Saturday, February 27, 2010

...बुरा न मानो होली है

आमिर खान-
एक काबिल ईडियट मैं,
कामयाबी बोलती है
पैंट के अंदर की चड्ढी,
राज दिल का खोलती है
रुल करो एक भूल करो
फिर तोहफा मेरा कुबूल करो!

राज ठाकरे-
विकट मराठी का सेवक हूं
तन स,े धन से, गन से।
यूपी और पटना वालों को
पीटूं पूरे मन से!
अमर सिंह-
लोहियाजी का पीकर प्याला,
घूमे अमर सिंह मतवाला
आ.जम आये मुलायम भैया
पीटो गाल, बजाओ ताली
लेकिन हो जायेगी प्यारे...
सपा से फिल्म इंडस्ट्री खाली लेकिन
गुर्दे का टेंशन झेलूं
जयाप्रदा संग होलो खेलूं!
शरद पवार-
'महंगाई का ढोता भार,
इकलौता मैं शरद पवार
आलू,दाल, प्याज का ठीकरा
मेरे सिर पर फूटा
कुछ दिन और बचे हैं जी लो,
भंग में नमक मिला कर पी लो!
ललित मोदी-
एक एक रन के बदले
लख लख रुपया पाओ
टेस्ट क्रिकेट से झाड़ के पल्ला
आईपीएल में आओ
बिको तुम जैसे बिकता है रंग,
काट दो होली में हुड़दंग!

गुर्दे वाले नेता जी का साक्षात्कार

होली है.............होली है..........होली है..........................................................................................................
हाल ही में इन नेता जी को कभी अपनी उनकी रही पार्टी ने निष्कासित कर दिया है। फिलहाल काई ठौर ठिकाना नहीं मिला। अब वे जल्द ही अपनी एक नई पार्टी बनाने की सोंच रहे हैं। होली के मौके पर उनसे एक पत्रकार महोदय ने उनकी पर्सनल लाईफ और उनके इंटरेस्ट पर बातचीत की। बुरा न मानो होली है....
स्त्री और इस्त्री में क्या फर्क है ?
एक को छूने से करंट लगता है और दूसरी को देखने से ही।
शादी लड्डू ही क्यों है , पेड़ा क्यों नहीं है ?
अरे मैडम , दोनों के साइज पर भी ध्यान दीजिए। पेड़ा चपटा होता है , जबकि लड्डू गोल। शादी के बाद आदमी को गोल गोल ही तो घूमना पड़ता है।
राम सीता है , तो राम कौन है ?
मैडम , आप ये भी नहीं जानतीं कि राम टेलर होगा।
पत्नी और वैम्पायर में क्या अंतर है ?
चुडै़ल एक ही बार में खून चूस लेती है , लेकिन पत्नी धीरे धीरे।
अगर किसी सुपर स्टार हीरो से मिलने का मौका मिले , तो ...
सारी , लड़कों में मेरा कोई इंटरेस्ट नहीं है।
अगर कालू जादव प्रधानमंत्री बन जाएं , तो क्या होगा ?
हर फाइव स्टार होटल में सत्तू और दही चूड़ा मिलेगा। वह भी स्पेशल डिस्काउंट के साथ।
लव और अरेंज्ड मैरिज में क्या अंतर है ?
कोई नहीं। दोनों ही बाद में डी अरेंज्ड हो जाती हैं।
बस में आपके साथ लड़कियां ही हों , तो आप क्या करेंगे ?
मैं अकेला क्या कर पाऊंगा। लड़कियां जो चाहे , कर लें। मैं तो ड्राइवर को पैसे देकर गाड़ी आगे बढ़वाता रहूंगा।
कोई हाट हीरोइन आपके पड़ोस में रहने आ जाए तो ...
सबसे पहले , अपनी बीवी को मायके भेज दूंगा।
शादी के पहले और शादी के बाद में अंतर क्या है ?
शादी से पहले जानेमन और बाद में जान मत खाओ।

...तुम याद आईं !

होली के दिन नेताजी अकेले बैठे होली के सीन टीवी पर देख रहे थे। साथ ही यह गाना भी गुनगुना रहा थे, तुमसे मिलने का जब न कोई बहाना मिले तो होली के बहाने आ गए। तभी मोबाइल घनघना उठा। महाराष्ट्र से पार्टी के नए नवेले अध्यक्ष जी की काल थी। उन्होंने पुराने अध्यक्ष जी को अपने घर पर याद किया था। मूड तो नहीं था पर होली पर दुश्मनी करने का भी इरादा नहीं था। सो चले गये उनके घर। वहां पहले से ही श्रीवास्तव जी मौजूद थे। आते ही शुरू हो गए। देखा न, हम कह रहे थे कि हुईन रुक जाओ नहीं तो कोऊ न पूछेगा। अब हमरी बात नहीं मानी न लेव भोगो। अब खिंचाई तो खिंचाई, जैसे ही अध्यक्ष जी के घर में कदम रखा, चेहरे पर अबीर गुलाल पोतकर एक गुझिया भी मुंह में ठूंस दी। इसके बाद बोले आज राजनीतिक चर्चा कत्तई नहीं। आज बस बालीवुड पर ही ...! छूटते ही बोले, यार, क्या होली में हीरो हिरोइन भी हाथों में रंग गुलाल लेकर कूदते फिरते हैं। तपाक से जवाब मिला, तुम भी अजीब अहमक हो यार, क्या हीरो हिरोइन इंसान नहीं हैं फिर रोमांस के सीन देते-देते उनमें प्यार के बीज भी पनपने लगते हैं। अध्यक्ष जी की सुई अमिताभ-रेखा , सलमान ऐश्वर्या और कैट की ओर घूम चुकी थी। वे कहने लगे, क्या इस रंग भरे मौसम में बिग बी को रंग बरसे याद नहीं आता होगा। वे बोले, क्यों नहीं याद आएगा, क्या तुम्हें कालेज वाली करीना अरे सब्बो की याद नहीं आती। वे थोड़ा घबराए। फिर सकुचाते हुए बोले, धीरे बोलो। श्रीमतीजी ने सुन लिया तो मेरी शामत आ जाएगी। मैंने अगला तीर छोड़ा उस समय तो तुम सब्बो को रंग लगाने उसके घर तक पहुंच गए थे। आगे बोले, खैर छोड़ो। यह बताओ कि क्या अपने छोटे नवाब करीना के संग ही होली मनाएंगे या फिर पुरानी ड्योड़ी में भी हाथ आजमाएंगे। उन्होंने उनकी समझ को धता बताते हुए कहा, छोटे नवाब को क्या पड़ी है, जो करीना जैसी जीरो फिगर को छोड़कर कहीं और जाए। हां, मिस्टर खिलाड़ी जरूर होली खेलने के लिए यूपी बिहार लूटने वाली के पास जा सकते हैं। सिंह साहब बोले, रणबीर और दीपिका भी होली खेलेंगे। इस पर वे बोले कहा, दीपिका रणबीर के साथ जब चाहे तब होली खेल सकती है। हो सकता है कि रणबीर सोनम कपूर से होली खेलने पहुंच जाएं। अध्यक्ष जी सुरूर में थे पर उन्हें डर भी था कि पार्टी और मीडिया वाले कहीं का नहीं छोडेंग़े। ऊपर से दिल्ली की तिकड़ी हर समय गिद्ध जैसी नजर गड़ाए बैठी रहती है। इस पर सिंह साहब ने पान का बीड़ा मुंह में डालते हुए कहा, यार, सुष्मिता की तो अभी उसके कई प्रेमियों के साथ मामला टूट चुका है। अब वे होली किसके साथ मनाएंगी। इस पर नए अध्यक्ष जी का जवाब था, यार, झांसी की रानी तो कुछ भी कर सकती है।

Thursday, February 25, 2010

महान हैं सचिन

२४ फरवरी को सचिन तेंदुलकर ने ग्वालियर के कैप्टन रूप सिंह स्टेडियम में इतिहास रच दिया। उन्होंने अपने करियर की वह सबसे बड़ी उपलब्धि हासिल की जिसको पाने को दुनिया के कुछ महान खिलाड़ी ही सोंच सकते हैं, पर हमारे सचिन तो वाकई महान हैं। शायद तभी उन्हें हमारे देश के लोग क्रिकेट का भगवान कहते हैं। कल जब सचिन ने मैच के बाद टीवी पर कहा, मैं यह सेंचुरी भारत के लोगों को समर्पित करता हूं तो अपने आप ही आंखें भींग गईं। वजह यह रही कि वे दिन याद आ गए जब वह लगातार असफल हो रहे थे और मीडिया व जनता का एक वर्ग उन्हें रिटायर होने की सलाह दे रहा था। सचिन के स्टेटमेंट पर ध्यान दें ...हर उतार चढ़ाव में मेरे साथ रहे प्रशंसक, जाहिर है कि गर्दिश के वे दिन उन्हें भी याद आते होंगे और उन दिनों वह बहुत उदास भी रहे होंगे। लेकिन कमाल की बात यह है कि उन्होंने कभी भी अपने आलोचकों को पलट कर जवाब नहीं दिया। उनसे बहस नहीं की। बस यही कहते रहे कि उनकी बातों का जवाब मेरा बैट देगा और उन्होंने उसका जवाब हमेशा से ही अपने बैट से दिया। उनके विपरीत हमारे राजनीतिज्ञों को देखिए। हर समय बस आरोप प्रत्यारोप में लगे रहते हैं। एक बाल ठाकरे हैं जिन्होंने सचिन जैसे महान खिलाड़ी को भी नहीं बख्शा था। ये लोग सचिन से सबक ले सकते हैं।अगर सबक लेना हो तो सचिन से हम कुछ सबक तो ले ही सकते हैं, खास कर ऐसे लोग जो क्रिकेट खेलना नहीं जानते, सिर्फ देखना जानते हैं। पर कुछ भी बोलने से न सोचते हैं और न कभी भी नहीं चूकते। ऐसे लोगों को कुछ भी बोलने से पहले अपन आप को और अपनी हकीकत देख लेनी चाहिए। सचिन के इस शतक के बाद पूर्व संपादक प्रभाष जोशी की याद भी आई। आज से साढ़े तीन महीने पहले की बात है। ऐसा ही एक मैच था जिसमें सचिन ने बहुत ही बढ़िया पारी खेली थी लेकिन टीम को जीत दिलाने से पहले ही आउट हो गए थे। जोशी जी उस दिन इतने दुखी हुए कि उसी रात उनका हार्ट अटैक हो गया। कल अगर जोशी जी यह मैच देख रहे होते तो कितना खुश होते। सबसे ज्यादा रन, सबसे ज्यादा शतक, सबसे ज्यादा अर्ध शतक। इंटरनैशनल क्रिकेट के जिन दो रूपों में सचिन हिस्सा लेते हैं, उन दोनों में ही वह न सिर्फ शीर्ष पर हैं, बल्कि काफी दूर तक उनके पीछे कोई नहीं है। दुनिया में पहला वनडे इंटरनैशनल मैच ५ जनवरी १९७१ को आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड में खेला गया था। तब से अब तक गुजरे चालीस सालों में आठ गेंदों के चालीस चालीस ओवरों से लेकर छह गेंदों के साठ-साठ ओवरों तक और अंत में मौजूदा फार्मेट तक लगभग दो हजार वनडे इंटरनैशनल खेले जा चुके हैं, लेकिन दोहरा शतक इनमें आज तक एक भी नहीं बन पाया है। ठीक बराबर १९४ रनों के साथ इसके सबसे ज्यादा करीब दो खिलाड़ी पाकिस्तान के सईद अनवर (भारत के खिलाफ) और जिंबाब्वे के चार्ल्स कोवेंट्री (केन्या के खिलाफ) ही पहुंच पाए हैं। कितना अजीब है कि अभी तक यह करिश्मा अपने जीवन के छत्तीस बसंत देख चुके सचिन तेंडुलकर के ही लिए छूटा हुआ था। सचिन ने वनडे इंटरनैशनल का एकमात्र डबल सेंचुरी सचिन ने केन्या, बांग्लादेश, जिंबाब्वे या बरमूडा के खिलाफ नहीं, दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ बनाई है, जिसकी गेंदबाजी इस समय दुनिया में सबसे अच्छी मानी जा रही है। २५ चौकों और तीन छक्कों से बड़ी बात तो इस उम्र में हिरन की चपलता के साथ बटोरे गए उनके सिंगल्स हैं, जिनके बगैर इस एकदिवसीय क्रिकेट में इतनी बड़ी पारी खेलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जो लोग ऐसा मानते रहे हैं कि सचिन में ज्यादा बड़ी पारियां खेलने का माद्दा नहीं है, या यह कि उन्हें अब अपनी उम्र के हिसाब से ही खेलना चाहिए, उन्हें अब शायद अपनी समझ पर पुनर्विचार करना पड़े।

Sunday, February 21, 2010

अब आईपीएल ३

इस खेल में कारोबार है, पैसा है, मनोरंजन है। चियरलीडर्स के ठुमके हैं। विवाद है और प्रसिद्धि पाने के सारे मसाले एक साथ मौजूद हैं। जब इस खेल के सत्र की शुरुआत होने की घोषणा होती है तो भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों की निगाहें इस पर होती है। दुनिया के जो खिलाड़ी खेल नहीं पाते वे अपनी किस्मत को कोसते हैं और जो खेलते हैं वे रातों रात स्टार तो बनते ही हैं साथ ही करोड़ो के मालिक भी बन जाते हैं। इसमें पैसों की इतनी बरसात होती है कि खिलाड़ी खेल प्रेम के लिए कम बल्कि पैसे के लिए ज्यादा खेलते हैं। इसने क्रिकेट का रूप तो बदला ही है, साथ ही जब यह शुरू होता है तो और कुछ हो न हो पर भारत में राजनीतिक दृष्टि से महाभारत जरूर शुरू करा देता है। इससे राज्य सरकारें तो प्रभावित होती ही हैं केंद्र सरकार भी हिल जाती है। मीडिया को महीनो तक का सुर्खियां भी मिल जाती है। हम बात कर रहे हैं आईपीएल की। यानि भद्रजनों के खेल के तीसरे संस्करण की। दो टूर्नामेंट होने के बाद अब आईपीएल थ्री की शुरूआत १२ मार्च से होने जा रही है। क्रिकेट लीग को नेस्तानाबूत करने के लिए बीसीसीआई ने भारतीय बाजार में यह मिसाइल दागी थी। इसका निशाना भी अचूक रहा। आईपीएल का रंग ऐसा चढ़ा कि लोग सब कुछ भुला बैठे। पैसे, ग्लैमर और चौके-छक्कों की बरसात वाला यह टूर्नामेंट अचानक लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा। ऐसा होना लाजिमी भी था क्योंकि दर्शकों के लिए क्रिकेट मनोरंजन का साधन है और आईपीएल से बढ़िया तमाशा भला और कहां देखने को मिलता। पहले आईपीएल में जहां इसने शुरुआती सफलता के झंडे गाड़े, वहीं दूसरा आईपीएल दक्षिण अफ्रीका में आयोजित कराना राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न बन गया। अब तीसरे सीजन में पाकिस्तानी खिलाड़ियों की नीलामी और उनको शामिल न करने के मामले ने पूरे देश में महाभारत की स्थिति पैदा कर दी। इतना बवाल हुआ कि भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ गया। इस विवाद ने इतना तूल पकड़ा कि दोनो देशों के अंदर जमकर बयानबाजी हुई। पहले जहां टीम के मालिकों की निगाहें प्रतिभा तलाशती नजर आती थी वहीं वे अब चीयरलीडर्स के ठुमकों के बीच अपनी टीमों के लिए खिलाड़ी चुनते हैं। अब देखना है कि आईपीएल थ्री में चियर लीडर्स के ठुमकों के बीच बादशाह कौन सी टीम बनती है।

युवा क्रांति का दौर

यह युवा क्रांति का दौर है और हर क्षेत्र में युवाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ती जा रही है। राजनीति का क्षेत्र हो, उद्योग व्यवसाय का, कला साहित्य एवं संस्कृति का क्षेत्र हो या फिर सेवा का हर तरफ युवा नेतृत्व परवान चढ़ रहा है। राजनैतिक पार्टियों ने पुरानी पीढ़ी के संरक्षण में भावी रणनीति के तहत युवाओं के महत्व को समझा और अपने-अपने दलों के युवाओं को आगे लाकर अपनी विचारधारा को पुष्ट करने का अभियान चलाया। देश भर के युवाओं में समाज, राष्ट्र और स्वयं के हित में कुछ कर गुजरने का हौसला बुलंद हो, इस उद्देश्य से युवा नेता राहुल गांधी पूरे देश में यात्रा करके युवाओं को अपने साथ जोड़ रहे हैं। अपनी विचारधारा से युवाओं को जोड़ने और उन्हें सही दिशा में कदम बढ़ाने के लिए वे आगे-आगे चल रहे हैं। उनके विचारों से प्रभावित होकर उनके पीछे-पीछे कदम ताल करते हुए अधिकांश युवा इस मुहिम में शामिल होते जा रहे हैं। युवाओं को देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए उनमें निष्ठा, साहस और उत्साह की भावना जगाने के उद्देश्य से राहुल गांधी का अभियान जारी है। केवल यह मान कर इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि वे किसी पार्टी विशेष के पदाधिकारी हैं। बल्कि इसकी मूल भावना को महत्व दिया जाना चाहिए। जगह-जगह अपनी यात्राओं में राहुल गांधी राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका जैसे मुद्दे पर जोर दे रहे हैं। युवाओं में जोश पैदा करके उन्हें अपने अस्तित्व की पहचान करा रहे हैं। विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग राहुल गांधी के तेवरों का भले ही विरोध कर रहे हों और उनके प्रभाव को नकारने का प्रयास कर रहे हों किंतु उनकी आंधी से वे भीतर ही भीतर विचलित होते भी दिखाई दे रहे हैं। राहुल द्वारा युवाओं को दिये जा रहे संदेश का असर तो दिखने लगा है किंतु उनके विरोधी आशातीत इस प्रभाव को राजनैतिक हथकंडा करार रहे हैं। यह सही है कि देश में युवा भागीदारी में वृद्धि हुई है। स्वाभाविक है कि इन बढ़ते आंकड़ों का राजनैतिक लाभ उस पार्टी के खाते में जुड़ रहा है, जिससे राहुल गांधी जुड़े हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो राहुल गांधी की यात्रा को लेकर कांग्रेसियों में काफ़ी उत्साह है। बिहार में लंबा पतझड़ झेल चुकी कांग्रेस अब उनके बूते यहां राजनीतिक बसंत लाना चाहती है। महाराष्ट्र में भी पिछले दिनों राहुल का जादू देखने को मिला। शिवसेना के भारी विरोध के बावजूद मुंबई की जनता राहुल के साथ खड़ी नजर आयी न कि बाल ठाकरे के साथ। बाल ठाकरे को उनके ही लोगों ने औकात दिखा दी। राहुल गांधी ने देश के विभिन्न राज्यों का दौरा कर राज्य के दलित, मुस्लिम और अन्य कम.जोर तबके के युवाओं को इस यात्रा से जोड़ा है। राहुल ब्रिगेड क्या ची.ज है इसका न.जारा हाल ही में बिहार में दिखा। केंद्र सरकार में पार्टी के सभी युवा मंत्री, युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के तमाम नेता और संगठन पदाधिकारी इस मौक़े पर मौजूद थे। उनकी इन यात्राओं से लाभ यह हुआ कि न सिर्फ़ चर्चा में बल्कि राजनीतिक मुख्यधारा में भी कांग्रेस का फिर से प्रवेश होता हुआ दिखने लगा है।

बादशाहत कायम

कोलकाता टेस्ट में जीत से बादशाहत सलामत रहने के बाद टीम इंडिया का अगर अप्रैल महीने तक ताज कायम रहता है तो उसे आईसीसी विशेष ट्राफी और करोड़ों रुपए से पुरस्कृत करेगी। जैसे ही भारत ने साउथ अफ्रीका को पारी और ५८ रन से हराया, उसने नागपुर में मिली करारी हार का बदला भी ले लिया। हाशिम अमला ने साउथ अफ्रीका की हार को टालने के लिए पूरा जोर लगाया लेकिन दूसरे छोर पर कोई बल्लेबाज उनका साथ न दे सका। इस जीत के साथ दो टेस्ट मैचों की सीरीज १-१ से ड्रा हो गई। भारत का नंबर वन टेस्ट टीम का ताज बरकरार है। भारत की तरफ से दूसरी पारी में हरभजन ने ५ , अमित मिश्रा ने ३ और इशांत शर्मा ने २ विकेट लिए। मैच के अंतिम दिन केवल नौ गेंदें बची थीं। भारत के हाथ से मैच और नंबर एक का ताज फिसलता हुआ नजर आ रहा था, तभी हरभजन ने मोर्न मोर्केल के खिलाफ एलबीडब्ल्यू अपील की। अंपायर की अंगुली उठते ही ईडन गार्डन जश्न में डूब गया। हरभजन सिंह ने अंतिम क्षणों में न सिर्फ टीम को जीत दिलाई बल्कि इसके टीम इंडिया नंबर वन का ताज बरकरार रखते हुए १७५००० अमेरिकी डालर (८०००००० रुपये से ज्यादा) पाने की हकदार बनी। इस जीत ने एक अरब से ज्यादा भारतीयों को रोमांचित कर दिया। भारत को वार्षिक कट आफ (एक अप्रैल) तक शीर्ष पर रहने के लिए यह रकम दी जाएगी। भारत ने नंबर दो टीम को हरा कर साबित कर दिया कि वह टेस्ट का बास बनने के काबिल है। ऐतिहासिक ईडन गार्डन मैदान पर दूसरे टेस्ट के पांचवें दिन हाशिम अमला के प्रयासों पर हरभजन की आखिरी गेंद भारी पड़ी। अमला को मैन आफ द मैच व मैन आफ द सीरीज का पुरस्कार दिया गया। हाशिम अमला (नाबाद १२७) एक छोर पर अड़े रहे। भज्जी ने ५९ रन देकर पांच विकेट लिए। दक्षिण अफ्रीका ने नागपुर में पहला टेस्ट मैच पारी और छह रन से जीतकर भारत की बखिया उधेड़ दी लेकिन कोलकाता में भारतीय धुरंधरों ने एक पारी और ५८ रनों से जीत हासिल कर इस शर्मनाक हार का बदला ले लिया। भारत की सरजमीं पर यह ७०वीं जीत थी। आईसीसी रैंकिंग में उसके पहले की तरह १२४ अंक हैं। जबकि दक्षिण अफ्रीका के १२० अंक हैं। वह दूसरे स्थान पर है। हालांकि अंतिम दिन जहीर खान की कमी उस समय काफी खली, जब समय बीतता जा रहा था और दक्षिण अफ्रीका की अंतिम जोड़ी जमी हुई थी। जहीर पांव की मांसपेशियों में खिंचाव के कारण मैदान पर नहीं उतर पाए। आखिर में वह जादुई गेंद हरभजन की अंगुलियों से ही निकली। इस जीत के साथ धौनी की टीम ने आस्ट्रेलिया के लगातार सात वर्ष तक वार्षिक कट आफ तिथि के वक्त नंबर एक बने रहने का सिलसिला भी तोड़ दिया। भारत आईसीसी टेस्ट चैंपियनशिप गदा भी अपने पास रखेगा, जिसे उसने पिछले साल दिसंबर में श्रीलंका पर २-० की जीत से हासिल किया था। जून २००३ से टेस्ट रैंकिंग शुरू होने के बाद से यह पहला मौका है, जब भारत कट आफ तिथि के समय शीर्ष स्थान पर होगा। भारत २००८ में दूसरे स्थान पर था।

Wednesday, February 17, 2010

आनर किलिंग

एक गैरसरकारी संगठन के सर्वेक्षण इंडियन पापुलेशन सर्वे में कहा गया कि भारत में एक साल में कम से कम ६५० युवक युवतियों को सम्मान के नाम पर मार दिया जाता है और इनमें से ९० प्रतिशत से ज्यादा मामले हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के होते हैं। इस भीषण समस्या को देखते हुए गृह और विधि मंत्रालय ने एक पहल की है, जिसके तहत कानूनी संशोधन कर सीआरपीसी में इसे डालने की कवायद चल रही है।गौरतलब है कि इन दिनों हमारे देश में आनर किलिंग की घटना में वृद्धि देखने को मिल रही है। हमारे मौलिक अधिकारों में किसी भी जाति या धर्म में शादी करने तक की छूट संविधान द्वारा प्रदत है। लेकिन विगत कुछ वर्षों से हरियाणा सहित कई प्रांतों से खाप पंचायतों के द्वारा गोत्र विवाद को तुल आनर किलिंग जैसे जघन्य अपराध लगातार किए जा रहे हैं और सरकारे मौन धारण किए हुए हैं। हाल ही में गृहमंत्री पी. चिदंबरम इन घटनाओं की कठोर निंदा तो की लेकिन वह सिर्फ राष्ट्रव्यापी बहस से आगे नहीं बढ़ पाए। इसका असल कारण है कि आनर किलिंग के लिए कोई अलग कानून नहीं है और फिर यह मामला भी राज्य सरकार की कानून व्यवस्था के दायरे में आता है। परंपराओं की दुहाई देने वाली खाप पंचायतें शायद संविधान से अलग तालिबानी व्यवस्था में विश्वास करती हैं। इस देश का यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि कोई भी कानून की मर्यादा का उल्लंघन करे और सरकार की चुप्पी विवशता दिखाती रह जाती है। खाप न्यायालयों की आनर किलिंग के खिलाफ सरकार बहस की बात करती है। बहस से समाज नहीं सुधारता, इसका उदाहरण हम देख सकते हैं कि खुद खाप पंचायतें बहस का अड्डा होते हुए भी अपराध का निर्णय सहर्ष स्वीकार कर लेती हैं। सरकार के पास यह आंकडा रहता है कि खाप जैसी पंचायतों ने अब तक क्या-क्या किया, लेकिन उन पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल का जिक्र कहीं नहीं होता। सरकार अब इस बात को लेकर गंभीर हुई है कि आनर किलिंग जैसे अपराध को रोकने के लिए कानूनी संशोधन किया जाना आवश्यक है। नए कानून लाने के स्थान पर सरकार आईपीसी में संशोधन की बात सोच रही है। आईपीसी में संशोधन के बाद आनर किलिंग संगीन अपराध की श्रेणी में आ जाएगा। अब तक ऐसा नहीं था। भारत में आनर किलिंग पर संयुक्त राष्ट्र भी चिंता जता चुका है। संशोधन के बाद आनर किलिंग के दोषी को उम्र कैद से लेकर फांसी तक की सजा हो सकती है।

अपराध की नई मायावी दुनिया

आज के साइबर अपराधों का चेहरा बहुआयामी है, जिसके चलते सब कुछ असुरक्षित है। फिर चाहे वे देश की सुरक्षा से जुडी नाजुक जानकारियां हों या फिर व्यक्ति की निजता अथवा देश की अर्थव्यवस्था का आधारभूत ढांचा। खतरा बड़ा है, गहरा है और सबसे बड़ी मुश्किल है कि यहां अपराधी दिखता भी नहीं है। अपराध हो जाता है लेकिन कोई ऐसा सबूत नहीं मिलता जिन्हें अब तक के अपने कानूनों में अदालतें साक्ष्य के तौर पर मंजूर करती हैं। चीन में बैठा हैकर हमारे प्रधानमंत्री निवास से लेकर तमाम बडे़ और संवेदनशील सरकारी कार्यालयों के कंप्यूटरों तक अपनी पहुंच बना लेता है। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के कंप्यूटर पर आने वाली सूचनाएं उन हाथों तक पहुंच जाती हैं जहां उन्हें नहीं पहुंचना चाहिए। एक स्कूल की छात्रा के नितांत निजी क्षणों की वीडियो क्लिपिंग पलक झपकते दुनिया भर के मोबाइल और इंटरनेट साइट्स पर दिखने लगती है। आपका एटीएम कार्ड आपकी जेब सुरक्षित रहता है लेकिन आपके खाते से बड़ी आसानी से पैसा निकल जाता है न कोई मारपीट और न कोई छीनाझपटी। मोटे तौर पर यह है आज के साइबर अपराधों का बहुआयामी चेहरा जहां सब कुछ असुरक्षित है। सरकार अब जागी है। वह साइबर अपराधों की मायावी दुनिया से निबटने के लिए अलग कानून और प्रवर्तन एजेंसी की वकालत कर रही है। भारत में कंप्यूटर युग की शुरुआत से सभी क्षेत्रों में व्यापक बदलाव नजर आया है। इसमें साइबर क्रांति की अहम भूमिका है। इस प्रौद्योगिकी के फैलाव और बढ़ते इस्तेमाल ने साइबर अपराध सहित कई अन्य समस्याओं को जन्म दिया है। साइबर अपराधों में कई तरह की अवैध गतिविधियां शामिल हैं। हम आज अपनी अहम जानकारियों को कंप्यूटर में संकलित करते हैं। व्यक्तिगत जानकारियों के अलावा देश की महत्वपूर्ण जानकारियां भी इंटरनेट पर उपलब्ध होती हैं। देश की सुरक्षा प्रणाली में सेंध लगाने की दुस्साहसिक वारदातें होने लगी हैं। चीन हो या अमरीका सभी साइबर क्राइम से त्रस्त हैं। व्यापक पैमाने पर हो रही संगठित हैकिंग लोगों को चकित करने वाली हैं। दुनिया भर में विभिन्न देशों के सामने पेश आ रहे गंभीर खतरे की चेतावनी देती हैं यह वारदातें। यदि इस ई आतंकवाद को समय रहते नहीं रोका गया तो यह हमारे देश के लिए सीमा पार के आतंकवाद से अधिक भयावह साबित हो सकता है। विश्व के सभी देशों पर हैकर्स व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, मानवाधिकार समूहों और सरकारी एजेंसियों को निशाना बनाने में सफल रहे हैं। वर्ष २००७ में अमरीका के पेंटागन की ई मेल प्रणाली और वर्ल्ड बैंक की वित्तीय सूचना प्रणाली में साइबर घुसपैठ के पीछे चीनी हाथ की आशंका जताई गई थी। हैकरों ने अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान बराक ओबामा और मैक्केन के प्रचार अभियानों को भी साइबर हमलों का निशाना बनाया था। यह सारे घटनाक्रम साइबर आतंकवाद के खतरों की ओर इशारा करते हैं। विश्व के आतंकी अब अपने गैंग में आईटी प्रोफेशनल्स को भी प्राथमिकता देने लगे हैं। आतंक ई आतंकवाद के रूप में अवतरित हो रहा है। आनलाइन अपराध की घटनाएं आज सुर्खियां बनने लगी हैं। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या बढ़ने के साथ ही ऐसे अपराध लगातार बढ़ते जा रहे हैं। साइबर अपराध की व्यापकता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कंप्यूटर नेटवर्क का इस्तेमाल करके किसी भी औद्योगिक समूह या देश के कामकाज को पूरी तरह से ठप किया जा सकता है। साइबर अपराध से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है फिर चाहे वह बैंकिंग हो अथवा रक्षा, शिक्षा या अनुसंधान।कानून से संबंधित एजेंसियां इस क्षेत्र में न तो साधनों से लैस हैं और न ही पूरी तरह प्रशिक्षित। साइबर अपराध द्वारा अपराधी साइबर स्पेस का इस्तेमाल करके कंप्यूटर आधारित हमलों से किसी भी सत्ता को भयभीत करने या उसे अपनी विचारधारा के अनुसार चलने को बाध्य करता है। इस अपराध के तहत वैश्विक स्तर पर हैकर्स व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, मानवाधिकार समूहों और सरकारी एजेंसियों को अपना निशाना बनाते हैं। शापिंग वेबसाइट्स, आनलाइन बैंकिंग और अन्य साइट्स की बढ़ती लोकप्रियता के साथ यह संवेदनशील मामले निजी और वित्तीय डेटा की आवश्यकता के कारण साइबर अपराध के आसान शिकार बनते जा रहे हैं। साइबर अपराध का पता लगाना और रोकना कड़ी मेहनत और चाकचौबंद चौकसी की दरकार रखता है। देश में इंटरनेट को आए अभी कुछ ही दशक हुए हैं। इसे देखते हुए साइबर अपराध पर लगाम लगाना महत्वपूर्ण हो गया है। सूचना प्रौद्योगिकी का दायरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इससे कई प्रकार की अवैध गतिविधियों के बढऩे का खतरा सामने है। साइबर अपराधों से धोखाधड़ी, पहचान की चोरी, स्पैम, फिशिंग घोटालों, डाटा चोरी, कंप्यूटरों से खुफिया और संवेदनशील सूचनाओं की चोरी, सूचना का दुरुपयोग, इन्फारमेशन पाथवे जाम, हार्ड डिस्क और फाइलों को नष्ट कर देना, कंप्यूटर वायरस, बग, बौट, वर्म, ट्रोजन हार्स आदि संबद्ध हैं। ई आतंकवाद ने नया और अदृश्य चेहरा अख्तियार कर लिया है। यह आतंकवाद के उन सभी रूपों से कहीं अधिक घातक है, जिनका हम भी तक सामना कर चुके हैं। इसे देखते हुए साइबर अपराध से निबटने के लिए सुसज्जित और समुचित सुरक्षा एजेंसी की जरूरत है, जो प्रशिक्षित भी हो। वर्तमान में हमारी एजेंसियों द्वारा अधिकांश कार्य घटिया ई मेलों, डाटा चोरी और छोटे से लेकर मध्यम स्तरीय हैकिंग के मामलों में ही किया जा रहा है और वह भी सिर्फ महानगरों में। देश अभी इ र्आतंकवाद से निबटने को पूरी तरह से तैयार नहीं है। इसलिए इस दिशा में काम होना जरूरी है। भारत सरकार ने इस अपराध की अहमियत समझते हुए साइबर स्पेस की सुरक्षा बढ़ाने के लिए पहल की है। भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम २००० में संशोधन किया गया है। भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी विभाग ने कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) का गठन किया है। यह सौ लोगों की समर्पित टीम है और चौबीस घंटे तत्पर रहती है। यह अपने प्रयोक्ताओं को पूर्व चेतावनी और सलाह देती है। सुरक्षा और सुरक्षा के उपाय सुनिश्चित करने के लिए वेबसाइट की मदद ली जा रही है। माना जाता है कि साइबर हमलों में भी भारत के लिए पाकिस्तान बड़ा खतरा है लेकिन यह सही नहीं है। भारत को चीन, रूस और अमरीका से सावधान रहने की जरूरत है।

Saturday, February 13, 2010

ठाकरे को ठेंगा

कुछ सिरफिरे बनाम देश की लड़ाई का प्रथम चक्र कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी जीत चुके हैं। अपनी मुंबई यात्रा के दौरान लोकल ट्रेनों में सफर करके श्री गांधी ने शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे के उस अहंकार को नष्ट कर दिया है कि उनकी अनुमति के बगैर मुंबई की सड़कों पर अमन कायम नहीं रह सकता है। उन्होंने न सिर्फ शेर को उसकी मांद में पछाड़ा बल्कि आम जनता में भी वह विश्वास पैदा करने की कोशिश की कि मुंबई सिर्फ मराठियों की नहीं बल्कि पूरे देशवासियों की है।कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की मुंबई यात्रा ने कई मिथ तोड़ दिये हैं। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने देशवासियों को यह विश्वास दिलाने में सफलता प्राप्त की कि कुछ सिरफिरे व सांप्रदायिक लोग इस देश की एकता व अखंडता को नष्ट नहीं कर सकते।शिव सेना की धमकियों के बावजूद जिस बिंदास तरीके से राहुल मुंबई की सड़कों पर घूमे, उससे उन्होंने अपनी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की याद ताजा कर दी। याद रहे कि देश की एकता और अखंडता को बरकरार रखने में ही उनके पूर्वजों ने अपनी आहुति दी थी।राहुल गांधी ने अपने पूर्वजों के मान सम्मान को आगे बढ़ाते हुए जान की परवाह किये बिना जिस बेखौफ तरीके से शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे की धमकियों का जवाब दिया उससे जाहिर है कि वह अपने परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। जिस बाल ठाकरे की इंकार पर मुंबई की नब्ज थम जाती थी, वही मुंबई में बैठे-बैठे राहुल गांधी की यात्रा का नजारा देखते रहे। कभी शेर की तरह दहाड़ने वाले ठाकरे राहुल गांधी के विरोध में अपने उन शिव सैनिकों को भी नहीं भेज पाये जो कभी उनके एक इशारे पर मुंबई में आग लगा देते थे। राहुल गांधी जान बूझ कर उन्हीं इलाकों में सैर करते रहे, जिसे शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे व उनके भतीजे तथा मनसे प्रमुख राज ठाकरे का गढ़ माना जाता है। उन्होंने उन्हीं इलाकों में लोकल ट्रेनों में सफर किया। वहां के लोगों का हाल चाल भी राहुल ने पूछा।राहुल की मुंबई यात्रा से पूर्व इसे धर्म, संप्रदाय एवं क्षेत्रवाद के नाम पर एक बार फिर बांटने की साजिश प्रारंभ हो गयी थी। मुंबई को सिर्फ मराठियों का बताया जाने लगा था। यहां तक कि महाराष्ट्र की कांग्रेस व एनसीपी गठबंधन की सरकार ने भी शिव सेना प्रमुख और मनसे प्रमुख के पद चिन्हों पर चलते हुए यह फैसला कर डाला था कि महाराष्ट्र में वहीं टैक्सी चलायेगा जो मराठी जानता हो और पिछले १५ वर्ष से मुंबई का निवासी हो। जाहिर है यह फैसला उत्तर भारतीयों के खिलाफ था। मुंबई सरकार के खिलाफ यह फैसला उत्तर भारतीयों को नाराज करने के लिए किया गया था। हैरानी की बात यह थी कि यह फैसला उस सरकार द्वारा किया था जिसने हाल ही में सम्पन्न विधान सभा चुनाव में उत्तर भारतीयों को भरपूर सुरक्षा प्रदान करने का आश्र्वासन दिया।महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले का असर बिहार विधानसभा के चुनाव में दिखाई पड़ने के आसार थे। कांग्रेस महासचिव ने इसका अंदाजा लिया था। उन्होंने बिहार यात्रा के दौरान ही यह घोषणा की थी कि मुंबई पूरे देशवासियों की है न कि मराठियों की। उनके इस बयान से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चाव्हाण को करारा झटका लगा। उन्होंने अपने फैसले से पलटी मरते हुए यह कहा कि महाराष्ट्र में टैक्सी ड्राइवरों के लिए स्थानीय भाषा की जानकारी होना आवश्यक है। लेकिन कांग्रेस महासचिव के दिल में तो कुछ और ही था। इस घोषणा के बाद ही शिव सेना और मनसे कार्यकर्ताओं ने यह चुनौती दे दी कि वह राहुल गांधी को मुंबई में घुसने नहीं देंगे और उन्हें काले झंडे दिखायेंगे। दृढ़ इच्छा शक्ति के धनी राहुल गांधी इन धमकियों से न डरे और न ही झुके। वह पूरे दमखम के साथ मुंबई की सड़कों पर घूमे। वे खासकर उन्हीं इलाकों में गये जिन्हें शिवसेना और मनसे का गढ़ माना जाता है। सुरक्षा एजेंसियों की चेतावनी के बाद भी उन्होंने लोकल ट्रेन से सफर किया। इस यात्रा ने उत्तर भारतीयों को जहां सुरक्षा का अहसास कराया, वहीं समूचे देश को भी यह विश्वास दिलाया कि कुछ उपद्रवी और असामाजिक तत्व देश की सुरक्षा, एकता एवं अखंडता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।राहुल की यात्रा ने महाराष्ट्र सरकार को भी यह संदेश दे दिया है कि कांग्रेस सरकार सिर्फ मराठियों की नहीं बल्कि महाराष्ट्र में रहने वाले सभी धर्मों, जातियों एवं सत्ता के लोगों की है। इसलिए सरकार को सिर्फ मराठियों की नहीं बल्कि सभी वर्गों के हितों की रक्षा करनी चाहिए। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को भी संकेत दिया कि वह दोहरी नीति न लागू करें बल्कि समाज के सभी वर्गों के हितों की रक्षा के लिए कार्य करें।उनकी इस यात्रा ने शिवसेना का भ्रम तोड़ दिया कि महाराष्ट्र में वह सर्वशक्तिमान है। उन्होंने बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे को उनके ही इलाके में औकात दिखा दी। उन्होंने मुंबई में आतंक का पर्याय बन चुके ठाकरे परिवार और उनके समर्थकों को बता दिया कि हुकूमत और राजनीतिक इच्छाशक्ति की मजबूती के सामने बंदरघुड़की की कोई जगह नहीं है। यह ठाकरे की राजनीति के मुंह पर बड़ा तमाचा है।

... फिर मिले सुर

लगभग एक दशक तक पूरे देश को राष्ट्रीय एकता की रसधार में भिगोते रहने वाली दूरदर्शन की प्रस्तुति 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' की २२ साल बाद पुनर्रचना हुई है। शब्द वही पुराने है लेकिन नए साजों में उभरने वाली नई धुनों ने इसे नया बना दिया है। नई पुनर्रचना में कविता कृष्णमूर्ति, श्रेया घोषाल, शंकर महादेवन,सोनूनिगम,की चिरपरिचित आवाजों का जाड़ छाया है। इस प्रस्तुति का मकसद विश्व रंगमंच पर अपने जलवे बिखेर रहे युवा भारत को सामने लाना है।१५ अगस्त, १९८८ को दूरदर्शन में जारी उस म्यूजिकल फिल्म को भाषा के सभी बंधन तोड़ते हुए देश के बच्चे बच्चे ने अपने दिल में बसा लिया था। जब भी इसका टेलिकास्ट होता था सभी सुर मिलाते। अब नयी पढ़ी को एक बार फिर वही सुर लौटाए हैं चैनल जूम और टाइम्स आफ इंडिया ने मिलकर। जेनरेशन एक्स के लिए उन सुरों का यंग अवतार गणतंत्र दिवस के मौके टीवी पर रिलीज किया गया। यह नया वीडियो देश भर की १५ लोकेशनों पर शूट किया गया है। पुराने गीत में २६ महान हस्तियों ने हिस्सा लिया था। नए वीडियो में ६८ लोग हैं। इसमें बिग बी से लेकर, ए. आर. रहमान, सलमान खान, साइना नेहवाल अपने सुर मिला रहे हैं। हर आर्टिस्ट की ओर से सामाजिक संदेश दिया गया है। इसे ऐतिहासिक स्थलों पर शूट किया गया है। बिग बी के लिए यह वीडियो सबसे खास है। वह अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जो इसके पहले विडियो में भी थे। आरती और कैलाश सुरेंद्रनाथ ने इसे प्रोडयूस किया है।प्रारंभिक रचना में जहां पंडित भीमसेन जोशी, अमिताभ बच्चन, कमल हासन, लता मंगेशकर, प्रकाश पादुकोण जैसे लोग थे तो इस बार अनुष्का शंकर, अमान और अयान, अभिनव बिंद्रा, विजेंदर सुर मिला रहे हैं। पिछले वीडियो का कांसेप्ट सुरेश मलिक ने तैयार किया था और पीयूष पांडेय ने लिखा था। नए वीडियो की शानदार सिनेमेटाग्रफी और म्यूजिक है लुई बैंक्स का। पुराने विडियो में भी लुई बैंक्स ने पी.वैद्यनाथन के साथ मिलकर म्यूजिक तैयार किया था। नयी पीढ़ी में यह अभी से लोकप्रिय हो गया है। यू ट्यूब में पहले ही दिन इसे २६०० से ज्यादा हिट्स मिले।

Friday, February 12, 2010

नफरत की राजनीति

नफरत की राजनीति करने वाले चंद लोगों के कारण दुनिया में मुंबई की छवि ऐसे शहर के रूप में बन चुकी है जो बेहद असुरक्षित है। पिछले साल पांच दिनों तक मुंबई आंतकियों के कब्जे में रही। अक्सर यह शहर शिवसेना और मनसे की अंधेरगर्दी के कारण पटरी से उतर जाता है। लोग मजबूरी में यह स्वीकार करते हैं कि जीवन चंद हाथों की बपौती है। कभी शिवसेना कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी तो कभी अपनी सहयोगी भाजपा को धमकाती है। कभी वह मुकेश अंबानी को धंधा करने को कहती है। शाहरुख को धमकाते हुए पाकिस्तानी खिलाड़ियों से दूर रहने को कहती है। कभी अमिताभ बच्चन पर निशाना साधती नजर आती है। हालांकि मराठियों की हिमायत करके उत्तर भारतीयों को निशाने पर लेने वाली शिवसेना को अब हर मोर्चे पर करारा जवाब मिल रहा है। शाहरुख खान ने जवाब दिया। सचिन जवाब दे चुके हैं। बाल ठाकरे की क्षेत्रीयता से भरपूर मानसिकता को बार-बार ठोकर लग रही है। ठाकरे इतने बदहवास हैं कि संभल नहीं पा रहे। सचिन तेंडुलकर ने जब कहा मुंबई सबकी है तो ठाकरे ने उन्हीं से पंगा ले लिया।उन्हें मुंह की खानी पड़ी पर रवैया नहीं बदला। मुकेश अंबानी ने भी खरी खरी सुना दी लेकिन ठाकरे बेअसर। आखिरी वार राहुल गांधी ने किया। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत खुद महाराष्ट्र के हैं पर उन्होंने कह दिया कि मुंबई सभी भारतीयों की है। बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी ने संघ का इशारा समझ कर अपना रवैया साफ कर दिया कि भाजपा इस मुद्दे पर शिव सेना का साथ नहीं दे सकती। उन्होंने कहा कि मुंबई पूरे देश की है और लोग पूरे देश में कहीं भी नौकरी के लिए आ-जा सकते हैं। संघ के पूर्व प्रवक्ता राम माधव ने एक कदम आगे निकलते हुए यह कहा कि संघ के स्वयंसेवक मुंबई में उत्तर भारतीयों की रक्षा करेंगे। इस पर बाल ठाकरे दहाड़ उठे। बाल ठाकरे की लड़ाई अब संघ परिवार से शुरू हो गयी है। संघ के जवाब में उद्धव ठाकरे ने मोर्चा संभाला। उन्होंने संघ को खरी-खरी सुनाते हुए कहा कि हमें देशभक्ति और एकता का पाठ न पढ़ाए। जब १९९२ में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए तो हमने हिंदुओं की रक्षा की। तब कहां था संघ परिवार। भाजपा महासचिव विनय कटियार और पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने शिवसेना पर हमला बोलते हुए कहा कि मुंबई ठाकरे परिवार की जागीर नहीं। पिछले पच्चीस वर्षों में सीटों के लेन देन पर छोटी-मोटी तनातनी को छोड़ कर भाजपा और शिवसेना के बीच कभी कोई गंभीर टकराव नहीं देखा गया। आरएसएस से भी शिवसेना की कभी कोई तकरार नहीं हुई। आम भारतीय की नजर में पिछले तीन दशकों से शिवसेना की छवि संघ के ही किसी परिवारी संगठन जैसी रही है। ऐसे में शिवसेना नेतृत्व का अचानक आरएसएस के खिलाफ उग्र बयान जारी कर देना चकित करने वाली बात है। इस बीच संघ के सुर में सुर मिलाते हुए भाजपा ने भी साफ कर दिया कि उसे अब शिवसेना से अपने संबधों पर पुनर्र्विचार करना पड़ेगा। सवाल यह उठता है कि यह दरार सचमुच है या केवल लकीर खींच कर जनता को भरमाने की कोशिश है। इसका पता आने वाले समय में लगेगा। शिवसेना और उसकी मानस संतान मनसे ने अपनी क्षेत्रीय राजनीति के चलते मुद्दा यह बना दिया है कि मुंबई किसकी है? सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जितने जरूरी प्रश्न हैं, वे सब इस एक सवाल के नीचे दफन कर दिए गए हैं। कम से कम मुंबई में यही स्थिति है, बाकी महाराष्ट्र को लेकर शिवसेना और मनसे इतने चिंतित नहीं दिखाई देते। शिवसेना और भाजपा पुराने सहयोगी हैं। महाराष्ट्र में उनका गठबंधन है। इसलिए दोनों के बीच क्षेत्रवाद पर असहमति आश्चर्यचकित करती है। भाजपा क्षेत्रवाद की संकीर्णता से खुद को ऊपर बताना चाह रही है और शिवसेना का राजनीतिक अस्तित्व इस संकीर्णता पर ही टिका है। शिवसेना को केवल महाराष्ट्र और उसमें भी मुंबई व आसपास की राजनीति करनी है, जबकि भाजपा को देश भर में इसलिए गठबंधन के बावजूद दोनों अपना अलग रुख अख्तियार किए हुए हैं और भाजपा ने इसे स्वाभाविक करार दिया है। शिवसेना की यह संकीर्णता आज की नहीं बल्कि पिछले ४० वर्षों की है। राज ठाकरे ने अलग होकर मनसे बनाई लेकिन नीति अलग नहीं कर पाए। चाचा-भतीजे में होड़ चलती रहती है कि मराठियों का मुद्दा कौन ज्यादा उठाये है। देश की जनता जानती है कि इनकी राजनीति संकीर्ण स्वार्थों की है। इसलिए उनसे अपेक्षा नहीं रहती कि वे विदर्भ के किसानों के बारे में सोचें। राज ठाकरे हों या बाल ठाकरे अगर कोई संविधान को खुली चुनौती दे और विपक्ष व सत्तापक्ष सिर्फ जुबानी पलटवार करे तो क्या कहेंगे। अगर गोलमाल न होता तो महाराष्ट्र चुनाव से पहले जब राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों को सड़कों पर दौड़ा दौड़ा कर मार रहे थे। तब चिदंबरम कहां थे भाजपा के गडकरी कहां थे। तब तो गडकरी महाराष्ट्र भाजपा के भी अध्यक्ष थे। अगर बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे नेताओं पर समय रहते कानूनी कार्रवाई ईमानदारी से की जाती तो नौबत यहां तक न पहुंचती।ठाकरे के लोग मुंबई से बिहारियों को भगा रहे हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि मुंबई में जब आतंकवादी हमला हुआ तो एनएसजी में शामिल बिहार, यूपी और पूरे देश के जवानों ने ही उन आतंकवादियों से लोहा लिया था।

देसी बैंगन की जीत

पर्यावरण मंत्री जय राम रमेश ने जब बी टी बैंगन को रोकने का फैसला सुनाया तो देश में पिछले दो वर्षों से चल रहे जीएम फूड विरोधी आंदोलन में शामिल लोगों के चेहरों पर मुस्कान थी। देश भर में फैले इस आंदोलन ने हालिया दिनों में जन दबाव बनाकर सरकार से सार्थक निर्णय पाने में नयी मिसाल कायम की। बीटी बैंगन पर रोक के फैसले ने न केवल भारत बल्कि दुनिया के कई देशों में जी एम फूड विरोधी आंदोलनकारियों को बल दिया है।पर्यावरण मंत्री ने अपने नोट में लिखा है कि 'इसे देश की बायो तकनीकी रिसर्च में रोड़ा न समझा जाये पर जब तक एक स्वतंत्र एजेंसी ऐसी फसलों के प्रभावों पर संस्तुतिपरक रिपोर्ट नहीं दे देती तब तक इन फसलों पर रोक जारी रहनी चाहिए।'भारत सरकार द्वारा गठित जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने अक्टूबर २००९ में बीटी बैंगन को पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित बताते हुए अपनी स्वीकृति दे दी थी। इसके बाद से ही विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। इसे देखते हुए सरकार ने देश भर में जन सुनवाई करने का निर्णय किया। आठ दौर की जन सुनवाई की अंतिम बैठक छह फरवरी को समाप्त हो गयी। बीटी बैंगन को महिको ने अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो के साथ मिलकर विकसित किया। इसमें मिट्टी में पाया जाने वाला क्राई१ एसी नामक जीन डाला गया है। इससे निकलने वाले जहरीले प्रोटीन को खाने से बैंगन को नुकसान पहुंचाने वाले फूट एंड शूट बोरर नामक कीड़े मर जाते हैं। दरअसल बीटी बैंगन को लेकर आशंकाएं कम नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित दो सदस्यीय पैनल के सदस्य डा. पुष्प भार्गव के अनुसार किसी भी जीएम बीज को अनुमति देने से पहले कम से कम ३० महत्वपूर्ण परीक्षण अनिवार्य है। इसके विपरीत जीईएसी केवल तीन परीक्षण करती है। कई महत्वपूर्ण प्रयोग नहीं किए जाते। जीईएसी कंपनियों द्वारा दिए गए सैंपल की जांच करती है जबकि नियमतः उसे खुद सैंपल एकत्र करने चाहिए। विश्व के १८० देशों में जीएम खेती या उत्पादों पर पूरी तरह रोक लगी हुई है। दुनिया की ७५ प्रतिशत जीएम खेती चार देशों (अमेरिका,कनाडा, ब्राजील, व अर्जेटीना) में होती है। यहां भी सिर्फ चार फसलें ( कपास, सोयाबीन, मक्का, कैनोला) में ही जीन संवर्द्धन की छूट है। इनमें से अधिकांश का प्रयोग जैव ईंधन के लिए किया जाता है। बीटी बैंगन की रोग प्रतिरोधकता और अधिक उत्पादकता के दावे को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है।अब तक के अनुभवों से यही प्रमाणित होता है कि अन्य परिस्थितियों के अनुकूल रहने पर जीएम बीज शुरू में अच्छी पैदावार देते हैं लेकिन धीरे धीरे उत्पादकता में कमी आने लगती है। तीन-चार वर्ष में ही खेत में ऐसे कीट पैदा हो जाते हैं जिनके लिए अधिक शक्तिशाली रसायनों की जरूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए बीटी कपास में बालवर्म के विरुद्ध प्रतिरोधकता मौजूद थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कई अन्य कीटों (बालवीवल, आर्मीबर्म तथा ह्वाइट फ्लाई) ने कपास की फसल को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिय। अब तो बालवर्म में भी प्रतिरोधकता उत्पन्न हो रही है। कड़वा सच यह है कि जीएम तकनीक के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरे विश्व की खाद्य श्रृंखला पर कब्जा जमाने की मुहिम में जुट गई हैं। आहार का आधार खेती है और खेती का आधार बीज। एक बार बीजों के मामले में पराधीन हो जाने पर किसी भी देश की राजनीतिक, आर्थिक स्वतंत्रता व खाद्य सुरक्षा सदा के लिए खत्म हो जाती है। जीएम फसलों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के अभी तक जो अध्ययन हुए हैं उनमें सिद्ध हो चुका है कि बीटी बैंगन खाने के बाद गाय, बकरी, खरगोश, मछलियां और चूहे आदि जीवों को गंभीर बीमारियों ने घेर लिया। अधिकतर जीवों के आंतरिक अंगों में विकृतियां आईं। महिको ने बीटी बैंगन के गुणों को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया लेकिन संभावित दुष्परिणामों को जानबूझकर छिपाया है।अमेरिकन एकेडमी आफ एनवायर्नमेंट मेडिसिन (एएइएस) का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है। विषाक्तता, एलर्जी और प्रतिरक्षण, प्रजनन, चय-अपचय, पाचन क्रियाओं पर तथा शरीर और आनुवंशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें उनमें बनी खाने-पाने की चीजें भयानक ही होंगी।बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देने के मामले में चल रही बहस के बीच देश के कई राज्यों ने इसका विरोध किया। पंजाब के वन व वन्य जीव, उच्च चिकित्सा शिक्षा मंत्री तीक्ष्ण सूद ने कहा कि बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन पंजाब के हित में नहीं हैं। उन्होंने कहा कि बीटी बैंगन मामले को लेकर पंजाब सरकार संजीदा है। उन्होंने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि केंद्र बीटी बैंगन के मामले में बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसांटो के दबाव में इसे राज्यों में लागू करने के लिए विवश कर रही है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल व मध्य प्रदेश जैसे राज्य बीटी बैंगन के विरोध में है। वहीं गुजरात व महाराष्ट्र सरकार ने भी इस पर विरोध करने के लिए समय की मांग की है। बीटी बैंगन के विरोध में ३० जनवरी को केरल से लेकर दिल्ली और पश्चिम बंगाल से लेकर गुजरात तक राष्ट्रीय उपवास दिवस का आयोजन किया गया। इस देशव्यापी उपवास का आयोजन कई गैर सरकारी संगठनों व किसान संगठनों की तरफ से किया गया।मध्य प्रदेश सरकार ने इस पर का कड़ा ऐतराज जताते हुए केंद्र सरकार से इसे बाजार में नहीं उतारने की मांग की है। इससे पहले केरल, कर्नाटक व उड़ीसा की सरकार भी बीटी बैंगन पर विरोध जता चुकी है।

अलबेली दुनिया!

पिछले दिनों एक वीडियो बेहद लोकप्रिय हुआ जिसमें एक जोड़े ने अपनी शादी की सालगिरह के दौरान सात वचन लेने के बाद पहले सोशल नेटवकिर्ंग साइट्स पर अपना अपना स्टेटस अपडेट किया और उसके बाद बाकी रस्में पूरी की। भले ही तमाम लोग इसे सनक मानें लेकिन सच पूछिए तो हममें से ज्यादातर लोग इसी तरह नेट के आदी होने की राह पर हैं। लोगों के इंटरनेट प्रेम की हालत यह हो गयी है कि अब वे अपनी छींक के बारे में भी सोशल नेटवकिर्ंग साइट्स पर जानकारी देने लगे हैं। इससे भी ज्यादा मजे की बात यह है कि सामने वाले लोग उस पर भी प्रतिक्रिया भी देते हैं। इस मामले में लड़कियों को कुछ ज्यादा ही अटेंशन मिलता है। जाहिर है खूबसूरत लड़कियों का हर बात पर अपनी राय देना नेट की दुनिया का चलन हो गया है। चाहे कितनी भी बकवास कीजिए, अगर आप लड़की हैं तो आपके पोस्ट पर प्रतिक्रियाओं की बरसात हो जाएगी। जैसे कि किसी ने पोस्ट किया, मैंने अभी बबल गम चबाई है तो उस पर कमेंट आएगा, ओह, उसे चबाने में तुम्हें प्राब्लम तो नहीं आई? आजकल ज्यादातर लोग सोशल साइट पर इस मौके की तलाश में रहते हैं कि कब उनकी कोई ग्लैमरस फोटो खिंचे और कब वे उसे पोस्ट करें। दरअसल, वे लोग हमेशा बोलते फोटो की तलाश में रहते हैं। इसके लिए लोग अपने दोस्तों के साथ हवाई जहाज, बसों या फिर ट्रेन जैसी सार्वजनिक जगहों पर ऐसी फोटो खिंचवाते हैं, जिससे उन्हें लोगों के उल्टे सीधे कमेंट मिलें। कई बार नए लुक पर बेहद अजीब कमेंट भी मिलते हैं। इस ट्रेंड में लड़के लड़कियां दोनों शामिल हैं। भले ही इसे उनका शौक कहा जाए या फिर आपको खुद से जोड़ने का तरीका लेकिन ऐक्टिविस्ट हमेशा इंटरनेट की मदद से आपको अपना फैन क्लब जोड़ने की रिक्वेस्ट भेजते रहते हैं। इस तरह वे अपना नेटवर्क बढ़ाना चाहते हैं। यही वजह है कि किसी भी ऐक्टिविस्ट की फ्रेंड्स लिस्ट में आपको ३०० से कम फ्रेंड्स नहीं मिलेंगे। कहा जा सकता है कि ऐक्टिविस्ट के लिए इंटरनेट किसी वरदान से कम नहीं।

बच्चों को बड़ा बनाया

इंटरनेट ज्ञान का भंडार है लेकिन इसका एक ऐसा स्याह पहलू है जो छोटी उम्र के बच्चों के सामने सेक्स संबंधी रहस्य उजागर कर रहा है। यह हमारे सामाजिक परिवेश में अब तक ढंके छिपे रहे हैं। इन्हें एक उम्र से पहले जानना समाज और बच्चे दोनों के लिए घातक हो सकता है। राजधानी के मनोचिकित्सक कहते हैं कि एक विषय के रूप में यौन के प्रति जिज्ञासा होना कोई नई या असामान्य बात नहीं है लेकिन इस विषय पर जानकारी उम्र के लिहाज से दी जानी चाहिए। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले बच्चों के सामने ऐसी कोई बंदिश नहीं होती। यौन संबंधी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल धीरे-धीरे आदत में तब्दील हो जाता है। मनोचिकित्सक और यौन मामलों के जानकार कहते हैं कि आदमी का दिमाग हर दबी छिपी चीज के बारे जानना चाहता है। उसे चीज से जितना दूर रखा जाता है वह उसके और करीब जाने के लिए ललचाता है। डाक्टर कहते हैं कि इंटरनेट पर सेक्स से जुड़ी चीजों की सहज उलब्धता और उन तक बच्चों की बेरोक टोक पहुंच इस नए चलन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सबसे ज्यादा गंभीर बात यह है कि अभिभावक बच्चों की इस आदत को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। समाज में अलग थलग रहने की प्रवृत्ति और उनकी व्यस्त दिनचर्या भी इसकी प्रमुख वजह है। हालांकि मां-बाप लापरवाही के कारण बच्चे की इस आदत की ओर ध्यान नहीं देते। विषय की गंभीरता को देखते हुए उन्हें बढ़ते बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और बदलते परिवेश में उनकी जिज्ञासाओं को शांत करना चाहिए। इस इंद्रजाल के बच्चों के कोमल मन पर पड़ने वाले असर के बारे में डाक्टर कहते हैं कि इंटरनेट पर उपलब्ध सेक्स संबंधी जानकारियों का स्वरूप ऐसा है कि बच्चे उसे समझने के लिए मानसिक तौर पर सक्षम नहीं हैं। वहां मिलने वाले अधकचरे ज्ञान का उन पर बुरा असर पड़ सकता है। वह सेक्स के बारे में गलत छवि बना सकते हैं। इसके लिए यौन शिक्षा बहुत जरूरी है लेकिन उसका उचित माध्यम होना जरूरी है। स्कूलों में बच्चों की काउंसलिंग का इंतजाम होना चाहिए। अभिभावक और शिक्षकों का भी इस विषय पर एक दूसरे से समन्वय हो।

Monday, February 1, 2010

कांग्रेस चली मनसे की राह

टैक्सी चालकों के बारे में किया गया महाराष्ट्र सरकार का फैसला आर्थिक, सामाजिक और संवैधानिक स्तर पर भी गलत है। इस फैसले से क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है। इस फैसले से स्पष्ट है कि कुछ राजनीतिक दल संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए इसके माध्यम से क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार का यह फैसला साफ तौर से जाहिर है कि उत्तर भारतीयों के खिलाफ है जो मुुंबई में टैक्सी चलाने के पेशे में काफी संख्या में हैं। महाराष्ट्र सरकार ने मराठी भाषा की जानकारी को अनिवार्यता व कम से कम १५ साल महाराष्ट्र में रहने की अवधि को अनिवार्य करार देकर उत्तर भारतीयों के अधिकारों का हनन किया है।जाहिर है कि अभी तक काम चलाउ मराठी जानने वालों को ही टैक्सी चालक का परमिट दे दिया जाता था। लेकिन सरकार ने यह निर्णय करके शिव सेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसे संगठनों का ही समर्थन किया जो सदैव से ही उत्तर भारतीयों के खिलाफ रहते हैं। महाराष्ट्र सरकार का यह कदम उन्हें तात्कालिक राजनैतिक लाभ तो पहुंचा सकता है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम पार्टी के खिलाफ हो जाएंगे। हालांकि इस फैसले के भारी विरोध को देखते हुए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने बयान से मुकरते हुए यह कहा कि परमिट उन्हीं टैक्सी वालों को दिया जाएगा जिन्हें क्षेत्रीय भाषओं का ज्ञान होगा।जाहिर है कांग्रेस से एनसीपी गठबंधन की सरकार ने मराठी मानुस को खुश करने के लिए मनसे की राह पकड़ ली है। महाराष्ट्र सरकार ने फैसला लिया है कि अगर किसी व्यक्ति को महाराष्ट्र में टैक्सी चलाने के लिए परमिट चाहिए तो उसको यहां का १५ साल का आवास प्रमाण पत्र देना होगा। परमिट उन्हीं को मिलेगा जो मराठी लिख, बोल और पढ़ सकते हैं। महाराष्ट्र सरकार ने यह फैसल गत दिनो हुई कैबिनेट बैठक में लिया। इस फैसले से उत्तर भारतीय टैक्सी चालकों की मुश्किलें बढ़ेंगी।मनसे ने मराठी मानुस के नाम पर अपनी राजनीति की शुरुआत मुंबई में उत्तर भारतीय टैक्सी चालकों की बेरहमी से पिटाई करके और टैक्सियों को जलाकर की थी। अब महाराष्ट्र सरकार ने मराठी मानुस को खुश करने के लिए टैक्सी परमिट के लिए नया फरमान जारी किया। यह नियम फिलहाल उस टैक्सी चालकों पर लागू होगा जो परमिट लेकर टैक्सी चला रहे हैं। नए टैक्सी परमिट के लिए नया नियम लागू होगा। सरकार ने हर साल ४००० टैक्सी परमिट देने की घोषणा की है, जो नए नियम के आधार पर मिलेंगे। जहां तक भाषा का प्रश्न है इसे लेकर विवाद सही नहीं है। एक ड्राइवर से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह उस क्षेत्र की भाषाओं को जरूर समझे जहां वह टैक्सी चलाता है। अगर ऐसा नहीं होगा तो उसका अपने पेशे से जुड़े रहना कठिन हो जाएगा। इसलिए मुंबई या महाराष्ट्र के किसी अन्य हिस्से में टैक्सी चलाने के लिए मराठी की इतनी समझ जरूरी है कि ड्राइवर अपनी सवारियों से आसानी से संवाद कर सकें, ठीक वैसे ही जैसे कामनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली के टैक्सी चालकों के लिए अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान अपेक्षित होगा। डोमिसाइल की शर्त हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। आज जब ग्लोबलाइजेशन के दौर में राष्ट्रों तक की सीमाएं शिथिल हो चुकी हों तो भारत के एक महत्वपूर्ण राज्य में यह विवाद उठना चिंताजनक है। यूरोपीय यूनियन ने इसकी नायाब मिसाल पेश की है।देश के विभिन्न राज्यों में आवागमन और रोजगार करने पर रोक लगाना या उसे हतोत्साहित करना कहीं से भी समझदारी नहीं है। राज्य सरकार टैक्सी परमिट या अन्य मामलों में व्यापक नजरिए का परिचय दे सकती है। यदि महाराष्ट्र सरकार ने क्षेत्रीयता फैलायी तो अन्य राज्य सरकारें भी ऐसा कर सकती हैं। महाराष्ट्र खास कर मुंबई में चचा-भतीजे की जोड़ी उत्तर भारतीयों खास तौर से गरीब टैक्सी चालकों पर लट्ठ बरसाने की तैयारी में एक बार फिर जुट गयी हैं। अब राज के गुंडे सड़कों पर फिर वही दृश्य दोहराएंगे जो करीब डेढ़ साल पहले दिखा चुके हैं। आग तो पहले से ही लगाई जा रही थी जब राज ठाकरे ने धमकी दी थी कि सरकार इस साल के ४५०० टैक्सी परमिट सिर्फ मराठियों को दे वरना सड़कों पर नान मराठियों की टैक्सी चलाने नहीं दी जाएगी। इस आग को सरकार के मुखिया अशोक चव्हाण ने भी हवा दे दी। दिल्ली से जब अशोक चव्हाण से स्पष्टीकरण मांगा गया तो वह अपने बयान से मुकर गए। वे बोले 'टैक्सी चालकों के लिए स्थानीय भाषा आनी चाहिए, चाहे वह मराठी हो या हिंदी व गुजराती।' कांग्रेस ने भी ऐसी ही दलील दी।महाराष्ट्र में ऐसा कानून इक्कीस साल पुराना है पर चचा भतीजा इतने में कहां मानने वाले। चचा लंबे समय से कुर्सी से महरूम तो भतीजा पहली बार तेरह सीटें जीतकर नशे में चूर है। हिंदी के खिलाफ राज ठाकरे का एपीसोड तो अबू आजमी के साथ विधानसभा में हो चुका है। चालीस साल पहले चचा ने जो दक्षिण भारतीयों के खिलाफ किया वही उत्तर भारतीयों के खिलाफ राज ठाकरे अपना रहे हैं। कांग्रेस ने भी ठाकरे परिवार में फूट का फायदा उठाया। उसे इसका फायदा भी हुआ। पर अशोक चव्हाण का बयान ऐसा है कि इससे आम आग भड़केगी ही। राज का नाटक अभी बाकी है। कांग्रेस तो महाराष्ट्र में राज ठाकरे के क्षेत्रीय भंवर में उलझ ही चुकी है। यही हाल बीजेपी का भी। नितिन गडकरी फिलहाल संभल संभल कर बोल रहे हैं पर टैक्सी परमिट मामले में बीजेपी की सहयोगी शिवसेना की भाषा राज जैसी ही है। खुद उद्धव मुंबई में आने जाने वालों के लिए भी परमिट की पैरवी कर चुके हैं। अब टैक्सी परमिट हो या महाराष्ट्र में घुसने का परमिट बात तो दोनों ही गलत है।

नहीं रहे छोटे लोहिया

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जनेश्वर मिश्र नहीं रहे। जनेश्वर मिश्र सपा के लो-प्रोफाइल लेकिन बेहद सम्मानित नेता थे। राजनीतिक हलकों में छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर मिश्र का जन्म ५ अगस्त १९३३ को बलिया के शुभनथही गांव में हुआ था। उन्होंने समाजवाद की दीक्षा डाक्टर राम मनोहर लोहिया व राजनारायण जैसे प्रखर समाजवादी नेताओं से ग्रहण की। १९६९ के फूलपुर उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस के केशवदेव मालवीय को हरा कर सनसनी फैला दी थी। इसी सीट से उनके राजनीतिक गुरु डाक्टर राम मनोहर लोहिया १९६२ में नेहरूजी से हार गये थे। उत्तर प्रदेश की फूलपुर सीट शुरू से ही नेहरूजी की सीट मानी जाती रही है। यहां से जीतना किसी के लिए भी सम्मान की बात हो सकती है। बाद में उन्होंने एक चुनाव में वी.पी.सिंह जैसे राजनीतिक धुरंधर को भी हराया था। डाक्टर लोहिया के समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आरंभ किये गये अंग्रेजी हटाओ आंदोलन की अगुवाई की थी। लोहिया को उनके शिष्यों ने अलग-अलग तरीकों से याद किया है किंतु जनेश्वर मिश्र का अंदाज सबसे निराला था। उनकी नयी दिल्ली स्थित कोठी पर साइन बोर्ड लगा है 'लोहिया के लोग'। सचमुच उनका घर हमेशा लोहिया के शिष्यों के लिए खुला रहा। समाजवादियों में एक अवगुण आम तौर पर देखा गया है। वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा महत्व को सैद्धांतिक मतभेद का नाम देकर कई बार विभिन्न गुटों में बंटे, पुरानी पार्टी छोड़ी व नयी पार्टी बनायी लेकिन जनेश्वर मिश्र ने ऐसा कभी नहीं किया। वे जिसके साथ भी रहे खुल कर उसका साथ दिया। कभी व्यक्तिगत की टकराहटों को उन्होंने राजनीतिक रंग देने की कोशिश नहीं की। अव्वल तो वे किसी से नाराज नहीं होते थे, यदि कोई बात होती भी थी तो वे उसे पार्टी फोरमों पर ही उठाते थे। डाक्टर लोहिया की मृत्यु के बाद वे राजनारायण के सहयोगी के रूप में सक्रिय रहे। जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया तो वे उनकी पार्टी में शामिल हो गये। वे सपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक थे। सपा के प्रत्येक आंदोलन में उन्होंने शिरकत की। इसे संयोग ही कहेंगे कि जब वे आखिरी बार बीमार पड़े व अस्पताल में भर्ती हुए, वह सपा के प्रदेशव्यापी आंदोलन का इलाहाबाद में नेतृत्व कर रहे थे। वे भी अन्य पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह गिरफ्तारी देने के लिए आगे बढ़े लेकिन पुलिस ने खराब स्वास्थ्य के चलते उन्हें गिरफ्तार नहीं किया। समाजवाद के प्रति उनकी आजवीन आस्था बनी रही। इतनी लंबी राजनैतिक जिंदगी और बेदाग कट जाए यह किसे मयस्सर होती है लेकिन जनेश्वर मिश्र ने इसे सच कर दिखाया। वे तमाम गैर कांग्रेसी सरकारों में बतौर मंत्री शामिल रहे लेकिन उन्हें सत्ता का मद कभी नहीं हुआ। वे आम जनता से सीधे जुड़े रहे। छात्रों व नौजवानों में वे बेहद लोकप्रिय थे। सपा का थिंक टैंक माना जाता था उन्हें। इलाहाबाद जैसे राजनैतिक रूप से सक्रिय और जागते हुए शहर की वह संभवतया आखिरी कड़ी माने जा सकते हैं। वह शहर जिसने राजनीति में नेहरूजी, शास्त्रीजी, इंदिराजी, हेमवती नंदन बहुगुणा, वी.पी.सिंह केशवदेव मालवीय, डाक्टर राम मनोहर लोहिया, राजनारायण,एन डी तिवारी व सत्य प्रकाश मालवीय सरीखे नेताओं को पहचान दी। इसी इलाहाबाद में आखिरी सांस ली जनेश्वर मिश्र ने।उन्होंने हमेशा मूल्यों पर आधरित राजनीति की। वे अपने प्रबल विरोधियों के प्रति भी कभी असंसदीय टिप्पणी करके उन्हें आहत नहीं करते थे। राजनीति में अजातशत्रु माना जा सकता है उन्हें। समाजवादी पार्टी ने दिवंगत नेता के प्रति सम्मान जताने के लिए न सिर्फ अपने प्रदेश मुख्यालय का झंडा झुका दिया बल्कि सैफई में चल रहे सैफई महोत्सव को भी समाप्त घोषित कर दिया। सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का कहना था कि जनेश्वर मिश्र के निधन से राजनीति के एक शानदार युग का अंत हो गया। आज जब मूल्यों पर आधरित सिद्धांतों की राजनीति करने वाले चंद लोग ही बचे रह गये हैं, ऐसे में जनेश्वर मिश्र का चले जाना लंबे समय तक सालता रहेगा।

...अब मोदी के अंगने में

अब अमिताभ बच्चन कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के बाद वे गुजरात का प्रचार करेंगे। दूसरी तरफ मोदी कह रहे हैं वे अमिताभ की फिल्मों को प्रमोट करेंगे। कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन पैसे के वास्ते कुछ भी कर सकते हैं। पहले वे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के लिए कुछ भी करते देखे गए। अब जब उत्तर प्रदेश में सपा का ही ठिकाना नहीं रहा तो उन्होंने गुजरात को अपना नया ठिकाना नरेंद्र मोदी के सहयोग से बनाया है। बिग बी का रिकार्ड ब्रांड एम्बेसेडर के मामले में ज्यादा अच्छा नहीं रहा। सपा के राज्य में जब वे उत्तर प्रदेश के ब्रांड एम्बेसेडर थे तो माल राज्य सरकार के खजाने से जाता था और काम सपा का होता था, मार्फत अमर सिंह। उस समय उनकी ये सूक्ति भी प्रसिद्ध हुई थीं उत्तर प्रदेश में दम है, अपराध यहां पर कम है वैसे अपराध उत्तर प्रदेश में मालिक की दया से कभी कम नहीं हुए , बाद में जब चुनाव हुए तो पता चला कि उत्तर प्रदेश में दम है और समाजवादी पार्टी यहां सबसे कम है। अब तो स्थिति यह है कि कांग्रेस से भी कम। समाजवादी पार्टी टूट कर बिखरती जा रही है इसीलिए अमिताभ बच्चन ने भी अपने लिए नया प्रदेश ढूंढ़ लिया। वे गुजरात के ब्रांड एंबेसेडर बन गए। इतना ही नहीं कह रहे हैं कि बिना तनख्वाह के काम करेंगे? किसी समय उन्हें जो गुण मुलायम सिंह यादव में नजर आते थे वे सारे गुण उन्हें अब नरेन्द्र मोदी में दिखाई दे रहे हैं। मोदी ने फिल्म 'पा' से मनोरंजन कर हटा लिया। मोदी लगातार जीतते चले आ रहे हैं, प्रदेश में उनकी तूती बोल रही है। राजनीतिक गलियारे में कहा जा रहा है कि ऐसे संत को क्यों न्योतना जो जिस जगह भी पैर धरता है, बंटाधार कर देता है। अमर सिंह को हर सभा में भीड़ की गारंटी के लिए सिनेमा का सितारा चाहिए। नरेन्द्र मोदी तो गुजरात के सबसे बडे़ सितारे हैं। अमिताभ बच्चन कलाकार हैं। पिछले ४० वर्षों में जब भी अमिताभ बच्चन ने अपने आपको कलाकार कहा, लोगों को लगा कि वे उतने ही म.जबूत होंगे जितना कि एक बड़ा कलाकार होता है लेकिन टेलीवि.जन पर उनको नरेंद्र मोदी के सामने जिसने भी झुकते देखा लगा कि अब तक सभी गलत थे। 'पा' को मनोरंजन कर से रियायत दिलवाने के लिए वे किस मुकाम तक जा सकते हैं, वह भी दुनिया ने देख लिया। नरेंद्र मोदी की शान में अमिताभ बच्चन ने जिस तरह से कसीदे पढ़े उस से साफ़ लग गया कि अब गुजरात में भी वही सब होगा जो कभी उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने तो इस पर यहां तक कह दिया था कि 'मुलायम सिंह मेरे पिता हैं।' बीजेपी के नेता राजनाथ सिंह ने कहा था कि जीव विज्ञान के विद्वानों को यह पता करना चाहिए कि क्या बाप बेटे की उम्र में केवल चार साल फर्क हो सकता है। बहरहाल अब मुलायम सिंह सत्ता में नहीं हैं और जिस तरह से उनकी पार्टी चल रही हैं, सत्ता में बहुत दिनों तक आने की उम्मीद नहीं है। जब १८५७ में दिल्ली उजड़ गयी थी तो बड़ी संख्या में कलाकारों ने रामपुर और हैदराबाद को अपना ठिकाना बना लिया था। अब जब अमर सिंह भी सपा के खिलाफ हो गए तो अमर सिंह के कलाकार साथी अपने लिए नए ठिकाने ढूंढ़ रहे हैं। जहां तक मुलायम सिंह यादव का सवाल है, अमिताभ बच्चन को अहमियत देकर उन्होंने अपनी पार्टी के जनाधार को लगभग समाप्त कर दिया। मुलायम सिंह यादव ने अमिताभ बच्चन के परिवार के लिए जो किया, वह उन दिनों सबको अजीब लगता था. बाराबंकी .जमीन विवाद तो दुनिया जानती है। अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन को उत्तर प्रदेश में वह मुकाम दे दिया गया था जो समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं तक को सपने में भी हासिल नहीं था। मौजूदा राजनीतिक समीकरणों पर न.जर डालें तो ऐसा लगता है कि आने वाले कई वर्षों तक मुलायम अमिताभ बच्चन को वह सारी सुविधाएं देने की स्थिति में नहीं रहेंगें। .जाहिर है कि उन सुविधाओ के लिए नयी जगह की तलाश शुरू हो चुकी है। वही तलाश अमर सिंह भी करते नजर आ रहे हैं। अमिताभ बच्चन के रिश्ते नेहरू -गांधी परिवार से बहुत खराब हैं, लिहा.जा वहां तो प्रवेश संभव नहीं था। मोदी का राज्य अमिताभ बच्चन की कर्मभूमि के करीब भी है। मोदी भी तैयार हो गए। उनकी राजनीतिक हैसियत भी ऐसी है कि वे अपनी पार्टी में जो चाहें कर सकते हैं। वे अमिताभ बच्चन के परिवार को वह राजनीतिक संरक्षण उपलब्ध करवा सकते हैं। लेकिन क्या भाजपा में अमिताभ बच्चन के लिए बिछ रही लाल कालीन को हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, शत्रुध्न सिन्हा जैसे सितारे बर्दाशत करे सकेंगे।

एक युग का अंत

ईश्र्वरीय सत्ता के बजाय यथार्थवाद में विश्वास करने वाले ज्योति बसु ने वामपंथ को इस तरह से आत्मसात किया कि वह उसका पर्याय बन गए। वह देश में इकलौते ऐसे राजनेता थे जिसके पीछे सत्ता चलती थी। उन्होंने जब तक चाहा पश्चिम बंगाल पर राज किया और जब चाहा तब सत्ता को स्थानांतरित कर दिया। ज्योति बसु की ज्योति बंगाल में इस तरह से फैली कि पश्चिम बंगाल की मौजूदा राजनीति का मतलब ज्योति बाबू से ही लिया जाता था। पश्चिम बंगाल को ज्योति बसु के रूप में ऐसा मुख्यमंत्री मिला जिसे दुनिया ने कभी गलती करते नहीं देखा। देश जब उनकी जन्म शताब्दी मनाने की तैयारी कर रहा था तब उन्होंने नश्र्वर शरीर का साथ छोड़ दिया और उस ईश्र्वरीय सत्ता में विलीन हो गए जिस पर जीते जी विश्र्वास जताने के बजाय उन्होंने यथार्थवाद को महत्व दिया था। ज्योति बसु के निधन के साथ ही देश में वामपंथी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया। उनके निधन से पैदा हुए शून्य को भर पाना शायद ही संभव हो। ज्योति बसु पक्के कम्युनिस्ट थे। सम्पूर्ण कम्युनिस्ट। ईश्वरीय सत्ता में आस्था रखने वाले नहीं थे वे। उनकी आस्था थी यथार्थवाद में। शायद यही कारण था कि वामपंथ को उन्होंने न सिर्फ पढ़ा या माना, बल्कि पूरी तरह आत्मसात भी किया। बसु ने लंदन के मिडिल टेंपल में वकालत त्याग कर राजनीति को अपनाया और वह लगभग छः दशक तक देश के राजनीतिक परिदृश्य पर छाये रहने वाले एक ऐसे करिश्माई व्यक्तित्व थे, जिन्हें दलगत भावना से उपर उठकर सभी नेताओं ने भरपूर सम्मान दिया। कुछ लोग ज्योति बसु को बहुत ही भाग्यशाली मानते थे क्योंकि .जिंदगी में हमेशा उन्हें महत्व मिला। संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी में तो बी.टी.रणदिवे, श्री पाद अमृत डांगे, अजय बोस, सी.पी. जोशी, जेङ ए. अहमद जैसे कई बड़े नेता हुए लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वे सबसे बड़े और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे।भारतीय राजनीति के निराले व्यक्तित्व ज्योति बसु ने अपने पहला चुनाव १९४६ में लड़ा । इस चुनाव में उन्होंने प्रोफेसर हुमायूं कबीर को हराया जो मौलाना आ.जाद के बहुत करीबी थे। बाद में वे नेहरू जी की मंत्रिपरिषद में मंत्री भी बने। उसी वक़्त से वे बंगाल के नौजवानों के हीरो बन गये। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने बेशुमार बुलंदियां तय कीं जो किसी भी राजनेता के लिए सपना हो सकता है। १९७७ में कांग्रेस की पराजय के बाद उन्हें पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनाया गया। जब शरीर कम.जोर पड़ने लगा तो उन्होंने अपनी मर्जी से गद्दी छोड़ दी और बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उनका जीवन एक खुली किताब है। मुख्यमंत्री के रूप में उनका सार्वजनिक जीवन हमेशा कसौटी पर खरा उतरा। उनको कभी किसी ने कोई गलती करते नहीं देखा, न ही सुना। १९९६ की वह घटना दुनिया जानती है जब वे देश के प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार बन गए लेकिन दफ्तर में बैठ कर राजनीति करने वाले माकपा नेताओं ने उन्हें रोक दिया। अगर ऐसा न हुआ होता तो देश देवगौड़ा को प्रधानमंत्री के रूप में न देखता। बहरहाल बाद के वक़्त में यह भी कहा गया कि यह मार्क्सवादियों की ऐतिहासिक भूल थी।वर्ष १९७७ में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार के अगुआ के रूप में राज्य की सत्ता संभालने वाले बसु पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री पद पर रहे। गठबंधन की राजनीति के वे प्रथम सूत्रधार थे। जब उन्हें १९९६ में संयुक्त मोर्चा सरकार का प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया तो उनकी पार्टी ने इस पर सहमति नहीं जतायी।माकपा ने सत्ता में भागीदारी करने से इंकार कर दिया। इस पेशकश को स्वीकार नहीं करने पर बाद में बसु ने इसे ऐतिहासिक गलती करार दिया । पार्टी ने भी उनके इस िवचार को बाद में माना। बसु मार्क्सवाद में विश्वास करने के बावजूद व्यावहारिक नेता थे। पार्टी की कट्टर विचारधारा के बीच उन्होंने विदेशी निवेश और बाजारोन्मुख नीतियों को अपना कर अपने अदभुत विवेक का परिचय दिया था। इससे पूर्व पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार व सार्वजनिक वितरण प्रणाली को उन्होंने मजबूत किया। कुशल राजनीतिज्ञ, योग्य प्रशासक, सुधारवादी और अनेक मामलों में नजीर पेश करने वाले बसु को १९५२ से पश्चिम बंगाल विधानसभा की सदस्यता लगातार हासिल करने का श्रेय जाता है। इसमें केवल एकबार १९७२ में ही व्यवधान आया। बसु ने पंचायती राज और भूमि सुधार को प्रभावी ढंग से लागू कर निचले स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीकरण किया। ज्योति बसु ने १७ जनवरी २०१० को कोलकाता के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। एक जनवरी को उन्हें निमोनिया की शिकायत पर अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन पिछले उनके शरीर के अधिकांश अंगों ने काम करना बंद कर दिया था । उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया था। निधन के बाद उनका शरीर उनकी इच्छा के अनुरुप एक अस्पताल को दन दे दिया गया। ऐसा अप्रतिम उदाहरण कम नेता ही पेश कर पाते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने भी अपने कार्यकाल के दौरान बसु के कामकाज की सराहना की थी। बसु की पहल पर लागू किए गए भूमि सुधारों का ही नतीजा था कि पश्चिम बंगाल देश का ऐसा पहला राज्य बना, जहां फसल कटकर पहले बंटाईदार के घर जाती थी। इस तरह वहां बिचौलियों की भूमिका खत्म की गई। बसु ने राज्य को एक मजबूत उद्योग नीति भी देने की कोशिश की लेकिन वे इसे अमल में न ला सके। उनके बाद जब बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पश्चिम बंगाल में आर्थिक निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए बेतहाशा राजनैतिक प्रयोग किये तो सिंगूर व नंदीग्राम जैसी लोमहर्षक वारदातें हुईं। ज्योति बसु के बेटे पश्चिम बंगाल के जाने-माने उद्योगपति हैं। साल्ट लेक में उनका विशाल आर्थिक साम्राज्य है। इसके बावजूद ज्योति बसु पश्चिम बंगाल में कम्युनिटों के पहले और आखिरी नायक थे। उन्होंने अपने बेटे का आर्थिक साम्राज्य बढ़ाने के लिए कभी अपनी अकूत सत्ता का दुरुपयोग नहीं किया। उनके कार्यकाल में पश्चिम बंगाल में कभी दंगा नहीं हुआ न ही साम्प्रदायिक विद्वेष उत्पन्न हुआ। उन्होंने केंद्र-राज्य संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने के लिए आवाज उठाई। इसके चलते अस्सी के दशक के अंत तक सरकारिया आयोग का गठन किया गया। उन्होंने गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को एकजुट कर केंद्र के समक्ष अपनी मांगे भी रखी थीं। बसु ने राज्य में लोकतंत्र के दायरे में रहते हुए पार्टी को मजबूत करने के लिए भी अपने सहयोगियों और कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया। १९७७ में मुख्यमंत्री बनने के बाद ज्योति बाबू के राजनैतिक जीवन में उतार के दौर कम ही आए। अब इसे ज्योतिषीय भाषा में उनकी कुंडली का महाबली होना कहिए उनके प्रारब्ध में चढ़ाव ही चढ़ाव लिखा होना कहिए या फिर उनकी प्रबल इच्छाशक्ति, जिस काम में भी उन्होंने हाथ डाला उससे पीछे कभी नहीं हटे। पश्चिम बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से सचेतन प्रदेश में विपक्ष का सफाया कर एकछत्र वामपंथी राज चलाने को इसके सिवा क्या कहा जाए। ज्योति बाबू जैसा दूरदर्शी प्रशासक कभी भी अपने फैसले से पीछे नहीं हटा। उन्होंने पार्टी नीतियों के खिलाफ मुंह न खोलने का व्रत हाल के वर्षों में ही तोड़ा। अपने उत्तराधिकारी बुद्धदेव भट्टाचार्य की किसानों की जमीन हड़पने की नीतियों और सिंगूर व नंदीग्राम में गोली चलाने की घटनाओं से वे बेहद खफा थे। यह बात उन्होंने कुछ बयानों के माध्यम से प्रकाश में भी लायी। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उनका यह बयान कि 'लोकसभा चुनाव में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा' अंततः सच साबित हुआ।

...दोस्त दोस्त न रहा

एक कहावत है राजनीति में स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं हुआ करते। अमर सिंह-मुलायम सिंह यादव के विवाद से इस कहावत को नया दृष्टांत प्राप्त हुआ है। मुलायम सिंह और अमर सिंह की दोस्ती राजनीति के सारे सिद्धांतों को तोड़ कर एक नए मुकाम पर जा खड़ी हुई थी। फिलहाल यह दोस्ती की डोर अब टूट चुकी है। इस राजनीतिक लड़ाई में कौन कौन खपेगा यह तो काल और परिस्थिति खुद तय कर देगी पर जिस तरह से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पार्टी के वरिष्ठ नेता अमर सिंह द्वारा दिए गए इस्तीफे स्वीकार करने के बाद कहा कि 'अमर सिंह की नीति और नीयत समाजवादी पार्टी को मजबूत करने और बढ़ाने की रही। हम उनके आभारी हैं और उनके संबंध में न कोई आलोचना की करुंगा और न ही कोई बुराई करुंगा।' इतना ही नहीं उन्होंने तो यह भी कहा कि 'सपा एक मेला है, मेले में लोगों का आना जाना लगा ही रहता है।' यह राजनीति का वह अध्याय है जो अमर सिंह और सपा के साथ जुड़ता है। अमर सिंह की राजनीतिक यात्रा को देखें तो पता चलता है कि उन्होंने जो भी राजनीतिक बुलंदी हासिल की उसमें सपा व मुलायम का बड़ा हाथ है।आजमगढ़ के अमर सिंह ने अपनी राजनीतिक यात्रा कोलकाता से शुरू की। उनकी राजनीतिक शुरुआत कांग्रेस से हुई। अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए कोलकाता आने वाले कांग्रेसी नेताओं की आवभगत करने में वे कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे। इसी आवभगत के दौरान उनकी जान पहचान पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय दिनेश सिंह के निजी सचिव से हुई। दिनेश सिंह के निजी सचिव से अमर सिंह की जब पहली मुलाकात हुई तो उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस के ताकतवर नेता अरुण कुमार सिंह 'मुन्ना 'भी साथ थे। इस माध्यम से अमर सिंह ने दिनेश सिंह के साथ नजदीकी बढ़ायी और दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में सक्रिय हो गए। इसी दौरान वे मशहूर उद्योगपति के.के. बिड़ला के नजदीक आए और उनके जनसंपर्क अधिकारी बन गए। इसके बाद अमर सिंह की राजनीतिक गतिविधियों को सभी जानते हैं।इसी दौरान उनका मुलायम सिंह यादव से परिचय हुआ। मुलायम पर उनका जादू कुछ इस तरह चला कि नेताजी के पुराने दोस्त भी पिछड़ गए। यह वही अमर सिंह हैं जिन्होंने १९९८ में एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की सरकार नहीं बनने दी। बाद में इन्हीं अमर सिंह ने परमाणु करार के मसले पर २००८ में मनमोहन सिंह की सरकार गिरने से बचायी। एक अहम सवाल अब भी राजनीतिक गलियारों में उठता रहता है कि आखिर अमर सिंह की राजनीति है क्या। क्या अमर सिंह ने जो मौजूदा गतिविधियां शुरू की हैं वह किसी खास दल के इशारे पर है। सवाल यह भी है कि कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव के नजदीक लाकर क्या अमर सिंह ने किसी दल की मदद की। शुरुआत काफी पहले हो चुकी थी। यह शुरुआत कहां से हुई सभी जानते है। समाजवादी पार्टी के कई नेता इस समय कांग्रेस में हैं। ये वही नेता हैं जो चंद्रशेखर से अलग होने के बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी के गठन के दौरान उनके सहयोगी थे। इसमें बेनी प्रसाद वर्मा और राज बब्बर प्रमुख मानें जा सकते हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं जोर पकड़ रही हैं कि अमर सिंह ने सारा कुछ उसी दल के इशारे पर किया। क्या सपा के अन्य प्रमुख नेताओं राज बब्बर व बेनी प्रसाद वर्मा की तरह अमर सिंह भी देर सबेर कांग्रेस में शामिल होंगे। लेकिन तब क्या कांग्रेस में घमासान नहीं मचेगा। अमर सिंह ने अभी सपा को अलविदा नहीं कहा है। वे अभी भी सामान्य कार्यकर्ता की हैसियत से इसी पार्टी में हैं। यह भी एक नया खेल है। संजय दत्त और जयाप्रदा खुल कर उनके साथ है। जया बच्चन भी साथ हैं। यानि कि फिल्म से जुड़े सपा के सभी नेता अमर सिंह के साथ हैं पर मुलायम सिंह के कई साथी अब उनके साथ नहीं हैं। इलाहाबाद के सांसद रेवती रमण सिंह सोनिया गांधी से मुलाकात कर आए हैं। सलीम शेरवानी ने यह मुलाकात कराई। कुछ अन्य सांसद बसपा के संपर्क में हैं। इधर अमर सिंह अपने ठाकुर राजनीति को भी सहारा देने की कोशिश में है। अमर सिंह अड़ गये हैं। वे कह रहे हैं कि पार्टी नहीं छोड़ेंगे बल्कि पार्टी ही खत्म कर देंगे। हाल ही में एक पत्रकार वार्ता में उन्होंने कहा कि वे सपा से बाहर नहीं जाएंगे। वे कहते हैं कि 'धक्के मारकर मुझे बाहर कर दो, मैं चला जाऊंगा। 'अमर सिंह काफी चालाक नेता माने जाते हैं तभी वह कह रहे हैं कि न तो सपा से बाहर जाएंगे और न ही नेताजी के खिलाफ कुछ बोलेंगे। वे कह रहे हैं कि मुलायमवादी होने की बजाय समाजवादी होना पसंद करेंगे। फिलहाल दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि अमर सिंह जिस काम के लिए सपा में प्लांट किये गये थे वह उन्होंने कर दिया। सपा से कल्याण सिंह को जोड़कर उन्होंने मुस्लिम मतों का बिखराव किया। मुस्लिम मतदाता अब शायद ही दोबारा सपा में लौटे। सपा से अलग होकर मुस्लिम मत किसकी झोली में गिरेंगे सभी जानते हैं। उत्तर प्रदेश में दूसरे नंबर की पार्टी बनने लिए सपा और कांग्रेस में जोर आजमाइश चल रही है। हो सकता है उत्तर प्रदेश में अगला विधानसभ्ाा चुनाव सपा और बसपा के बीच न होकर बसपा और कांग्रेस के मध्य लड़ा जाए। मुलायम सिंह की सबसे बड़ी चिंता यही है। इसलिए कल्याण के साथ भाईचारा पीछे छोड़ वे अपना राजनीतिक वजूद बचाने में लग गये हैं। इसकी शुरुआत भी मुलायम सिंह ने लखनऊ मे बसपा के खिलाफ आंदोलन तेज करते हुए दी।