दिया गया। जब उसे ०१ फरवरी १९९२ को भगोड़ा घोषित कर दिया गया था तब उसके प्रत्यर्पण के लिए गंभीरता से प्रयास क्यों नहीं किए गए! २००४ में अमेरिका ने उसके प्रत्यर्पण की अपील ठुकरा दी गई तो सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। क्या अमेरिका का इतना खौफ है कि इस दिल दहला देने वाले हादसे के बाद भी सरकार उसे सजा दिलवाने भारत न ला सकी। सरकार वैसे भी लगभग दस गुना कम मुआवजा स्वीकार कर अपनी मंशा स्पष्ट कर चुकी है। क्या कारण थे कि भारत सरकार ने इस कंपनी को चुपचाप बिक जाने दिया। इस दौरान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति न जाने कितनी मर्तबा अमेरिका की यात्रा पर गए होंगे पर किसी ने भी अमेरिकी सरकार के सामने इस मामले को उठाने की हिमाकत नहीं की। अगर देश के नीति निर्धारक चाहते तो अमेरिका की सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते थे कि वह यूनियन कार्बाईड से यह बात पूछे कि यह हादसा हुआ कैसे!

कूटनीतिक रिश्तों के ६०साल

भारतीय राष्ट्रपति का एक दशक बाद चीन दौरा भारत व चीन के रिश्तों में विशेष महत्व रखता है। भारत की तुलना में चीन का राष्ट्रपति अपने देश की एक शक्तिशाली हस्ती है। इसलिए यह बात कम करके नहीं आंकी जा सकती कि चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने भारतीय राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल को चीन आमंत्रित कर भारत के साथ रिश्ते मजबूत करने की बात की।इस यात्रा के दौरान चीन के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जिस तरह भारतीय राष्ट्रपति को समय दिया, उससे पता चलता है कि भारत के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिए वह कितना गंभीर है।
चीन भारत के साथ अपने रिश्तों के महत्व को समझता है। भारत और चीन के बीच कूटनीतिक रिश्तों की स्थापना की ६०वीं सालगिरह मनाने के लिए प्रतिभा पाटिल को चीन सरकार द्वारा आमंत्रित किया जाना और पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ ग्रेट हाल ऑफ द पीपल में उनकी अगवानी करना इस बात का सूचक है कि भारत के साथ रिश्तों को चीन आगे बढ़ाना चाहता है। दो पड़ोसियों का एक दूसरे के यहां आना जाना हो तो मतभेदों के बावजूद रिश्ते आगे बढ़ते रहते हैं। इस नजरिए से प्रतिभा पाटिल का चीन दौरा दोनो देशों रिश्तों के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है। चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ २००६ में भारत दौरे पर आए थे। तब उनके दौरे में सीमा मसले पर दूरगामी महत्व का एक समझौता हुआ था। उसी समझौते के आधार पर आज भी दोनों देश सीमा विवाद पर बातचीत कर रहे हैं, हालांकि अब इसमें ठहराव सा आ गया है। भारत और चीन के बीच करीब दो सालों में तनाव बढ़ा है। इसकी वजह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सेना के अतिक्रमण और घुसपैठ की घटनाओं का बढ़ना है, साथ ही चीन ने अनावश्यक तौर पर जम्मू कश्मीर के नागरिकों को स्टेपल वीजा देने की प्रथा शुरू करके भारत को चिढ़ाने की बात की है। न चीन ने भारत की चिंताओं को दूर करने की बात की और न ही राष्ट्रपति ने इन मसलों को सीधे तौर पर उठाया। राष्ट्रपति ने इशारे में यही कहा कि एक दूसरे की भावनाओं की परस्पर समझ से ही आपसी रिश्तों में गहराई आ सकती है। इशारा साफ था कि चीन भारत की शिकायतों को दूर करे और सीमा विवाद का जल्द से जल्द हल खोजे, ताकि दोनों देशों के बीच जारी विवाद दूर हो और वे बेहतर साझेदारी के साथ आगे बढ़ें। मौजूदा दशक में दोनों देशों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बहुपक्षीय गठजोड़ स्थापित किए हैं। भारत, चीन और रूस का त्रिकोणीय गठजोड़ तो चल ही रहा है भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का गठजोड़ भी कायम हुआ है। इन दोनों गठजोड़ों की अब सालाना बैठकें होने लगी हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत और चीन किस तरह कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं।
पिछले साल कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति हू जिन्ताओ की साझेदारी रंग लाई और उन्होंने अमेरिका जैसी ताकतों की नहीं चलने दी, उससे साफ है कि दोनों देश यदि परस्पर तालमेल से चलें तो कोई भी ताकत इनके हितों को चोट नहीं पहुंचा सकती। भारत तो यही उम्मीद करता है कि बड़ी ताकतों की दादागिरी को चुनौती देने के लिए चीन और वह हमेशा साथ रहेंगे। वैसे जिस तरह ये दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ सीमाओं पर सैन्य तैनाती में लगे हैं, उससे साफ है कि इन दोनों के बीच परस्पर विश्वास की भारी कमी है। जब बात आपसी रिश्तों की आती है तो दोनों देशों के सुरक्षा अधिकारी एक दूसरे के खिलाफ बांहें चढ़ाने लगते हैं और जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समान हितों की बात आती है तो दोनों कंधे से कंधा मिला कर चलने लगते हैं।यह विरोधाभास दोनों को ही मिल कर खत्म करना होगा। हालांकि इसे दूर करने की ज्यादा जिम्मेदारी चीन की ही है। उसके लिए स्टेपल वीजा का मसला हल करना कोई बड़ी बात नहीं है। उसे यह भी समझना होगा कि जम्मू कश्मीर के पाक अधिकृत इलाके में सिंचाई व बिजली परियोजनाओं का ठेका लेने का मतलब भारत को परेशन करना है। इधर भारत भी चीन की दूरसंचार कंपनियों के साथ भेदभाव की नीति त्याग सकता है और चीनी कामगारों के लिए उदार वीजा नीति अपना सकता है। सीमा मसले का जो हल ६० के दशक में चीनी नेतृत्व ने अप्रत्यक्ष तौर पर सुझाया था, भारत आज उसे मानने को तैयार हो सकता है। ८० के दशक में भी तंग श्याओ फिंग ने एकमुश्त सीमा समझौते की पेशकश की थी। आज यदि वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा में बदल दिया जाए तो काफी हद तक इस मसले का हल निकल सकता है, लेकिन चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके पर दावा ठोंक कर इसे जटिल बना दिया है। चीन यदि चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत उसके साथ साझेदारी से चले तो उसे भारत की दिक्कतों को भी ध्यान में रखना होगा। राष्ट्रपति पाटिल के मौजूदा चीन दौरे की यही उपलब्धि कही जा सकती है कि भारत सौहार्दपूर्ण माहौल में चीन को अपनी भावनाओं से अवगत करा सका है।

महाउत्सव शुरू

विश्व कप फुटबाल यानी रोमांच की हदों को पार करने वाला एक ऐसा उत्सव जिसकी दीवानगी समूचे विश्व को अपने आगोश में भर लेती है। महीने भर तक दुनिया के हर खेल प्रेमी की निगाह उस मैदान में टिकी रहेगी जहां हर दिन दिलचस्प मुकाबले होंगे।
विश्व की सर्वश्रेष्ठ ३२ टीमें दक्षिण अफ्रीका में विश्व कप फुटबाल के १९वें संस्करण के लिए कमर कस कर मैदान में उतर चुकी हैं। दुनिया के इस अनूठे महा मेले से जैसे ही परदा उठा फुटबाल महाकुंभ का आगाज हो गया।
हर विश्व कप नए सितारों को जन्म देता है और उन्हें पुराने सितारों के साथ श्रेष्ठता की कसौटी पर तौलता है। मैच के कई यादगार लम्हे इतिहास बनते हैं सो अलग। यदि इस विश्व कप की बात की जाए तो पूरी दुनिया एक तरफ होगी और दूसरी तरफ होंगी लैटिन अमेरिका की दो टीमें ब्राजील और अर्जेंटीना। यदि लैटिन अमेरिकी दंतकथाओं को जरा सा भी मान लिया जाए तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि मनुष्य ने पहली बार अपने वंशजों की खोपड़ी से ही खेलना सीखा था। ग्वाटेमाला, मैक्सिको और पेरू की सीमा के बीच अमेजन के घने जंगलों में आज से हजारों वर्ष पहले दक्षिण अमेरिका की तीन सभ्यताएं पनपीं। पहली थी मायंस, दूसरी इंका और तीसरी एजटेक। इतिहास गवाह है कि मायंस के काल में फुटबाल का आविष्कार हुआ। तीनों सभ्यताओं के चिन्ह आज भी वर्तमान पेरू, कोलंबिया, ब्राजील, मैक्सिको, इक्वाडोर और कोस्टारिका में देखे जा सकते हैं।
आज भी हम ब्राजील या अर्जेंटीना का फुटबाल देखते हैं या फिर यूरोपियन देश का फुटबाल , तो फर्क तत्काल समझ में आ जाता है कि फुटबाल दिल से भी खेला जाता है और दिमाग से भी। जो सभ्यता दक्षिण अमेरिका में पनपी थी, उसी का नतीजा है कि ब्राजीलियन और अर्जेंटाइन नाचते गाते दर्शकों की उपस्थिति के बीच वैसा ही दिलों को छूने वाला फुटबाल खेलते हैं जो हम सिर्फ सपनों में ही सोच सकते हैं। गोल करना किसी भी फुटबालर का लक्ष्य होता है, किंतु विपक्षी टीम के किसी खिलाड़ी को छूए बगैर किस प्यार से ऐसा किया जाता है, यदि इसे सीखना हो तो आपको सीधे दक्षिण अमेरिका जाना होगा।
महान फुटबालर पेले ने ही ब्राजील की राष्ट्रीय टीम में आने से पहले सांतोस क्लब के लिए खेलते हुए बाइसिकल किक से गोल दागना सीख लिया था। जगालो जैसे दिग्गज के साथ खेलते हुए पेले ने दुनिया को पहली बार लैटिन अमेरिकी फुटबाल की झलक दिखलाई थी। ब्राजील या अर्जेंटीना विश्व कप चैंपियन बने, यह चर्चा का विषय नहीं है लेकिन यह भी अंतिम सच है कि कोई भी विश्व कप इन दो लैटिन अमेरिकी टीमों के बिना पूरा नहीं हो सकता। आज भी यह हालत है कि ब्राजील के तमाम खिलाड़ी यूरोप में खेलते हैं। इतिहास गवाह है कि इंग्लैंड (१९६६) और फ्रांस (१९९८) के बाद कोई भी यूरोपियन देश मेजबान होते हुए चैंपियन नहीं बन सका है।
१९९४ में अमेरिका में हुए विश्व कप फाइनल में भी ब्राजील चैंपियन बना था। जबकि १९९८ के फाइनल में वह पेरिस में फ्रांस से हार गया था लेकिन उसकी भरपाई ब्राजील ने २००२ में जर्मनी को हराकर पूरी कर ली थी। यदि ब्राजील रिकार्ड पांच बार विश्व कप जीता है तो अर्जेंटीना भी पीछे नहीं रहा है। १९८६ के मैक्सिको विश्व कप में चैंपियन बनने के बाद वह इटेलिया ९० के फाइनल में जर्मनी से अंतिम सेकंड में ० -१ से हार गया था, लेकिन यह वह विश्व कप था, जिसने उस जीनियस मेराडोना की बिगड़़ी हुई छवि देखी थी जो कि १९८६ के विश्व कप के बाद फुटबाल का भगवान बन चुका था।
अर्जेंटीना ने इसके बाद भी अमेरिका से लेकर कोरिया जापान तक (२००२ विश्व कप) अपनी दावेदारी में कोई कमी नहीं आने दी। तब गैब्रियला बातिस्तुता और क्लाडियो कनीजिया जैसे धुरंधर स्ट्राइकर्स की मदद से अर्जेंटीना ने यूरोपीय ताकतों को हिलाकर रख दिया था।
यूरोपियन देशों को देखें तो उसमें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह दक्षिण अफ्रीका में आयोजित १९वें विश्व कप को जीतने का हकदार है। इंग्लैंड के साथ १९६६ से ही दुर्भाग्य जुड़ा हुआ है। जर्मनी ने जरूर एक दो बार चमत्कार दिखाए हैं लेकिन इसके सिवा और कुछ बाकी नहीं रह जाता। ४० के दशक में इटली दो बार जीता था। फिर उसे यह सौभाग्य १९८२ के बाद २००६ में जर्मनी में आयोजित विश्व कप में प्राप्त हुआ। अब तक के १८ विश्व कप मुकाबलों में ९ बार लैटिन अमेरिकी देशों के पाले में ही खिताब गया है।
इस बार ब्राजील की टीम कोच डुंगा की पसंद की है, जिसमें युवाओं की भरमार है। पिछले विश्व कप के ब्राजीली सितारे रोनाल्डो, रोनाल्डिनो, राबर्टो कार्लोस तथा कैफू की चौकड़ी अफ्रीका में नजर नहीं आएगी। अलबत्ता सुपर स्टार काका और राबिन्हो पर सबकी निगाहें होंगी। ब्राजील या अर्जेंटीना को यदि कोई यूरोपियन देश चुनौती दे सकता है उसमें सबसे पहला नाम स्पेन व जर्मनी का ही होगा। वैसे तो इंग्लैंड, हालैंड, क्रोएशिया, डेनमार्क, इटली भी इस दौड़ में शामिल हैं। स्पेन व जर्मनी के पास्ा प्रतिभाओं का कभी अकाल नहीं रहा लेकिन दो समस्याओं ने इन दोनों टीमों का पीछा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिटनेस और दूसरी दुर्भाग्य। इंग्लैंड के साथ भी दुर्भाग्य ने चोली दामन का साथ निभाया। १९६६ में एक विवादास्पद गोल के बाद विश्व चैंपियन (इतिहास में सिर्फ एक बार) बनने वाले इंग्लैंड ने अभी तक विश्व कप फाइनल में स्थान नहीं बनाया है। यह उस देश की त्रासदी का परिचायक है, जिसकी प्रीमियर लीग दुनिया की सबसे महंगी और आकर्षक मानी जाती है फिर भी उसका स्टार खिलाड़ी डेविड बेखम स्पेन जाकर खेलना पसंद करता है। वर्तमान इंग्लिश टीम की धुरी वायने रूनी के आसपास घूमती है। उनके अलावा फारवर्ड एमिली हेस्की पीटर क्राउच को अहम किरदार अदा करना होगा। मिड फील्ड का दारोमदार जेकोले पर है।

...जोर का झटका

एशियाई खेलों में पहली बार क्रिकेट (टी-२०) को शामिल कर लिया गया है लेकिन इसमें टीम इंडिया के शामिल नहीं होने का भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को मलाल रहेगा। बीसीसीआई ने अंतिम तिथि गुजरने तक एशियन गेम्स में भारतीय टीम की एंट्री नहीं भेजी। हालांकि इसके लिए भारत को भी आमंत्रित किया गया था। बीसीसीआई के अधिकारियों का कहना है कि भारतीय टीम के पहले से तय शिडयूल हैं। ऐसे में उसका इसमें शामिल होना संभव नहीं है।
एशियन गेम्स नवंबर माह में चीन में होने हैं। पहली बार इसमें क्रिकेट को शामिल किया गया है । क्रिकेट में टी-२० के मुकाबले भी होने हैं। बोर्ड द्वारा टीम इंडिया की एंट्री नहीं भेजे जाने से क्रिकेट प्रेमियों में खासी निराशा है। वे आरोप लगा रहे हैं कि बोर्ड को देश के लिए लिए मैडल से ज्यादा पैसे की चिंता है। भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व चयनकर्ता किरण मोरे ने भी कहा कि टीम को भागीदारी करनी थी। यह देश के लिए सम्मान की बात होती है।
बीसीसीआई का कहना है कि वह १२ से २७ नवंबर तक होने वाले एशियाई खेलों के लिए अपनी पुरुष और महिला टीमों को चीन नहीं भेजेगा। पुरुष टीम को नवंबर में न्यूजीलैंड की मेजबानी करनी है। बीसीसीआई के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी रत्नाकर शेट्टी ने कहा हम अपनी पुरुष और महिला टीमों को चीन भेजने की स्थिति में नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यस्तताएं हमारे आड़े आ रही हैं। हमने इस संबंध में भारतीय ओलंपिक संघ को जानकारी दे दी है। हालांकि विश्व डोपिंग निरोधी इकाई (वाडा) के विवादास्पद ठिकाना बताओ नियम के कारण भी भारतीय क्रिकेट टीमों का एशियाई खेलों में हिस्सा लेना मुश्किल लग रहा था। भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों ने वाडा के नियम को लेकर करार पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था । बीसीसीआई ने अपने खिलाड़ियों का समर्थन करते हुए इस नियम को गोपनीयता भंग करने वाला करार दिया था।
एशिया महाद्वीप के चार टेस्ट खेलने वाले देशों ेंभारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश द्वारा अपनी-अपनी श्रेष्ठ टीमों को खेलने के लिए भेजने के वादे के बाद ही एशियाई ओलंपिक संघ ने इन खेलों में क्रिकेट को शामिल किया है। ऐसे में जब भारत ने अपनी टीम भेजने से मना कर दिया है तो बहुत कम उम्मीद है कि श्रीलंका और पाकिस्तान अपनी टीमें चीन भेंजे क्योंकि इस दौरान इन दोनों टीमों का कार्यक्रम काफी व्यस्त है। पाकिस्तान को २५ अक्टूबर से २५ नवंबर के बीच दक्षिण अफ्रीका के साथ टेस्ट तथा एकदिवसीय श्रृंखला खेलनी है । उसी दौरान श्रीलंकाई टीम वेस्टइंडीज की मेजबानी करेगी।
एशियन ओलंपिक काउंसिल (ओसीए) और भारतीय ओलंपिक संघ ने (आईओए) एशियन गेम्स में भारतीय क्रिकेट टीम नहीं भेजने के फैसले की आलोचना की है। आईओए के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने कहा कि बीसीसीआई पैसे के पीछे भागती है, एशियन गेम्स प्राइ.ज मनी नहीं है इसलिए टीम नहीं भेजने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि हमने २०१० कॉमनवेल्थ गेम्स में क्रिकेट को शामिल नहीं किया। ओसीए के सेक्रेटरी जनरल रनधीर सिंह ने कहा कि बीसीसीआई के फैसले से क्रिकेट को एशियन गेम्स में शामिल कराने के लिए की गई मेहनत पर पानी फिर गया। उन्होंने कहा कि एशियन गेम्स के शिड्यूल काफी पहले बता दिए गए थे इसके बावजूद यह फैसला किया जाना निराशाजनक है।

राजनीतिक खेल

बसपा से आपराधिक गतिविधियों वाले लोगों को पार्टी से बाहर दिखाने की मूहिम को उस समय करारा झटका लगा जब बसपा सुप्रीमो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने आगामी विधान सभा चुनावों में पार्टी के सभी विधायकों को पुनः चुनाव में प्रत्याशी बनाने की घोषणा कर दी। बसपा सुप्रीमो के इस निर्णय से न सिर्फ पार्टी के पदाधिकारियों को धक्का लगा है बल्कि प्रदेश में बसपा की छवि खराब हुई है।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने कुछ समय पहले पार्टी से आपराधियों को हटाने करने की बात कही थी और उस समय उन्होंने लगभग ५०० आपराधिक छवि के लोगों को निष्कासित कर दिया था लेकिन बसपा से निकाले जाने वालों में उन विधायकों व सांसदों का नाम नहीं था जो आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहे हैं। बसपा में आज भी ऐसे कई विधायक व सांसद हैं जो जेलों में बंद हैं फिर भी बसपा सुप्रीमो ने उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
बसपा की आपराधियों को पार्टी से निकालने की मुहिम पर इसलिए भी विश्र्वास नहीं किया जा सकता कि बसपा में आज भी ऐसे विधायकों सांसदों की संख्या अधिक है जो अपनी आपराधिक गतिविधियों के कारण ही अपनी पहचान बनाए हुए हैं। बसपा में आज भी डीपी यादव, सुशील सिंह, अंगद यादव, ददन मिश्रा, बादशाह सिंह, रंगनाथ मिश्रा, व वेदराम भाटी जैसे लोग विधायक के पर पद पर विराजमान हैं। वहीं बसपा के कई सांसद ऐसे हैं जिनका आपराधिक इतिहास है और वो संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। बसपा सांसद कपिल मूनि करवरिया, ब्रजेश पाठक, गोरखनाथ पांडेय, कादिर राना, राकेश पांडेय, धनंजय सिंह व हरिशंकर तिवारी के ऊपर आज भी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप लग रहे हैं। बसपा के कई ऐसे विधायक व पूर्वमंत्री हैं जो आज भी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाए जाने की वजह से जेलों में बंद हैं। पूर्व मंत्री जमूना प्रसाद निषाद, आनंद सेन यादव, विधायक शेखर तिवारी व सोनू सिंह आज भी जेलों में बंद हैं। जबकि विधायक जितेंद्र सिंह बब्लू प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाने के आरोपी है। लेकिन वह खूले आम सड़कों पर घूम रहे हैं। बसपा सुप्रीमो के पार्टी का आपरेशन क्लीन करने की छवि को उस समय भी संदेह की नजर से देखा जाने लगा था जब इन्होंने विधान परिषद चुनाव में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा था जिनमें से अधिकांश विजयी भी हुए थे। बसपा को इस चुनाव में ३६ से ३४ सीटें प्राप्त हुई थीं। इन सब सीटों पर जीतने वालों में आपराधिक छवि के लोगों की संख्या अधिक रही। यहां तक की विधान परिषद के सभापति गणेश शंकर पांडेय का भी अपराधिक इतिहास रहा है और वह पूर्वांचल के एक गिरोह के सक्रिय सदस्य रहे हैं। फिर भी वह आज माननीय उच्चसदन की सबसे ऊंची कुर्सी पर विराजमान हैं। इसी तरह कई अन्य कुख्यात अपराधी आज विधान परिषद की शोभा बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री की यह घोषणा की वह पार्टी से आपराधियों से मुक्त कर देगी हास्यापद सी लगती है।
बसपा से ५०० अपराधिक छवि के लोगों को निकाले जाने पर टिप्पणी करते हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि मायावती प्रथम उन अपराधी तत्वों के नाम बताएं जिनको उन्होंने पार्टी से निष्काषित कर दिया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश की जनता को यह जानने का पूरा हक है। यदि वह उन आपराधियों के नाम नहीं बताती तो उससे साफ है कि उनका आपरेशन क्लीन महज एक दिखावा है।
आपराधियों से पार्टी को मुक्त करने का बसपा सुप्रीमो का यह प्रयास शुरू से ही शंका की दृष्टि से देखा जा रहा था लेकिन यह शंका उस समय और बलवती हो गयी जब मुख्यमंत्री ने यह घोषणा कर दी कि वह सभी पार्टी विधायकों को आगामी चुनाव में टिकट देंगी ऐसा कहकर उन्होंने अपने सभी विधायकों को क्लीन चिट दे दी है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि आपराधिक छवि का मुद्दा उठाकर विपक्ष सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है। वह विपक्ष को उनके मकसद में कामयाब नहीं होने देगीं। उन्होंने कहा कि बसपा में आने से पूर्व भले ही विधायकों का आपराधिक इतिहास रहा हो लेकिन बसपा में आने के बाद उन्होंने अपनी आपराधिक गतिविधियां छोड़ दी हैं। उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा है। इसलिए वह विपक्षी नेताओं के जाल में फंसने वाली नहीं है। हालांकि मायावती की इस घोषणा को राजनीतिक नजरिए से भी देखा जा रहा है। राजनीतिज्ञों का मानना है कि मायावती ने एक राजनीति के तहत ही यह घोषणा की है कि जिससे विधान परिषद चुनाव में उनको कोई अपमान न झेलना पड़े। हालांकि उत्तर प्रदेश में विधान परिषद चुनाव संपन्न हो गए हैं फिर भी यह माना जा रहा है कि मायावती का यह कदम उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता को दर्शाता है। बहुत से राजनीतिज्ञों का मानना है कि आज भी बसपा में करीब ५० ऐसे विधायक हैं जिनका आपराधिक इतिहास रहा है, अगर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की गई तो वो सरकार के सामने संकट खड़ा कर सकते हैं। सरकार को इसी संकट से उबरने के लिए मुख्यमंत्री ने एक राजनीतिक बयान बाजी की है।
फिलहाल बसपा सुप्रीमो अपने ही विरोधाभाषी बयानों से घिर गयी हैं। पार्टी को आपराधियों से मुक्त करने की इनकी मुहिम पर भी विराम लग गया है। जिससे पार्टी और सरकार की छवि को गहरा धक्का लगा है।

Sunday, June 13, 2010

सूचना

कार्यालय : वह स्थान जहां आप घर के तनावों से मुक्ति पाकर विश्राम कर सकते हैं।

श्रेष्ठ पुस्तक : जिसकी सब प्रशंसा करते हैं परंतु पढ़ता कोई नहीं है।

कान्फ्रेन्स रूम : वह स्थान जहां हर व्यक्ति बोलता है, कोई नहीं सुनता है और अंत में सब असहमत होते हैं।

समझौता : किसी चीज को बांटने का वह तरीका जिसमें हर व्यक्ति यह समझता है कि उसे बड़ा हिस्सा मिला।

व्याख्यान : सूचना को स्थानांतरित करने का एक तरीका जिसमें व्याख्याता की डायरी के नोट्स, विद्यार्थियों की डायरी में बिना किसी के दिमाग से गुजरे पहुंच जाते हैं।

अधिकारी : वह जो आपके पहुंचने के पहले ऑफिस पहुंच जाता है और यदि कभी आप जल्दी पहुंच जाएं तो काफी देर से आता है।

कंजूस : वह व्यक्ति जो जिंदगी भर गरीबी में रहता है ताकि अमीरी में मर सके।

अवसरवादी : वह व्यक्ति, जो गलती से नदी में गिर पड़े तो नहाना शुरू कर दे।

अनुभव : भूतकाल में की गई गलतियों का दूसरा नाम ।

कूटनीतिज्ञ : वह व्यक्ति जो किसी स्त्री का जन्मदिन तो याद रखे पर उसकी उम्र कभी नहीं।

मनोवैज्ञानिक : वह व्यक्ति, जो किसी खूबसूरत लड़की के कमरे में दाखिल होने पर उस लड़की के सिवाय बाकी सबको गौर से द

Saturday, May 22, 2010

कोल महिलाओं का दर्द

जंगे आजादी के दौर में गुलामी की जंजीरे काटने और गोरों को हिंदुस्तानी सरहदों के पार खदेड़ने के लिये बुंदेलखंड मेंं चित्रकूट के पाठा के कोलों की दर्द भरी चीखें अब भी सुनाई देती हैं। चिलचिलाती धूप और लू में नंगे बदन श्रीमंतों और सामंतों की जमीन जोतने, हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले कोल परिवार यहां के दादुओं और दबंगों के कर्ज में इस कदर डूबे हैं कि इसके बोझ से उबरने के लिए अपनी बहू और बेटियों को जिस्मानी रिश्ते कायम करने की शर्मनाक इजाजत दे देते हैं। ददुआ-ठोकिया जैसे डकैतों से पुलिस ने भले इन्हें निजात दिला दिया हो लेकिन छुटभैये साहूकार, दबंग से लेकर सरकारी हुक्मरान तक के मकड़जाल में ऐसे जकड़े हैं कि इसे तोड़ पाना इनके बस की बात नहीं है। किसी तरह गुजर बसर करने वाले कोल जनजाति के लोग जठराग्नि को बुझाने के लिए घने बीहड़ों से लकड़ी बगैरह काटते या बंधुआ मजदूरी करते हैं। परिवार के भरण पोषण में महिलाएं अधिक हाड़ तोड़ मेहनत करती हैं। घने सुनसान जंगलों से शहद, गोंद, महुआ, चिरौंजी, आंवला, बूटियां बारसिंघा के सींग व जानवरों की खाले संजोकर बेचना इनका काम है। अधिकतर महिलाएं जंगलों से लकड़ियां, शहद, जड़ी बूटियां एकत्र कर रेल से बांदा-सतना-इलाहाबाद-झांसी आदि स्थानों तक पहुंचाती हैं। ये औने पौने लकड़ियां बेचकर अपने परिवार के लिए रोजी रोटी का जुगाड़ करती हैं। यह महिलाएं लकड़ियां एकत्र करती हैं। शहरों में लकड़ी बेचने वाली कोल औरतें अक्सर जीआरपी व आरपीएफ के वर्दीधारी जवानों या सफेदपोश लोगों की कामुकता का शिकार भी हो जाती हैं। वन विभाग का कहर भी इन पर टूटता है। अवैधानिक तरीकों से ये रेल में सफर करती हैं। इसलिए रेल कर्मचारी भी इनका शोषण करते हैं। कोल समुदाय की बालिकाओं को भी कई अनचाहे समझौते करने पड़ते हैं।दबंग दादू से लेकर सरकारी ओहदेदार इनके नाम से सरकारी अनुदान व ऋण हड़पने में कोई देरी नहीं करते। जब कुर्की वारंट आता है तो कोलों को दबंग दादुओं के पैर की जूती को माथे का चंदन बनाना पड़ता है। इतना ही नहीं सरकारी कर्जे से मुक्ति हेतु पहले तो जमीन जायदाद लिखवा ली जाती है फिर बहू बेटियों को भेजने की शर्त रखी जाती है। शुष्क पठारी एवं सूखाग्रस्त इलाका, जहां एशिया की सबसे बड़ी पेयजल योजना सफेद हाथी साबित हुई वहां ' भौरा तोरा पानी गजब कर जाए, गगरी न फूटे चाहे खसम कर जाये' गाने को विवश होती हैं। यहां कोलों की महिलाओं को रखैल के रूप में रखा जाना रिवाज रहा है। जब पुराने जख्म हरे हो जाते हैं तो लोग चीखते हैं, कराहते हैं।

आसान नहीं डगर

तमाम अफवाहों और झंझटों से जूझते हुए अंततः भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तर प्रदेश में सूर्य प्रताप शाही के हाथ में पार्टी की कमान सौंप दी। लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुकी पार्टी को पुर्नर्जीवित करने की अभिलाषा संजोए संगठन के नये सेनापति सूर्य प्रताप शाही की पहचान न तो राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रदेश के बड़े नेता के तौर पर की जाती है। आज भी उन्हें पूर्वांचल का ही नेता माना जाता है।फिलहाल नयी भूमिका में वे संगठन में कितनी जान फंूक पाते हैं यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि प्रदेश संगठन के अब तक जितने कद्दावर नेता हुए हैं उनका भी बड़ा जनाधार नहीं रहा। हालांकि वे पार्टी में बड़े कद के नेता जरूर माने जाते रहे हैं। चाहे पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हों या फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र अथवा सांसद लालजी टंडन सबका यही हाल है। विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह सबकी सीमायें जगजाहिर हैं। प्रांतीय संगठन में पिछड़ों के नेता होने का दम भरने वाले ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास न कर सके। प्रदेश भाजपा में टांग खींचू राजनीति का यह खेल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका है। ऐसे में नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही धुरंधरों एवं बंटे समर्थकों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं यह एक यक्ष प्रश्न है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रदेश भाजपा का ग्राफ २००२ से लगातार गिरता जा रहा है। इस दौरान पार्टी अपना खोया जनाधार पाने के लिए कई प्रयोग कर चुकी है। विनय कटियार से लेकर रमापति राम त्रिपाठी तक को कमान सौंपी जा चुकी है। अब तक आजमाये गये नुस्खों से पार्टी की सेहत ठीक होना तो दूर की बात उसमें सुधार के लक्षण भी नजर नहीं आ रहे हैं। इन नुस्खों का परिणाम यह जरूर देखने को मिला कि पार्टी प्रदेश में दूसरे नंबर से खिसक कर चौथे नंबर पर पहुंच गई है। अब ऐसी विषम परिस्थिति में सूर्य प्रताप शाही किस हद तक और कैसे सफल हो पाते हैं, यह ज्वलंत प्रश्न है। प्रदेश भाजपा के नये सेनापति की अब तक की राजनैतिक क्षमता, योग्यता एवं उनके अतीत को जानना कम दिलचस्प नहीं होगा। प्रदेश भाजपा में ऊपर से लेकर नीचे तक व्याप्त तमाम तरह की विकृतियों को यदि एक तरफ कर दिया जाए और नवनियुक्त अध्यक्ष से चमत्कार की उम्मीद की जाए तो यह बेमानी होगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ग्राम पकहाँ, थाना पथरदेवाँ (वर्तमान थाना बघऊच घाट) के मूल निवासी सूर्य प्रताप शाही ने १९८० से २००७ नौ चुनावी महासमर में ताल ठोंकी है। जिसमें से मात्र तीन बार ही जीते, ६ बार उन्हें करारी शिकस्त का स्वाद चखना पड़ा। आर.एस.एस. से संबंध रखने वाले सूर्य प्रताप शाही अपने जीवन में पहली बार कसया विधानसभा से १९८० में जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े। तब इन्हें कुल २००० मत ही प्राप्त हो सके। १९८५ के चुनाव में इसी विधानसभा सीट पर उन्होंने अपने निकटतम निर्दल राजनैतिक प्रतिद्वंदी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को २५० मतों से पराजित किया था। जबकि १९८९ के आम चुनाव में इसी सीट पर जनता दल के प्रत्याशी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग बारह हजार मतों से उन्हें हराया। दो वर्ष बाद हुए चुनाव में राम लहर के कारण शाही ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को पराजित करने में कामयाब हुए। जबकि १९९३ के चुनाव में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग पंद्रह हजार मतों से शाही को पराजित किया। आखिरी बार १९९६ में उन्हें मिली। २००२ एवं २००७ में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने उन्हें हराया। १९९१ में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे भाजपा के इस महारथी को प्रदेश सरकार में पहली बार गृह राज्यमंत्री तथा स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। १९९६ में वे आबकारी मंत्री भी बने। शाही के मंत्री पद का दोनों कार्यकाल विवादों से घिरा रहा। बतौर गृह राज्यमंत्री उनका कार्यकाल इत्िाहास के काले पन्नों में दर्ज है। उनके इस कार्यकाल में ही बहुचर्चित पथरदेवाँ बलात्कार कांड की गूंज लोकसभा से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गूंजी। अब ऐसे में यह स्वतः विचारणीय हो जाता है कि सूर्य प्रताप शाही मृत पड़ी प्रदेश भाजपा में जान फूंकने का कार्य कैसे करेंगे। भाजपा की पूर्वांचल की राजनीति भी उनके लिए निष्कंटक नहीं है। यहां उन्हें गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्य नाथ से जूझना होगा। योगी शुरू से ही उन्हें प्रदेश भाजपा की कमान सौंपे जाने के खिलाफ थे। ऐसे में वह सूर्य प्रताप शाही का किस हद तक और कितना साथ देंगे यह देखना दिलचस्प रहेगा। योगी आदित्य नाथ के प्रकोप से पूर्वांचल में भाजपा के वरिष्ठ नेता शिव प्रताप शुक्ल आज तक नहीं उतर सके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वे घटक उनका कितना साथ देंगे जो इस बार अपना प्रतिनिधि बतौर प्रदेश अध्यक्ष चाहते थे। वैसे सूर्य प्रताप शाही ने एक काम अच्छा किया। वे सड़क मार्ग से लोगों से मिलते जुलते हुए लखनऊ पहुंचे। उनकी निगाह ट्विटर जैसे आधुनिक संचार माध्यमों पर भी हैं। वैसे यहां उनकी मौजूदगी पर पार्टी का एक वर्ग नाराज भी है।

Thursday, May 20, 2010

अपमानित करनें का अभियान चल रहा

बसपा मंत्रियों के संरक्षण में प्रकाशित होने वाली अंबेडकर टुडे पत्रिका के मई अंक में हिन्दुओं खासकर सवर्णों को बुरी तरह से अपमानित करनें का अभियान चल रहा है। इसका प्रत्यक्ष नजारा देखना हो तो अम्बेडकर टुडे पत्रिका का मई २०१० का ताजा अंक देखिए जिसके संरक्षकों में मायावती मंत्रिमण्डल के चार चार वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों के नाम शामिल हैं। इस पत्रिका के मई २०१० अंक का दावा है कि हिन्दू धर्म मानव मूल्यों पर कलंक है, त्याज्य धर्म है, वेद जंगली विधान है, पिशाच सिद्धान्त है, हिन्दू धर्म ग्रन्थ धर्म शास्त्र धर्म शास्त्र धार्मिक आतंक है, हिन्दू धर्म व्यवस्था का जेलखाना है, रामायण धार्मिक चिन्तन की जहरीली पोथी है, और सृष्टिकर्ता (ब्रह्या) बेटी(कन्यागामी) हैं तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दलितों के दुश्मन हैं।उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित जौनपुर जिला मुख्यालय से मात्र तीनचार किलोमीटर की दूरी पर स्थित भगौतीपुर (शीतला माता मंदिर धाम चौकियाँ) से एक मासिक पत्रिका अम्बेडकर टुडे प्रकाशित होती है जिसके मुद्रक प्रकाशक एवं सम्पादक हैं कोई डाक्टर राजीव रत्न। डॉ० राजीव रत्न के सम्पादन में प्रकाशित होनें वाली मासिक पत्रिका का बहुत मजबूत दावा है कि उसे बहुजन समाज पार्टी के संगठन से लेकर बसपा सरकार तक का भरपूर संरक्षण प्राप्त है और यह पत्रिका बहुजन समाज पार्टी के वैचारिक पक्ष को इस देश प्रदेश के आम आदमी के सामनें लानें के लिए ही एक सोची समझी रणनीति के तहत प्रकाशित हो रही है। यही कारण है कि इस पत्रिका के सम्पादक डॉ० राजीव रत्न अपनी इस पत्रिका के विशेष संरक्षकों में मायावती मंत्रिमण्डल के पांच वरिष्ठ मंत्रियों क्रमशः स्वामी प्रसाद मौर्य (प्रदेश बसपा के अध्यक्ष भी हैं।), बाबू सिंह कुशवाहा, पारसनाथ मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दकी, एवं दद्दू प्रसाद का नाम बहुत ही गर्व के साथ घोषित करते हैं। पत्रिका का तो यहाँ तक दावा है कि पत्रिका का प्रकाशन व्यवसायिक न होकर पूर्ण रूप से बहुजन आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर जनजन तक पहुँचानें एवं बुद्ध के विचारों के प्रचारप्रसार के लिए किया जा रहा है। बसपाई मिशन में जीजान होनें से जुटी इस पत्रिका के मई २०१० के पृष्ठ संख्या ४४ से पृष्ठ संख्या ५५ (कुल १२ पेज) तक एक विस्तृत लेख धर्म के नाम पर शोषण का धंधा वेदों में अन्ध विश्वास शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। इस लेख के लेखक कौशाम्बी जनपद के कोई बड़े लाल मौर्य हैं। लेखक बड़ेलाल मार्य नें वेदों में मुख्यतः अथर्व वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद के अनेकोनेक श्लोकों का कुछ इस तरह से पास्टमार्टम किया है कि यदि आज भगवान वेद व्यास होते और विद्वान लेखक की विद्वता को देखते तो शायद वे भी चकरा जाते।लेखक का कथन है कि देवराज इन्द्र बैल का मांस खाते थे (पृष्ठ संख्या ५३)। पृष्ठ संख्या ५३ पर ही दिया गया है कि वैदिक काल में देवताओं और अतिथियों को तो गो मांस से ही तृप्त किया जाता था। पृष्ठ संख्या५४ पर विद्वान लेखक का कथन प्रकाशित है कि वेदों के अध्ययन से कहीं भी गंभीर चिन्तन, दर्शन और धर्म की व्याख्या प्रतीत नहीं होती। ऋग्वेद संहिता में कहीं से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि यह देववाणी है, बल्कि इसके अध्ययन से पता चलता है कि यह पूरी शैतानी पोथियाँ हैं। आगे कहा गया है कि वेदों में सुन्दरी और सुरा का भरपूर बखान है, जो भोग और उपभोग की सामग्री है। पत्रिका के इसी अंक के पृष्ठ संख्या ३१ पर मुरैना मध्यप्रदेश के किसी आश्विनी कुमार शाक्य द्वारा हिन्दुओं खाशकर सवर्णों की अस्मिता, मानबिन्दुओं, हिन्दू मंदिरों, हिन्दू धर्म, वेद, उपनिषद, हिन्दू धर्म ग्रन्थ, रामायण, ईश्वर, ३३ करोड़ देवता, सृष्टिकर्ता ब्रह्या, वैदिक युग, ब्राह्यण, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, को निम्न कोटि की भाषा शैली में गालियाँ देते हुए किस तरह लांक्षित एवं अपमानित किया गया है इसके लिए देखें पत्रिका में प्रकाशित बॉक्स की पठनीय सामग्री।उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार द्वारा पालित एवं वित्तीय रूप से पोषित अम्बेडकर टुडे पत्रिका के इस भड़काऊ लेख नें प्रदेश में सवर्ण बनाम अवर्ण के बीच भीषण टकराव का बीजारोपड़ तो निश्चित रूप से कर ही दिया है। पत्रिका के इस लेख पर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र अस्सी किलोमीटर दूर रायबरेली में १४ मई को अनेक हिन्दू संगठनों नें कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए पत्रिका की होली जलाई जिस पर जिला प्रशासन नें पूरे इलाके को पुलिस छावनी के रूप में तब्दील कर दिया था। रायबरेली में स्थिति पर काबू तो पा लिया गया है पर यदि इसकी लपटें रायबरेली की सीमा से दूर निकली तो इस पर आसानी से काबू पाना मुश्किल होगा।फिलहाल इस घटना की जानकारी के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कार्रवाई करते हुए न केवल अंबेडकर टुडे पत्रिका को जब्त करने का आदेश दिया है बल्कि इस पूरे मामले की जांच सीबीसीआईडी से कराने का फैसला किया है। साथ ही पत्रिका के संपादक ने भी पत्रिका में छपे लेख को लेकर माफी मांगी है। मायावती प्रशासन द्वारा खबर प्रकाशित होने के बाद देर रात मुख्यमंत्री सचिवालय में एक आपात बैठक बुलाई गयी जिसमें अंबेडकर टुडे के संपादक डॉ राजीव रत्न को भी तलब किया गया। उनसे लिखित रूप में यह आश्वासन लिया गया कि वे अपनी पत्रिका में जिन पांच मंत्रियों का नाम प्रकाशित कर रहे हैं उसके लिए उनके पास कोई सहमति नहीं है। उनसे लिखित आश्वासन लेने के बाद सरकार ने जौनपुर डीएम को आदेश जारी किया कि वे पत्रिका का रजिस्ट्रेशन निरस्त करने की कार्रवाई सुनिश्चित करें। साथ ही सरकार ने आदेश जारी किया है कि इस पत्रिका की समस्त प्रतियों को जब्त कर लिया जाए। इसके साथ ही तत्काल निर्णय लिया गया कि इस पूरे मामले की सीबीसीआईडी से जांच करवाई जाएगी।इसके बाद १९ मई को सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अंबेडकर टुडे पत्रिका के मई २०१० के अंक में धर्म विशेष के बारे में अशोभनीय, अमर्यादित एवं आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन के मामले को गंभीरता से लेते हुए सीबीसीआईडी से जांच के आदेश दिये हैं ताकि इस लेख के माध्यम से सामाजिक सौहार्द को ठेस पहुंचाने की साजिश का पर्दाफाश हो सके।

Saturday, April 24, 2010

आईपीएल यानि इंडियन पंगा लीग

आईपीएल थ्री इस बार ढेर सारे विवाद भी छोड़ गया। इसकी शुरूआत हुई मोदी व थरूर के विवाद के साथ। कोच्चि टीम की खरीदारी को लेकर ललित मोदी और शशि थरूर के बीच उठे विवाद ने आईपीएल की जडे़ं हिला दी। रही सही कसर शशि थरूर की दोस्त सुनंदा पुष्कर ने पूरी कर दी। इन्हें ७० करोड़ रुपये की फ्री इक्विटी दी गयी थी। इस मामले को ललित मोदी ने मीडिया में लीक कर दिया। थरूर पर आरोप है कि इस सौदे को पटाने के लिए उन्होंने अपने पद का इस्तेमाल किया। ललित मोदी, शशि थरूर व उनकी महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के बीच उभरे विवाद ने देश की राजनीति को ही नया मोड़ दे दिया। इस मुद्दे पर देश के राजनीतिक दल आपस में बंट गए। थरूर को जहां अपना पद छोड़ना पड़ा वहीं भाजपा नेता अरुण जेटली ने आईपीएल चेयरमैन ललित मोदी को कटघरे में खड़ा कर दिया। थरूर की विदाई के बाद जब मोदी पर शिंकजा कसना शुरू हुआ तो एक के बाद एक भयानक राज खुलते नजर आये। मसलन आईपीएल के सारे मैच फिक्स होते हैं। इसके मार्फत बड़े पैमाने पर काला धन सफेद किया जा रहा है। स्विस बैंकों, सिंगापुर, मलेशिया व दुबई का काला धन सफेद हो रहा है। मैच फिक्सिंग में कई बड़े खिलाड़ी शामिल हैं। मैच फिक्स कराने में एक विदेशी कप्तान व कई नामचीन भारतीय खिलाड़ी शामिल हैं। यह सन २००० के मैच फिक्सिंग विवाद से ज्यादा गहरा है। इसमें न सिर्फ सत्ता पक्ष बल्कि उसकी सहयोगी पार्टियों के कई नेता फंसते नजर आ रहे हैं । कांग्रेस सांसद व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर के अलावा अब प्रफुल्ल पटेल व शरद पवार भी फंसते नजर आ रहे हैं। पवार की बेटी सुप्रिया सुले व प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल का नाम सामने आने से राकांपा में जबर्दस्त हड़कंप मचा है। मैचो ंके प्रसारण अधिकार खरीदने को लेकर विवादों के घेरे में आयी कंपनी मल्टी स्क्रीन मीडिया में सुप्रिया सुले के पति सदानंद सुले की हिस्सेदारी है। आईपीएल में बतौर हास्पिटैलिटी मैनेजर पूर्णा पटेल की हिस्सेदारी को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।आईपीएल से जुड़ा विवाद इतना गहराया कि प्रधानमंत्री को दो बार अपने संकटमोचक व वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को चर्चा के लिए बुलाना पड़ा। विपक्ष समूचे मामले की संयुक्त संसदीय समिति गठित करके जांच कराने पर तुला हुआ है। राजद नेता लालू प्रसाद यादव, सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, माकपा नेता सीताराम येचुरी सभी इसके खिलाफ हैं। बसपा अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इस मामले की सीबीआई से जांच कराये जाने की मांग कर रहीं हैं। विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर के अलावा अब प्रफुल्ल पटेल व शरद पवार के भी इस्तीफे की वह मांग कर रहा है। उधर पवार का साफ कहना है कि आईपीएल विवाद से उनका कोई लेना देना नहीं है। वैसे कहा यह भी जाता है कि ललित मोदी उन्हीं की छत्र छाया में पल बढ़ रहे हैं। रहा सवाल मोदी का तो पहले तो उन्होने अपने तेवर दिखाये लेकिन जब बीसीसीआई ने सख्त लहजा अपनाया तो उन्होंने घुटने टेक दिए। अब मोदी खुद पर लगे आरोपों की जांच के लिए वक्त मांग रहे हैं। मोदी का जाना तय है। इसका असर आयोजन के अंतिम चरण में साफ दिखा। सभी फ्रेंचाइजी के खिलाफ अचानक आयकर जांच शुरू हो गयी। फ्रेंचाइजी के मालिकों ने खेमेबंदी शुरू कर दी। मोदी के पक्ष में शिल्पा शेटटी, फारूख अब्दुल्ला व विजय माल्या खड़े नजर आये। बीसीसीइाई व मोदी के बीच में जम करके बयानबाजी हुई। बीसीसीइाई ने आईपीएल अवार्ड का बहिष्कार किया। कई खिलाड़ी भी इस समारोह में नहीं गये। यह ठीक है कि आईपीएल ने अपना नया बाजार बनाया है। उसने क्रिकेट के लाखों नये दर्शक बनाए हैं। एक नये प्रारूप को स्थापित किया है। आईपीएल मैचों को ऊंची टीआरपी मिल रही है। प्रसारक टीवी चैनल को ऊंची दरों पर विज्ञापन मिल रहे हैं। विज्ञापन का पैसा इलेक्ट्रानिक और प्रिंट समाचार माध्यमों में भी बह रहा है। जिनके बड़े दांव हैं, उन सबको फायदा है। यह फायदा इसी तरह चलता रहता अगर ललित मोदी इसे मिल बांटकर खाने में यकीन करते लेकिन उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उनकी मांद में दूसरे लोग डेरा बना लें। मोदी नयी टीम अहमदाबाद की बनवाना चाहते थे लेकिन बाजी कोच्चि ने मार ली। बतौर केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने कोच्चि की तरफ पलड़ा झुकाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया तो मोदी ने कीचड़ का डिब्बा उलट दिया। तब शायद उन्हें यह अंदाजा नहीं रहा था कि उसके भीतर से इतनी गंदगी निकलेगी कि कई चेहरे बदरंग हो जायेंगे। आज हमाम में कई लोग नंगे नजर आ रहे हैं।इस गोरखधंधे के चलते रहने में बड़े-बड़े रसूखदार लोगों के हित सधते थे। खिलाड़ियों को भी इस धंधे की वजह से उतना पैसा मिल रहा है, जो पहले वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उनकी आदतें व प्रतिबद्धतायें बदलीं। कई देशों की टीमों के खिलाड़ियों के लिए आईपीएल की जो अहमियत है , वह अपने देश की टीम के साथ खेलने को लेकर नहीं है। कई रिटायर्ड खिलाड़ियों के लिए कमाई का नया जरिया बना आईपीएल। इनमें गांगुली, शेन वार्न, कुंबले, एडम गिलक्रिस्ट, एण्ड्रयूज सायमण्ड्स, मुथैया मुरंलीधरन, सनथ जयसूर्या आदि प्रमुख हैं। बीते दिनों आयकर विभाग भी आईपीएल को लेकर हरकत में दिखाई दिया। आईपीएल कार्यालय में आयकर विभाग के छापे के बाद से यह कहना मुश्किल है कि इससे देश को हो रहे मनोरंजन का ज्यादा हिस्सा खेल से आ रहा है या फिर रंगीन चटपटी चर्चाओं से। किसके पर कतरे जाने वाले हैं। कौन अपने दफ्तर में आखिरी दिन गिन रहा है, किसका कौन सा राज अब बस खुलने ही वाला है, इस तरह की बातें लगातार सुर्खियां बनी रहीं। कई फ्रेंचाइजी मालिकों के होश फाख्ता हो गये। मुंबई हाई कोर्ट ने भी अपनी राय पेश की। यदि हम बीते दिनों की बात करें तो क्रिकेट में कुछ ऐसा ही नजारा १९८० के दशक में शारजाह में देखने को मिला था , जहां अब्दुल रहमान बुखातिर ने दाऊद इब्राहिम समेत दूसरे अंडर वर्ल्ड डान, फिल्मी सितारों, सट्टेबाजों और मैच फिक्सिंग का ऐसा तालमेल रचा, कि क्रिकेट की पूरी दुनिया कलंकित हो गई। उस दौर में केसी सिंह संयुक्त अरब अमीरात में भारत के राजदूत थे। थरूर-मोदी विवाद के बाद उन्होंने एक टीवी चैनल पर कहा कि उस दौर में जो शारजाह में हो रहा था, वह अब उससे भी बड़े स्तर पर आईपीएल में देखने को मिल रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर रही होगी। ललित मोदी ने कोच्चि टीम में निवेश के स्वरूप को बेनकाब किया तो दूसरी टीमों के स्वामित्व पर भी सवाल उठ खडे़ हुए। अब यह सामने आया है कि कम से कम दो टीमों में मोदी के तीन रिश्तेदारों का हिस्सा है। मोदी पर आरोप लगा है कि टीमों के लिए निविदा के दौरान वे गोपनीय सूचनाएं लीक करते रहे हैं और कोच्चि की टीम मैदान से हट जाए इसके लिए उन्होंने सवा दो अरब रुपये घूस देने की पेशकश की थी।टीमों में निवेश के लिए धन कैसे जुटाया गया इस पर इससे भी गंभीर सवाल हैं। क्या मारीशस रूट से पैसा लाकर मनी लांड्रिंग के जरिये काले धन को गैर कानूनी रूप से सफेद करने के मकसद से उनका कई टीमों में निवेश हुआ? शशि थरूर से सुनंदा पुष्कर का नाम जुड़ा तो यह सवाल भी है कि दक्षिण अफ्रीका की माडल गैब्रिएला दिमित्रिएदस के साथ मोदी के क्या संबंध रहे हैं। आखिर मोदी क्यों चाहते थे कि ग्रैबिएला भारत न आएं। यानी आईपीएल हर तरह के भ्रष्ट आचरण, मर्यादा की अनदेखी और संभवत कानून के उल्लंघन का अखाड़ा बन हुआ है। सब कुछ ठीक ठाक नहीं है, इसके संकेत तो लगातार मिल रहे थे। मगर आईपीएल की सफलता का मीडिया में महिमामंडन इस कदर होता रहा कि सामने दिख रही गड़बड़ियों पर सवाल उठाना मुश्किल लगता था। आईपीएल मैच के दौरान शबाब और शराब में डूबे धनाढ्य दर्शक नाइट क्लब जैसा नजारा पेश करते हैं। आईपीएल मैचों में कैसिनो का अंदाज दिखा। तमाम मुद्दे जो इस बार उठे आईपीएल नाम से चल रहे बड़े तमाशे पर अपनी अप्रिय छाया छोड़ गये । कल तक जिसे क्रिकेट की नई लोकप्रियता और कारोबार में कामयाबी का प्रतीक माना जा रहा था वह आज संदेह के गहरे घेरे में है। आशंकाओं का दायरा इतना बड़ा है कि अब इसकी तुलना अमेरिकी बेसबाल के ब्लैक साक्स घोटाले से की जा रही है। एक दौर में उस टूर्नामेंट में काले धन, अंडर वर्ल्ड, सट्टेबाजों और मैच फिक्सिंग करने वाले खिलाड़ियों का ऐसा जमावड़ा हो गया था कि उसकी सफाई के लिए तत्कालीन अमरीकी प्रशासन को कड़े कदम उठाने पड़े थे। खेल के पीछे छिपा शबाब भी सतह पर आ गया ।पहले सीजन में कम वस्त्रधारी लड़कियों के कारण नैतिक आलोचना का शिकार बना आईपीएल तीसरे सीजन के आते आते बड़े खिलाड़ियों के चंगुल में चला गया। ललित मोदी ने जिस क्रिकेट को कारोबार बनाकर परोसा था, वही उनके गले की हड्डी बन गया। अति सब जगह वर्जित है। ललित मोदी शायद यह भूल गये कि चोरी से कोकीन रखने के आरोप में दो साल जेल काट लेना आसान है, लेकिन एक अरब लोगों के साथ धोखाधड़ी करके साफ बच निकलना मुश्किल है। वे अपने किये की सजा भुगतने की कगार पर हैं।आईपीएल के गठन की सबसे पहली और बड़ी भूल यह रही कि इसमें टीमों के गठन के लिए सात चार की व्यवस्था की गयी है। सात खिलाड़ी भारत के होंगे व चार विदेशों से लाए जाएंगे। यानी एक ही देश का एक खिलाड़ी अगर बैटिंग कर रहा है तो दूसरा उसका प्रतिद्वंदी है। किसी प्रदेश का एक खिलाड़ी यदि इस टीम से खेल रहा है तो दूसरा उस ओर से। भारतीय टीम के खिलाड़ी चूरन की तरह सभी टीमों में बंट गये। अब तक दर्शक जिस टीम भावना के वशीभूत होकर क्रिकेट देखते थे वह काट पीट कर फेंक दी गयी। मुनाफे के शोर में इस फारमेट की सभी खामियां दब गयीं लेकिन विवादों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया। आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की योजनाएं कहीं से कमजोर नहीं ठहर रही थीं। छह से आठ और भविष्य में दस टीमों का भरा पुरा क्रिकेट परिवार बन गया। ललित मोदी ने सगर्व घोषणा की थी इस साल आईपीएल में २२ हजार करोड़ रुपये का कारोबार हो चुका है। टीमों की कमाई के इतर बीसीसीआई को अकेले वर्तमान साल में ही कोई साढ़े चार से पांच हजार करोड़ कमाई की उम्मीद थी। यह कमाई सिर्फ खेलों से है। टीमों की खरीद-बिक्री से नहीं लेकिन इसी बीच अति मुनाफे की मानसिकता आड़े आ गयी। कोच्चि टीम में रुचि रखने के आरोपी थरूर आईपीएल के लपेटे में आ गये। अपने उच्च संपर्कों और अति महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के शिकार मोदी ने शशि थरूर से अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए खबर लीक करवाई। यह खबर न बनती अगर सुनंदा का नाम शशि थरूर से न जुड़ा होता।

Tuesday, April 20, 2010

ट्विटर-ट्विटर मतलब किचकिच-किचकिच

आजकल बालीवुड, राजनीति और क्रिकेट की दुनिया के लोग ट्विटर पर छाए हुए हैं। बिग बी, किंग खान, अमर सिंह से लेकर शशि थरूर और ललित मोदी तक। ऐ लोग अक्सर अपने टिवटर के माध्यम से किसी न किसी विवाद में देखे जा सकते हैं। हाल ही में एक नेता ने एक ट्विटर लिखा और पूरे देश की राजनीति ही ट्विटराने लगी। केंद्र सरकार से लेकर विपक्ष तक ट्विटरा रहा है। अगर, आप सोच रहे है कि ये ट्विटर क्या बला है, तो हम बता दें आपको कि ये नवीनतम टेक्नोलॉजी का नवीनतम शौक है। इंटरनेट पर पहले ब्लॉग बहुत पॉप्युलर हुआ था, अब ट्विटर कुछ ज्यादा ही पापुलर हो रहा है। वैसे, ट्विटर इंग्लिश का शब्द है, जिसका एक मतलब किचकिच पन भी कहा जा सकता है। भारतीय भाषा में यह किचकिच पन बिलकुल सटीक बैठ रहा है। फिलहाल आईपीएल को लेकर देश की सरकार सें लेकर सफेदपोश, नौकरशाह सहित दुनिया भर में किचकिच चल रहा है। देश में जो किचकिच यानि कि टविट टिवट चल रहा है, वो एक नेता का लिखे एक ट्विटर से चालू हआ है। ये कोई और नेता नहीं बल्कि शशि थरूर हैं जिन्हें ट्विटराने का बड़ा शौक है। वो पहले भी ट्विटरा चुके हैं। ट्विटराने का कारण, वो कई बार चर्चा में आ चुके हैं। अब इसी टिवटराने के चक्कर में उनकी विदेश राज्य मंत्री की कुर्सी भी चली गयी। अब टिवटर के साथ-साथ ही इनका महिला प्रेम भी जगजाहिर हो चुका है। शशि थरूर आजकल इतने चर्चित हैं जितने कि अपने सीधे व शांतप्रिय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी भी नहीं रहते। आखिर हमारे प्रधानमंत्री जी किचकिच जो नहीं करते। देखा जाए तो यह टिवट टिवट सिर्फ हजारों करोड़ों रुपए के मुनाफे के लिए ही हुई। जिसके चलते मोदी और थरूर की किचकिच हुई और नुकसान उन सफेदपोशों का जिनकी ब्लैकमनी लगी हुई है। उन्हें चिता सताए जा रही है कि अब इसमें सफेदी कैसे आएगी। कमाई यह स्रोत कहीं बंद न हो जाए। क्रिकेट एक खेल है और आईपीएल एक धंधा है। धंधा भी हजारों करोड़ का। जिधर इतना पैसा होता है, उधर सभी टांग अड़ाना चाहते हैं। अभी आगे कई सपैदपोशों के नाम खुलेंगे अगर मोदी सिर्फ बलि का बकरा बनके न रह गए। वैसे आपको याद दिला दें कि ये कोई पहली बार नहीं है, जब देश में ट्विटर ट्विटर, ट्विट ट्विट हुआ है। सनद रहे कि एक बार तोप खरीद को लेकर ट्विटर ट्विटर, ट्विट ट्विट हुआ था। करोड़ों का कमीशन का आरोप था। और याद है, एक बार विदेश से करोड़ों का शक्कर खरीदा गया था। पैसे पहुंच गया, पर शक्कर नहीं आयी और, वो इराक और तेल का कूपन का मामला, जिसमें बलि का बकरा बने नेता ने सबकी पोल खोल देने का धमकी दी थी। वो पोल आज तक नहीं खुली। हमारे देश में कोई पोल खुलती ही कहां है। ट्विटर ट्विटर, ट्विट ट्विट तो ख़ूब होता है, पर असली सच क्या है, ये कभी पता नहीं चलता। कुछ ऐसा ही हाल आईपीएल के मामले भी होगा। निश्चत मानिए किमोदी जैसे लोगों को बलि का बकरा बनाया जाएगा और सभी सफदपोश अपना मुंह पोंछते हुए सफेदी चमका के साफ निकल लेंगे।

Tuesday, April 13, 2010

...चुनौती

आतंकवाद के साथ-साथ नक्सलवाद ने भी देश को पूरी तरह से जकड़ लिया है। देश में नक्सलवाद इस कदर हावी हो गया है कि देश में गृहयुद्ध का खतरा बन गया है। नक्सलवादियों के बढ़ते आधार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय ग्रहमंत्री पी. चिदंबरम की चुनौतियों को नजरदाज करते हुए नक्सलवादियों ने दंतंवाड़ा में ७६ जवानों को मौत की नींद सुला दिया। इस घटना से नक्सलियों ने सीधे-सीधे देश की सुरक्षा को चुनौती दी है। देश में बढ़ता नक्सलवाद आंतरिक लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गया है।दंतेवाड़ा संहार के बाद इस्तीफे की पेशकश करके केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम भले ही सत्ता पक्ष और विपक्ष की सहानुभूति बटोरने में कामयाब हो गये हों, लेकिन इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि नक्सली गतिविधियों को रोकने में सरकार पूरी तरह विफल रही है। इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सलवाद का खतरा पिछले कुछ महीनों के भीतर काफी तेजी से बढ़ा है। इसके पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि जहां गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने लालगढ़ जाकर लोगों की समस्याओं को समझने की कोशिश की, वहीं माओवादियों ने दांतेवाड़ा में बर्बर हमला करके सीआरपीएफ के ७६ जवानों को मौत की नींद सुला दिया। केंद्र सरकार के आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ नक्सलियों द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा हमला है। इस हमले से एक बात तो साफ हो जाती है कि न सिर्फ राज्य सरकारें बल्कि केंद्र सरकार भी जिस हल्के तरीके से आतंकवाद की समस्या से निपटने की कोशिश कर रही हैं वह उसकी बहुत बड़ी भूल है। आंतरिक लोकतंत्र के लिए बढ़ता नक्सलवाद गंभीर खतरा है। यह बात केंद्रीय गृह मंत्री कई बार विभिन्न मंचों से उठा चुके हैं। उन्होंने इससे निपटने के लिए विस्तारित रणनीति भी बनाई है, जिसे आपरेशन ग्रीन हंट के नाम से जाना जाता है। केंद्र सरकार की इस रणनीति को नक्सल प्रभावित राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखंड, महाराष्ट्र तथा बिहार की सरकारों ने ही कभी गंभीरता के साथ नहीं लिया। इसका नतीजा यह निकला कि नक्सलवादियों के मंसूबे बढ़ते चले गये। वे कभी झारखंड में रेल की पटरी उड़ा देते हैं तो कभी पश्चिम बंगाल में नृशंस कार्रवाई में संलग्न नजर आते हैं। हाल ही में उन्होंने छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में बड़ा हमला किया।नक्सल प्रभावित सभी राज्यों में अत्याधुनिक हथियारों से नक्सली गुट लैस हैं। इनकी अच्छी खासी तादाद है। इसे छोटी मोटी लाल सेना भी माना जा सकता है। यह सेना बाकायदा चीन एवं पाकिस्तान द्वारा मुहैया कराये गये हथियारों से लैस हो चुकी है। चूंकि नक्सली गुटों को स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त है, इसलिए संबंधित राज्य सरकारें एवं जिला प्रशासन उनके खिलाफ कार्रवाई करने में विफल हैं। खास किस्म की जुझारू वामपंथी राजनीति का पैरोकार होने के चलते मानवतावादी संगठनों, साहित्यकारों, लेखकों व बुद्धिजीवियों का भी इन्हें समर्थन प्राप्त है। ये केंद्रीय सुरक्षा बलों को हमेशा बाहरी समझते हैं और उनके साथ शत्रुवत बर्ताव करते हैं। घने जंगल, नदी, नाले तथा प्रतिकूल भौगोलिक पृष्ठभूमि इनकी रणनीतिक ताकत माने जाते हैं। गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सली अक्सर बड़ी वारदातें कर जाते हैं। केंद्र व संबद्ध राज्य सरकारों के बीच तालमेल व संवाद की कमी का ये अक्सर फायदा उठाते नजर आते हैं।अब इस चुनौती से जूझने का शायद सही वक्त आ गया है। केंद्र व तमाम राज्य सरकारों को आपसी मतभेद भुला करके आपरेशन ग्रीन हंट को सफल बनाने की रणनीति बनानी होगी। नक्सलियों पर दोहरा वार करने की जरूरत है। इनके विदेशी सम्पर्कों एवं स्थानीय मददगारों की शिनाख्त होनी चाहिए व इसे कमजोर किया जाना चाहिए। दूसरे भ्रष्टाचार, गैर बराबरी, ऊंच-नीच, जातीय दमन, गरीबी व बेरोजगारी आदि जिन कारणों से नक्सलवाद जड़ें जमाता है उनको भी दूर किये जाने की जरूरत है। नक्सलवादी यदि बातचीत की पेशकश लगातार ठुकरा करके एक पर एक बड़े हमले कर रहे हैं तो यह जानना जरूरी है कि आखिरी वे ऐसा किसकी शह पर कर रहे हैं। माओवादी हिंसा का रास्ता नहीं त्याग रहे हैं। इसका मतलब है कि सरकार मानती है कि नक्सलियों पर लगाम कसना उसके लिए कठिन चुनौती है। हालांकि गृहमंत्री पी. चिदंबरम सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि अगर नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़ दें तो माओवादियों से सरकार बातचीत कर सकती है। गृहमंत्री की अपील का जवाब माओवादियों ने सुरक्षाबलों के ७६ जवानों को दांतेवाड़ा में शहीद करके दिया। नक्सली समस्या पर चिंतित सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है कि यह समस्या विशुद्ध रूप से सामाजिक सरोकार से जुड़ी हुई है। इसका समाधान सामाजिक असामानता दूर करके ही किया जा सकता है। बहरहाल बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल तक की पूरी पट्टी नक्सलवाद के जाल में बुरी तरह फंसी हुई है, जहां निरंतर निर्मम हत्याएं व सरकारी संपत्तियों की लूटपाट चल रही है। माओवादी निर्भीकता और स्वतंत्रता के साथ अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं और देश के अधिकांश राज्य इसकी चपेट में आ चुके हैं। वे सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को अगवा करते हैं। बदले में अपनी मांगे मनवाते हैं अन्यथा समय सीमा समाप्त होने पर अपहृत व्यक्ति की हत्या करके फेंक देते हैं। वे सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं। जवानों को मारते हैं। उनके हथियार छीन लेते हैं। वे ग्रामीणों की सामूहिक व निर्मम हत्या करते है। उनके घरों में आग लगा देते हैं। हत्याओं के लिए जघन्य तरीके अपनाते है। पुलिस जवानों की निर्मम हत्याओं के बावजूद सरकार अब तक कुछ खास कार्रवाई नहीं कर पाई। नक्सलवादियों के ऐसे कृत्यों से सुरक्षाबलों का मनोबल गिर रहा है और समाज में अशांति उत्पन्न हो रही है। चिदंबरम के आपरेशन ग्रीन हंट के सामने नक्सलियों का रेड हंट भारी है। चिदंबरम की समूची रणनीति को नक्सलियों ने विफल कर दिया है। नक्सलियों ने उनके ग्रीन हंट को ठेंगा दिखाते हुए ताबड़तोड़ कई बड़ी वारदातें कीं। नक्सलवाद समग्र आर्थिक और सामाजिक समस्या है, जिसकी शुरुआत चालीस साल पहले भारत में हुई थी। पिछले पांच सालों में नक्सलियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को पचास प्रतिशत तक बढ़ा लिया है। इतनी तेजी से नक्सलियों का प्रभाव कैसे बढ़ा यह शोध का विषय हो सकता है। देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ी है। गरीब बढ़ रहे हैं। अमीर भी बढ़ रहे हैं। अब भुखमरी की स्थिति में लोग क्या करें। या तो भीख मांगेंगे या नक्सलियों की शरण में जाएंगे। नक्सली हर गुरिल्ला को तीन हजार रुपये मासिक वेतन दे रहे हैं। साथ ही वसूली का हिस्सा भी। दूसरी तरफ सरकार अगर अपने पुलिस बल में या अन्य नौकरियों में किसी को रखती है तो घूस के तौर पर दो लाख से पांच लाख रुपये तक मांगा जाता है। झारखंड, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों में भर्ती में जो भ्रष्टाचार है, वह किसी से छिपा नहीं है। नक्सलियों की जमीन को विस्तार देने में तो सरकार की खुद की आर्थिक नीतियां दोषी रही हैं। आदिवासी संसाधनों की लूट अगर नहीं रुकी तो नक्सलवादी जमीन कमजोर नहीं होगी बल्कि उसका विस्तार ही होगा। हर राज्य सरकार खाद्यान्नों की लूट में लगी है। इनके माफिया और कारपोरेट मिल जुलकर खादान्नों को लूट रहें है। नक्सलियों से बातचीत करने का अब तक कोई फायदा नहीं निकला। वे बातचीत को भी अपने फायदे में इस्तेमाल करने की सोचते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का नक्सलियों के प्रति साफ्ट कार्नर है। जब केंद्र नक्सलियों पर लगाम कसना चाहता है और पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार का सहयोग करना चाहता है तो ममता बनर्जी नाराज हो जाती हैं। बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार व झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का स्टैण्ड भी इस मुद्दे पर साफ नहीं है। न ही आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व उड़ीसा के मुख्यमंत्रियों का। बुजुर्ग साहित्यकार महाश्र्वेता देवी ने नक्सली समस्या के हल के लिए मध्यस्थता की रजामंदी तो जताई लेकिन किशन पटनायक सरीखे नेताओं ने बातचीत का रास्ता नकारते हुए २०५० तक भारतीय गणतंत्र को ही मटियामेट करने की चेतावनी दे डाली। वे अपनी हिंसक रणनीति को भी जारी रखे हुए हैं। छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में माओवादियों की खूनी कार्रवाई से एक बार फिर सरकार के नक्सल विरोधी अभियान पर सवालिया निशान लग गया है। केंद्र सरकार ने जब से यह अभियान शुरू किया है माओवादियों के हमले और बढ़ गए हैं। एक तरफ खूनी खेल चल रहा है तो दूसरी तरफ सियासी खेल। सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकारें मन से नक्सल विरोधी अभियान में केंद्र सरकार के साथ हैं। केंद्र के रवैये को लेकर उनके भीतर गहरा संशय बना हुआ है। जब केंद्र उनसे कानून व्यवस्था दुरुस्त करने की बात कहता है तो वे उसे आक्षेप की तरह लेती हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके केंद्र आम आदमी के भीतर उनकी गलत छवि बनाकर उसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहता है। मसलन पश्चिम बंगाल को ही लें। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम जब राज्य के कानून व व्यवस्था का मुद्दा उठाते हैं या इस मामले में कोई सलाह देते हैं तो बुद्धदेव भट्टाचार्य को लगता है कि चिदंबरम अपने सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस की भाषा बोल रहे हैं। कई राज्यों की सरकारों ने अपने तरीके से माओवादियों से निपटने की कोशिश तो की लेकिन उन सरकारों ने चुनाव में माओवादियों से लाभ भी लिए। ऐसी सरकारें अभी भी उनसे सीधे टकराव से बचना चाहती हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री ने हाल में कुछ ऐसा ही संकेत दिया था। राज्यों और केंद्र के बीच द्वंद्व का फायदा नक्सलियों ने शुरू से ही उठाया और लगातार अपना विस्तार किया। वे सरकार की दुविधा को समझते हैं। इसलिए बीच-बीच में बातचीत की पेशकश पर सकारात्मक रुख अपनाने का स्वांग रचते हैं। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा के बाद छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस तरह का रक्तपात मचाया, वह बेहद निंदनीय है। दांतेवाड़ा के जंगलों में सीआरपीएफ व राज्य पुलिस के गश्ती दलों पर घात लगाकर नक्सलियों ने हमले किए, जिसमें ७५ जवान शहीद हुए। गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने इसकी कड़ी निंदा करने की औपचारिकता निभा ली है और सुरक्षा बलों की रणनीतिक चूक को इसका कारण बताया है। केंद्रीय गृहमंत्री को रणनीतिक चूक जैसे बयान देने के बजाय वास्तविकता से जनता को अवगत कराना चाहिए। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के दौरे के मौके पर उन्होंने मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को नक्सलवाद से निबटने की नसीहत दी। इस नसीहत से उपजा बवाल अभी शांत नहीं हुआ था कि अब यह रणनीतिक चूक का मसला सामने है। नक्सलवाद को सरकार आतंकवाद की तरह गंभीर मुद्दा मानती है और ऐसा है भी। जाहिर है इसके खिलाफ रणनीति भी उतनी ही गंभीरता से बनाई जाती होगी, जितनी बाहरी दुश्मनों से लड़ने के लिए। तब रणनीतिक चूक की बात बहुत हल्के किस्म की लगती है। देश के कई रक्षा विशेषज्ञ, पुलिस, खुफिया विभाग के श्रेष्ठ अफसर नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बनाते हैं, अगर इसमें कमी रहती है तो यह बेहद गंभीर बात है। राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर पर जरूरत से ज्यादा बयानबाजी भी इस समस्या को उलझा रही है।

फिर धड़कने की तैयारी

6ब्बीस साल से बंद लखनऊ के हुसैनाबाद घंटाघर की घड़ी फिर से टिक-टिक करने वाली है। कोशिश चल रही है कि देश के सबसे ऊंचे घंटाघर को फिर से नया लुक दिया जाए। संयुक्त प्रांत ( तब उत्तर प्रदेश का यही नाम था) के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जार्ज कोपर के सम्मान में हुसैनाबाद ट्रस्ट ने १८८२ से १८८७ के बीच इसका निर्माण कराया। ब्रिटिश आर्किटेक्ट रिचर्ड रासकेल बेयन ने रिष स्टाइल में इसे डिजाइन किया था। इसमें जो घड़ी लगी है वह तकनीकी दृष्टि से विश्र्व की तीन नायाब घड़ियों में से एक मानी जाती है। यह घड़ी कितनी कीमती है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि घंटाघर के पूरे भवन के निर्माण पर जब नब्बे हजार रुपये खर्च हुए थे तब इसमें लगायी गयी घड़ी की कीमत २६ हजार ९ सौ ३३ रुपये थी। गन मेटल से निर्मित इस घड़ी में पांच बड़े घंटे लगे हैं, जिनकी आवाज तीन किलोमीटर दूर तक सुनायी पड़ती थी।हुसैनाबाद घंटाघर की घड़ी १९८४ तक लगातार चलती रही। १९८४ में यह खराब हो गयी। ब्रिटेन की फर्म जे.डब्ल्यू बेंसन द्वारा निर्मित इस घड़ी को स्केपमेंट और पेंडुलम के जरिये इस तरह से संबद्ध किया गया था कि यह पच्चानवे साल तक लगातार चलती रही। इस घड़ी के खराब होने के बाद इसे ठीक करने के प्रयास हुए। कोई ऐसा कारीगर नहीं मिला जो इसे ठीक कर पाता। १९९९ से २००३ तक कारीगर तलाशने के बाद बरेली की फर्म शब्बन एंड संस ने इसे ठीक कर देने का ठेका लिया। फर्म ने इस एवज में नौ लाख रुपये मांगे। बरेली की इस फर्म को ढाई लाख रुपये एडवांस भी दिए गये लेकिन वह इस घड़ी को ठीक नहीं कर पायी। इसी बीच घड़ी का दिल माना जाने वाला पुर्जा स्केपमेंट कहीं खो गया। इसके बाद हुसैनाबाद ट्रस्ट ने कोलकाता की एंग्लो रिक्श वाच कंपनी सहित कई विशेषज्ञ फर्मों और विशेषज्ञों से घड़ी को दोबारा चालू करने पर विचार विमर्श किया। कोई भी इस बात पर एकमत नहीं हो पाया कि यह घड़ी फिर से चल पाएगी या नहीं। लखनऊ की शान माने जाने वाले हुसैनाबाद के ऐतिहासिक घंटाघर की घड़ी को ठीक करने में जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए तब आईआईटी कानपुर के बीटेक मैकेनिकल अखिलेश अग्रवाल और मर्चेंट नेवी में सेवारत कैप्टन परितोष चौहान ने इसे ठीक करने का बीड़ा उठाया। इन्होंने घड़ी के मूल दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद गन मेटल से ही घड़ी के खो चुके स्केपमेंट को फिर से तैयार कर लिया। स्केपमेंट तैयार हो जाने के बाद अब यह दिक्कत सामने है कि कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि वह स्केपमेंट घड़ी में लगाकर उसे चलाने का रिस्क लिया जाए या नहीं। हुसैनाबाद ट्रस्ट अब इस स्केपमेंट का वीडियो तैयार करवाकर ब्रिटिश आर्कियोलाजिकल सोसायटी को भेज रहा है ताकि वहां से विशेषज्ञों की राय ली जा सके। लखनऊ के अपर जिलाधिकारी और हुसैनाबाद ट्रस्ट के सचिव ओम प्रकाश पाठक ने बताया कि लखनऊ में तैयार किए गए स्केपमेंट के वीडियो को अगर ब्रिटेन के विशेषज्ञों से हरी झंडी मिल जाती है तो इसकी मरम्मत का काम शुरू कर दिया जाएगा। घड़ी की मरम्मत के काम में पंद्रह लाख रुपये खर्च होने का अनुमान है। हुसैनाबाद ट्रस्ट ने घड़ी ठीक हो जाने की संभावना के बाद घंटाघर में आयी दरारें और जीर्ण शीर्ण हो चुकी उसकी सीढ़ियों की मरम्मत का फैसला भी कर लिया है। पीडब्ल्यूडी के रिटायर्ड प्रमुख अभियंता वी.के. श्रोतिया घंटाघर की मरम्मत में तकनीकी सलाह देंगे। घंटाघर की सीढ़ियों और इसकी दरारों को ठीक करने में तीन लाख रुपये का खर्च आएगा। घंटाघर को फिर से उसके पुराने स्वरूप में लौटाने पर खर्च होने वाले १८ लाख रुपये का व्यय हुसैनाबाद ट्रस्ट वहन करेगा। बीस फुट चौड़ाई और बीस फुट लंबाई के वर्ग पर निर्मित किए गए हुसैनाबाद घंटाघर की ऊंचाई २१२ फुट है। घंटाघर के शीर्ष पर पीपल का बगुला लगाया गया है, जो हवा की दिशा बताता है। ऐतिहासिक आसिफी इमामबाड़े और छोटे इमामबाड़े के बीच स्थित घंटाघर पर्यटकों के खास आकर्षण का केंद्र है।

आसान नहीं डगर

योग गुरु बाबा रामदेव ने भी राजनीति में प्रवेश की घोषणा कर दी है। उन्होंने अपनी पार्टी का नामकरण भी कर लिया है। उनकी पार्टी होगी भारत स्वाभिमान पार्टी। ऐसे में सहज सवाल उठता है कि क्या वे राजनीति में सफल हो पाएंगे या फिर अन्य बाबाओं की तरह उनका भी हाल होगा। बाबा रामदेव एक सफल योग गुरु हैं। वे हरियाणा में १९५३ में पैदा हुए। लकवा से पीड़ित होकर वे योग की ओर आगे बढ़े। योग द्वारा उनके लकवे का इलाज हो रहा था। वे उससे मुक्त भी हो गए। इसी दौरान वे इस विद्या में पारंगत हो गए फिर उन्होंने लोगों को मुफ्त योग सिखाना शुरू कर दिया। योग का प्रचार करते-करते और लोगों को बीमारियों से मुक्ति दिलाने की पहल के साथ ही उन्होंने भारी प्रसिद्धि हासिल कर ली। इस प्रसिद्धि का कारण उनके द्वारा अपने योग प्रचार में टीवी चैनलों का इस्तेमाल था। आयुर्वेद की दवाओं और घरेलू नुस्खों का योग के साथ साथ प्रचार करके बाबा रामदेव करोड़ों लोगों के बीच में परिचित चेहरा बन गए। यदि उन्हें लगता है कि वे पूरे देश में इतने ज्यादा प्रचारित हो गए हैं कि अगर अपनी राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो भारी सफलता हासिल होगी। वे राजनीति में सार्थक हस्तक्षेप चाहते थे इसलिए अपने योग शिविरों में उन्होंने राजनीतिज्ञों को आने का मौका दिया। नेताओं के पास लंबे चौड़े निमंत्रण पत्र भेजकर उन्हें बुलाया जाता। सहारा समूह से नजदीकी के बाद वे लालू व मुलायम के प्रभाव में आये। लालू ने तो समय-समय पर बाबा रामदेव का जमकर नगाड़ा बजाया फिर भी बाबा की बेचैनी बनी रही। इसलिए पिछले आम चुनाव से ठीक पहले उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की शुरुआत कर दी। योजना तो सीधे चुनाव मैदान में उतरने की थी लेकिन कम समय के कारण तैयारी नहीं हो पायी। जोधपुर में आयोजित सभा में उन्होंने स्वीकार भी किया था कि तैयारी अधूरी थी। उनका एक ही संदेश है कि सदस्य बनाइये और प्रशिक्षण दीजिए। लक्ष्य है कि दो करोड़ सक्रिय सदस्य बन जाएं। इसके लिए वे देश में ११ लाख योग कक्षाओं के नियमित आयोजन का आवाहन कर रहे हैं।इन कार्यक्रमों में उनकी हां में हां मिलाने के लिए उपकृत भक्तों का हुजूम भी दिख रहा है। बाबा उत्साहित हैं। उनका उत्साह छिपाये नहीं छिप रहा। वे कहते हैं कि कोई समय सीमा तो नहीं है लेकिन उनका राजनीतिक आधार अगले दो साल में तैयार हो जाएगा। यानी, २०१४ के चुनाव में बाबा रामदेव भी अपने प्रत्याशी मैदान में उतारेंगे। फिलहाल उनकी इस घोषणा से तो यही लगता है कि वह वही गलती कर रहे हैं जो करपात्री जी महराज ने सालों पहले की थी। जिन राजनीतिज्ञों को हटाने के लिए बाबा रामदेव घूम-घूम कर प्रवचन दे रहे हैं, उन्हीं राजनीतिज्ञों की बदौलत वे अब तक अपने योग शिविरों को चमकाते रहे हैं। राजनीतिज्ञों को यह अहसास होते देर नहीं लगेगा कि बाबा अब उनके क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे में वे उनके साथ क्या व्यवहार करेंगे यह तो आने वाला समय बताएगा। प्राणायाम के चमत्कार में बाबा रामदेव के प्रभाव में आये सामान्य जन उनका राजनैतिक संदेश भी मानेंगे इसकी क्या गारंटी है। बाबा रामदेव के आज करोड़ों प्रशंसक हैं। उनके अनुयायियों की संख्या भी लाखों में हैं। उनका अपना योग और आयुर्वेद का साम्राज्य है जो अरबों रूपये का है। उनका यह साम्राज्य दिनों दिन फैलता जा रहा है। ६००० लोगों को तो उन्होंने अपने उद्योग में सीधे-सीधे नौकरी दे रखी है। उनके व्यापारिक साम्राज्य से रोजगार के अन्य अवसर भी पैदा हुए हैं। वे करपात्री महाराज से अच्छी स्थिति में हैं, जिन्होंने राम राज्य परिषद बनाकर राजनीति में प्रवेश किया था। वे धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से भी बेहतर स्थिति में हैं, जिनकी राजनीति श्रीमती इंदिरा गांधी पर निर्भर थी। उनकी अपील किसी विशेष संप्रदाय अथवा जाति तक सीमित नहीं है। वे कोई सांप्रदायिक अथवा जातिवादी मसला उठा भी नहीं रहे। उन्होंने देवबंद के जमात-ए-उलेमा का निमंत्रण स्वीकार कर उनके मंच से हजारो मुस्लिम धार्मिक नेताओं को संबोधित किया और योग पर प्रवचन देकर उनकी वाहवाही हासिल की इसके बावजूद उनकी राजनैतिक यात्रा आसान नहीं है। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द जो आभा खड़ी की है, उसके पीछे अनेक मुख्यमंत्रियों और केन्द्र के मंत्रियो से उनकी नजदीकी प्रमुख है। लालू प्रसाद यादव से लेकर नरेंद्र मोदी तक सभी उनके मुरीद हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा से भी उनके अच्छे संबंध हैं।