Tuesday, June 29, 2010

रोचक हुआ राजनीतिक खेल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के दौरे ने बिहार की राजनीति को एक नया रंग दे दिया है। उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को लागू करने की घोषणा करके मायावती ने बिहार के अन्य राजनीतिक दलों में खलबली मचा दी है। मायावती के दौरे का असर साफ नजर आने लगा है। सभी राजनीतिक दल अपने अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने में जुट गए हैं। 
बसपा सुप्रीमों मायावती के दौरे का असर भाजपा -जदयू गठबंधन पर साफ दिखायी देने लगा है। भाजपा-जदयू गठबंधन में आयी दरार का मुख्य कारण बसपा सुप्रीमो मायावती के सफल दौरे को ही माना जा रहा है। मायावती की जनसभा में जुटी भारी भीड़ से अन्य दलों को यह आभास हो गया है कि दलित और मुस्लिम मतदाताओं के साथ-साथ सवर्ण मतदाताओं का रुझान भी बसपा की ओर बढ़ा है। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में बसपा को भले ही उत्तर प्रदेश की तरह अपेक्षित सफलता न मिले लेकिन बसपाके लिए  बिहार का चुनावी गणित काफी सक्षम प्रतीत हो रही है। 
हालांकि इससे पूर्व भी बिहार विधानसभा चुनाव में बसपा को कोई बड़ी सफलता हासिल नहीं हुई थी क्योंकि उन चुनाव में बसपा सिर्फ (वोट कटवा ) के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकी थी। लेकिन बसपा ने धर्मनिरपेक्ष मतों का जातिगत आधार पर बंटवारा करके धर्मनिरपेक्ष दलों को काफी नुकसान पहुंचाया था। बसपा के इसी रूप का लाभ भाजपा-जदयू गठबंधन को मिला था और बिहार में इस गठबंधन ने सत्ता संभाली थी। यह कहना उचित न होगा कि बसपा ही बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार बनाने में मदद की थी। क्योंकि पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की लोकप्रियता और जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद की अलोकप्रियता ने इस गठबंधन को सत्ता में पहुंचाया था। आगामी विधान सभा चुनाव में जहां इस गठबंधन को सत्ता में आने की चुनौती है वहीं लालू प्रसाद यादव और पासवान भी कांग्रेस को साथ लेकर सत्ता हासिल करने की चुनौती दे रहे हैं। जबकि उत्तर प्रदेश में बहुमत हासिल करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने बिहार की सत्ता हासिल करने का सपना संजोया है। 
बिहार के सभी राजनीतिक दल बसपा की उपस्थिति से अपनी-अपनी सफलताओं के प्रति चिंतित नजर आ रहे हैं।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  पर भी इस चिंता का असर साफ नजर आने लगा है। यही कारण है कि उन्होंने सांप्रदायिक शक्तियों से अपने को अलग करने का फैसला किया है। आमजनसभा में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्धारा दी गयी आपदा धनराशि को वापस करने की घोषणा को नीतीश कुमार की चुनावी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। नीतीश अपनी इस रणनीति से एक तीर से दो शिकार करना चाह रहे हैं। पहला यह कि नीतीश कुमार मुस्लिम मतदाताओं के बीच यह संदेश देना चाहते हैं कि उनका सांप्रदायिक शक्तियों से कोई लेना देना नहीं। वह मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी हैं। दुसरा यह कि उनकी सरकार ने अपने सहयोगी दल भाजपा के दबाव में कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे कि अल्पसंख्यक हितों की अनदेखी की जाएगी। नीतीश कुमार अपनी इस चाल से एक तरफ कांग्रेस, लालू-पासवान गठबंधन के मुस्लिम मतों में सेंध लगाने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बसपा के प्रति बढ़ते रुझान को भी रोकने का प्रयास कर रहे हैं। श्री कुमार अपनी इन राजनीतिक रणनीतियों के साथ-साथ अपने विकास कार्यों को प्रचारित प्रसारित करके अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बना रहे हैं। फिलहाल बिहार में बसपा की सक्रियता से चुनावी गणित काफी रोचक हो गया है। जहां राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, लोजपा अध्यक्ष रामविलाश पासवान, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व कांग्रेस की प्रतिष्ठा  दांव पर लगी हुयी है। हालांकि कांग्रेस अपनी नयी जमीन तलाशने के प्रयास में नए-नए प्रयोग कर रही है।
फिलहाल बिहार का चुनावी रंगमंच बनकर तैयार है। सभी किरदार अपनी बदली भूमिका में नजर आ रहे हैं। कौन किसको अपने गले लगाएगा और किसकी पीठ में खंजर चुभायेगा यह जानने में अभी वक्त लगेगा। लेकिन राजनीति के धुरंधरों की मांग बढ़ रही है। चौपालों और कस्बों में चुनावी चर्चा जोर पकड़ रही है। बहस का मुद्दा फिलहाल यही है कि नीतीश कुमार दुबारा सत्ता हासिल करेंगे या फिर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे की वापसी होगी। बसपा एवं सपा भी इस खेल को रोचक बनाने में जुटे हुए हैं।  इन सबसे अलग कांग्रेस अकेले दम पर ताल ठोंककर अपनी खोई जमीन वापस लाने को बेकरार है।

Monday, June 21, 2010

ट्वीट-ट्वीट

सेलेब्रिटी और उनकी निजी जिंदगी हमेशा से लोगों के आकर्षण का केंद्र रही है। आम लोग जिसे पर्दे पर ऐक्ट करते या दूर मैदान में खेलते देखते हैं उनके साथ होने का कोई मौका भला कैसे छोड़ सकते हैं। उसके सामने आने पर वे धक्का मुक्की तक कर बैठते हैं पर ट्विटर की आभासी दुनिया में यह परेशानी नहीं है।
फॉलोअर्स में सेलेब्रिटी के नजदीक बने रहने का मनोविज्ञान काम करता है लेकिन यहां भी वे अपनी प्राइवेसी में आपको उतना ही शामिल करते हैं जितने से आप उनके लिए परेशानी का सबब न बनें। वे कहेंगे लोग सुनेंगे। झूमेंगे या सिर धुनेंगे। कुछ मामलों में इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए ट्विटर पर सचिन के आह्वान पर बड़े से बड़ा कंजूस भी कैंसर के लिए अपनी गांठ खोल बैठा और कुछेक घंटों में ही साठ लाख से ज्यादा रुपये इकट्ठा हो गए! यह सेलेब्रिटी ट्विट की महिमा है।
भारत में ट्विटर सुखिर्यों में आया पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर की ट्विट्स से। सिर्फ १४० अक्षरों के कुछ ट्विट्स ने यूपीए सरकार के लिए परेशानियों के कई अवसर जुटा दिए। इसी ट्विटर ने आईपीएल में भ्रष्टाचार मामले को गर्माया और पहले थरूर और बाद में आईपीएल चीफ ललित मोदी को अपने अपने पदों से हाथ धोना पड़ा। अब कोई सेलेब्रिटी किसी मसले में अपने को घिरा हुआ पाता है तो तत्काल ट्विटर पर सफाई पेश करने में जुट जाता है। आप पाएंगे कि ट्विटर पर इस मकसद से इंट्री मारने वाले सेलेब्रिटी की तादाद उसके रेग्युलर ट्विट करने वालों से कहीं ज्यादा है। उन्हें तवा गर्म होने का इंतजार रहता है। वह गर्म हुआ नहीं कि वे रोटी सेंकने बैठ जाएंगे। अक्सर आलोचना झेलने वाले गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी की हालिया ट्विट इसका एक प्रमाण है। उन्होंने लिखा है कि एनडीटीवी ने देश भर में ३४ हजार लोगों का सर्वे किया। ८५ फीसदी लोगों ने माना कि मैं बेस्ट परफॉमिर्ंग सीएम हूं। उधर पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ट्विटर जॉइन कर चिदंबरम को न्यौत रहे हैं। शाहरुख खान ट्वीट करते हैं काफी दिनों बाद आइसक्रीम खाई। कहा जाता है कि यह सर्दी जुकाम के लिए बेहतर है। उनके फॉलोअर्स इस बात पर अनेक तरह से रायशुमारी करते हैं। बिग बी यानि अमिताभ बच्चन ट्वीट करते हैं और उनके प्रशंसक उस पर प्रतिक्रिया करते हैं। आज कल सेलेब्रिटी से लेकर आम आदमी तक ट्वीट कर रहा है। हालांकि ट्वीट से कुछ लोगों को नुकसान भी उठाना पड़ रहा है पर इसका नशा ही कुछ ऐसा है कि लोग ट्वीट करने से बाज नहीं आते। शाहरुख सेलेब्रिटी हैं इसीलिए उनके आइसक्रीम खाने से लेकर अपनी बच्ची को स्वीमिंग के लिए ले जाने जैसी मामूली बातों में भी हमारी रुचि है। हमारा आपका जीवन इतना मामूली है कि उसमें बहुत खास मौकों पर भी आप ट्विटर पर कुछ लिखें तो वह बात आपके आठ दस दोस्तों के बीच घूम फिर कर खत्म हो जाएगी। हालांकि ट्विटर पर अकाउंट खोलना बाएं हाथ का खेल है लेकिन यह तथ्य है कि यह हमारे आपके नहीं, सेलेब्रिटीज के काम की चीज बन गई है। आप क्या कर रहे हैं, क्या खा रहे हैं, किससे मिल रहे हैं या आपके गर्लफ्रेंड/बॉयफ्रेंड कौन हैं जैसे सवालों के जवाब में यदि आप की जगह दीपिका पादुकोण को रख दिया जाए तो उसमें लोगों की दिलचस्पी अचानक बढ़ जाती है।
विभिन्न क्षेत्रों के सेलेब्रिटीज के इस नये प्रेम पर गहराई से विचार करें तो कुछ और बातें भी साफ होती हैं। ऐसे वक्त में जब अफवाह, गलतबयानी और गॉसिप को बड़े ध्यान से सुना जाता है, स्टार्स इसका अपने हक में इस्तेमाल न करें, यह असंभव है। आश्चर्य नहीं कि ट्विटर के पहले और इसके समानांतर भी बॉलिवुड में गॉसिप का अच्छा खासा बाजार रहा है। एक आंकलन के मुताबिक स्टार्स और फिल्म मेकर्स ऐसी गॉसिप को प्लांट करने के लिए सालाना १५ से २५ करोड़ की रकम खर्च करते हैं। ऐसे में ट्विटर उनके लिए एक सुविधाजनक यंत्र की तरह उभरा है। अपने फैंस और फॉलोअर्स तक ऐसी गॉसिप को पहुंचाने के लिए पहले जहां वे मीडिया के विभिन्न माध्यमों का सहारा लेते थे, ट्विटर के जरिए अब वे सीधे उन तक पहुंच रहे हैं। उन्हें किसी बात को खासो आम तक पहुंचाने के लिए इंतजार नहीं करना है। वे अपनी सुविधा और शर्तों पर ट्वीट कर रहे हैं। इस तरह उनकी पीआर अपने आप हो रही है और उनके मन से यह डर भी जाता रहा है कि उनकी बातों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाएगा।
ट्विटर में जिस मिजाज की बातें लिखी जाती हैं, उसका फायदा यह भी है कि विवाद होने पर उससे आसानी से पल्ला झाड़ा जा सकता है। कोई भी सेलेब्रिटी आसानी से यह कह कर विवाद को खारिज कर सकती है कि अरे वह तो बेहद हल्के फुल्के ढंग से उसने ऐसा कहा था लेकिन दूसरी तरफ इसी की आड़ में दूसरों पर फब्ती भी कसी जा सकती है, अपने दाग धब्बे धोए जा सकते हैं। जहां स्टार्स की जिंदगी को हसरत भरी निगाहों से देखने और वैसी ही जिंदगी बसर करने का ख्वाब देखने वालों की तादाद बढ़ी है, वहां स्टार की इमेज का भी महत्व होगा ही। रितिक रोशन शिरडी में बदसलूकी करते हैं और ट्विटर पर आकर उसके लिए अफसोस जाहिर करते नजर आते हैं। इन सबके बीच एक्ट्रेस मिनीषा लांबा की ताजा ट्विट काबिले गौर है ट्विटर से बोर हो रही हूं।

सकते में राजनीति

छोटे दल इतने खतरनाक हो सकते हैं। सभी राष्ट्रीय दलों इसका एहसास उत्तर प्रदेश में होने लगा है। दो साल पूर्व गठित पीस पार्टी आफ इंडिया ने डुमरियागंज विधानसभा उप चुनाव में अपनी दमदार उपस्थिति से राष्ट्रीय दलों को जिस तरह चौंकाया, उससे स्पष्ट है कि आगामी विधानसभा चुनाव में तमाम छोटे राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। हालांकि डुमरियागंज विधानसभा उप चुनाव में बसपा को सफलता मिली है और पीस पार्टी के बढ़ते प्रभाव का उस पर असर नहीं दिखाई दिया है। फिर भी इस चुनाव में पीस पार्टी न सिर्फ नंबर दो पर रही, बल्कि सपा और कांग्रेस को चौथे और पांचवे स्थान पर धकेलने में सफल पीस पार्टी रही।
एक ऐसा राजनीतिक दल न जिसका जन्म ही दो साल पहले हुआ हो इतने अल्पसमय हो, उसने, उपचुनाव में सपा, भाजपा और कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। उसने शैशव काल में ही दिग्गज राजनीतिक दलों को झटका देते हुए अपनी प्रभावशाली उपस्थिति का अहसास करा दिया। हालांकि पीस पार्टी मुख्य रूप से मुस्लिम संगठन माना जाता है लेकिन उसने डुमरियागंज विधानसभा उपचुनाव में एक ब्राहमण प्रत्याशी को मैदान में उतारकर मुस्लिम-ब्राहमण का समीकरण बनाया व सपा और कांग्रेस को पीछे धकेल दिया। सफलता बसपा को जरूर मिली लेकिन १७.७ प्रतिशत मत प्राप्त करके पीस पार्टी ने अन्य दलों को सदमें में डाल दिया। कांग्रेस जैसी पार्टी को पांचवा स्थान मिलना उसे फिर से सोचने पर मजबूर करता है। यह कांग्रेस के लिए झटका कहा जा सकता है क्योंकि उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए वह राहुल गांधी के नेतृत्व में सरकार बनाने का दावा कर रही थी।
राजनीतिक विश्लेषक इन परिणामों को कांग्रेस के मिशन २०१२ के लिए शुभ संकेत नहीं मानते। उनका कहना है कि यह सच है कि जनता कांग्रेस को एक बार फिर पसंद कर रही है लेकिन जहां पर स्थानीय मुद्दों की बात होती है वहां अभी भी लोग छोटे दलों पर निर्भर हैं। इन राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो जिस तरह से कभी समाजवादी पार्टी ने यादव, मुस्लिम और ब्राहमण गंठजोड़ से प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाया था और बहुजन समाज पार्टी ने ब्राहमण, मुस्लिम व पिछड़ी जातियों के बूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी वैसा करिश्मा छोटे दल शायद ही कर सकें लेकिन वे बड़ी पार्टियों का गड़ित जरूर बिगाड़ सकते हैं। इसी फलसफे के आधार पर पीस पार्टी प्रदेश में जनाधार बढ़ाने का काम कर रही है।
हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी के बढ़ते प्रभाव से सांप्रदा विकल्प मतों के बढ़ने का भी खतरा बढ़ गया है। इसका अंदाजा डुमरियागंज चुनाव से लगाया जा सकता है। जहां भाजपा प्रदेश में जनाधार विहीन होते हुए भी नं.तीन पर रही। पीस पार्टी/ का जन्म मूलतः मुस्लिम समुदाय को ही एक जुट करने और उसको मजबूत करने के लिए हुआ था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम एकजुटता से नाराज हिंदूओं का भी ध्रुवी करण हो सकता है। गोरखपुर के सांसद महंत योगी आदित्य नाथ ने हिंदू ध्रुवीकरण के लिए अभियान छेड़ रखा है।
ऐसा माना जा रहा है कि पीस पार्टी के गठन से पूर्वी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक शक्तियों का भी एकजुट होना प्रारंभ हो गया है। पूर्वांचल के सपा और कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि पीस पार्टी का गठन गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ के इशारे पर ही किया गया है। योगी पूर्वांचल में पीस पार्टी के गठन के बाद से हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़का कर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने की योजना में जुट गए हैं। इन नेताओं का मानना है कि पीस पार्टी का उदय धर्मनिरेपक्ष ताकतों के लिए बहुत बड़ा खतरा बनने जा रहा है और प्रदेश की जनता को इससे सावधान रहना होगा।
पीस पार्टी का जन्म उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को एकजुट करने और इस समुदाय को मजबूत मंच देने के उद्देश्य से हुआ था। पार्टी के संस्थापक डाक्टर अयूब पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण शहर गोरखपुर के सफलतम चिकित्सकों में से एक माने जाते हैं। उनकी पार्टी को २००७ के विधानसभा चुनाव में पैरों का निशान चुनाव चिन्ह मिला था। २००९ के लोकसभा चुनाव के दौरान इसी चुनाव चिन्ह पर इस पार्टी ने मुस्लिम वोटरों को अपने पक्ष में जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वर्तमान समय में पीस पार्टी का प्रभाव आजमगढ़, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, संतकबीर नगर, जौनपुर, देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर, महाराजगंज और बस्ती में है। धीरे-धीरे यह इन क्षेत्रों में जनाधर बढ़ाकर मुस्लिमों को एकजुट करने का काम कर रही है। इससे सपा, भाजपा कांग्रेस सहित अन्य प्रमुख दलों की पूर्वांचल में नींद उड़ रही है। अगर आगामी विधानसभा चुनाव में भी इस पार्टी का यह जादू चला तो सबसे बड़ा झटका कांग्रेस और सपा को लग सकता है। यह दोनो ही दल मुस्लिम वोटों पर निर्भर हैं।
यह भी कहा जा रहा है कि अगर आगामी विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस सत्ता की दहलीज तक नहीं पहुंच पाते तो उसकी एक बड़ी वजह पीस पार्टी सहित अन्य छोटे दल भी होंगे। इसी तरह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए एक और दल भारतीय समाज पार्टी भी खतरा बन सकता है। ओमप्रकाश राजभर की भारतीय समाज पार्टी पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजभर समुदाय के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों में अच्छा खासा प्रभाव रखती है। पार्टी के कर्ता धर्ता ओमप्रकाश राजभर अपने समुदाय को अनुसूचित जाति की श्रेणी में सूचीबद्ध कराने का भी प्रयास कर रहे हैं, इससे वह राजभर समुदाय के बीच यह जताने का प्रयास कर रहे हैं । पूर्वी उत्तर प्रदेश के कम से कम १२ विधानसभा क्षेत्रों में राजभर समुदाय की अच्छी खासी आबादी है। जिससे आगामी विधानसभा चुनाव में सपा, कांग्रेस, भाजपा और बसपा को मुसीबत खड़ी हो सकती है। अगर आगामी चुनाव में भारतीय समाज पार्टी को कुछ सफलता मिलती है तो वह सपा, बसपा या कांग्रेस से समझौता करने में पीछे नहीं रहेगी। इसकी वजह उनके अपने हित और राजनीतिक समीकरण हैं। डुमरियागंज में पीस पार्टी को मिली ताजा सफलता के पीछे भारतीय समाज पार्टी के योगदान को भी अहम माना जा रहा है । भारतीय समाज पार्टी ने डुमरियागंज विधानसभा उपचुनाव में पीस पार्टी का समर्थन किया था।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इन छोटे दलों की प्रदेश में बढ़ती लोकप्रियता बड़े दलों के लिए मुसीबत बन रही है। इनका मानना है कि छोटे दलों का अपना खस वोट बैंक है, जिसे अपने हिसाब से वह चाहें जिधर प्रयोग कर सकते हैं। समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन छोटे दलों के बढ़ते जनाधार का खामियाजा सपा को सबसे ज्यादा भुुगतना पड़ा है। मुख्य रूप से पीस पार्टी के चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों में नया ध्रुवीकरण होने से सपा का प्रदर्शन लगातार धरातल की ओर जा रहा है। २००९ के लोकसभा चुनाव के दौरान भी यही तमाम छोटे-छोटे दल समाजवादी पार्टी के लिए खतरा बने थे। राजनीतिक विश्लेषकों को यह भी लगता है कि यह प्रवृत्ति प्रदेश की राजनीति के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। अब जातिवाद की राजनीति के अगले चरण में उपजाति और समुदाय की भी रणनीति अमल में लायी जानी शुरू हो चुकी है। इससे समाज में विभाजन की रेखा तो खिंचेगी ही लेकिन तात्कालिक लाभ की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलेगा। सामाजिक वैज्ञानिक डा. एस के सिंह कहते हैं कि प्रमुख राजनीतिक दलों अपने राजनीतिक मतभेद भुलाकर देश और प्रदेश के हितों को तय करना चाहिए। अगर अब भी ये सचेत न हुए और इन दलों की अनदेखी की गयी तो एक दिन यही बड़े दलों के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं।

Monday, June 14, 2010

आसान नहीं डगर

भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तर प्रदेश में सूर्य प्रताप शाही के हाथ में पार्टी की कमान सौंप दी। लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुकी पार्टी को पुर्नर्जीवित करने की अभिलाषा संजोए संगठन के नये सेनापति सूर्य प्रताप शाही की पहचान न तो राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रदेश के बड़े नेता के तौर पर की जाती है। आज भी उन्हें पूर्वांचल का ही नेता माना जाता है।
फिलहाल नयी भूमिका में वे संगठन में कितनी जान फंूक पाते हैं यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि प्रदेश संगठन के अब तक जितने कद्दावर नेता हुए हैं उनका भी बड़ा जनाधार नहीं रहा। हालांकि वे पार्टी में बड़े कद के नेता जरूर माने जाते रहे हैं। चाहे पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हों या फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र अथवा सांसद लालजी टंडन सबका यही हाल है। विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह सबकी सीमायें जगजाहिर हैं। प्रांतीय संगठन में पिछड़ों के नेता होने का दम भरने वाले ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास न कर सके। प्रदेश भाजपा में टांग खींचू राजनीति का यह खेल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका है। ऐसे में नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही धुरंधरों एवं बंटे समर्थकों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं यह एक यक्ष प्रश्न है।
प्रदेश भाजपा में ऊपर से लेकर नीचे तक व्याप्त तमाम तरह की विकृतियों को यदि एक तरफ कर दिया जाए और नवनियुक्त अध्यक्ष से चमत्कार की उम्मीद की जाए तो यह बेमानी होगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ग्राम पकहाँ, थाना पथरदेवाँ (वर्तमान थाना बघऊच घाट) के मूल निवासी सूर्य प्रताप शाही ने १९८० से २००७ नौ चुनावी महासमर में ताल ठोंकी है। जिसमें से मात्र तीन बार ही जीते, ६ बार उन्हें करारी शिकस्त का स्वाद चखना पड़ा। आर.एस.एस. से संबंध रखने वाले सूर्य प्रताप शाही अपने जीवन में पहली बार कसया विधानसभा से १९८० में जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े। तब इन्हें कुल २००० मत ही प्राप्त हो सके। १९८५ के चुनाव में इसी विधानसभा सीट पर उन्होंने अपने निकटतम निर्दल राजनैतिक प्रतिद्वंदी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को २५० मतों से पराजित किया था। जबकि १९८९ के आम चुनाव में इसी सीट पर जनता दल के प्रत्याशी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग बारह हजार मतों से उन्हें हराया। दो वर्ष बाद हुए चुनाव में राम लहर के कारण शाही ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को पराजित करने में कामयाब हुए। जबकि १९९३ के चुनाव में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग पंद्रह हजार मतों से शाही को पराजित किया। आखिरी बार १९९६ में उन्हें मिली। २००२ एवं २००७ में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने उन्हें हराया। १९९१ में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे भाजपा के इस महारथी को प्रदेश सरकार में पहली बार गृह राज्यमंत्री तथा स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। १९९६ में वे आबकारी मंत्री भी बने। शाही के मंत्री पद का दोनों कार्यकाल विवादों से घिरा रहा। बतौर गृह राज्यमंत्री उनका कार्यकाल इतिहास के काले पन्नों में दर्ज है। उनके इस कार्यकाल में ही बहुचर्चित पथरदेवाँ बलात्कार कांड की गूंज लोकसभा से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गूंजी। अब ऐसे में यह स्वतः विचारणीय हो जाता है कि सूर्य प्रताप शाही मृत पड़ी प्रदेश भाजपा में जान फूंकने का कार्य कैसे करेंगे। भाजपा की पूर्वांचल की राजनीति भी उनके लिए निष्कंटक नहीं है। यहां उन्हें गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्य नाथ से जूझना होगा। योगी शुरू से ही उन्हें प्रदेश भाजपा की कमान सौंपे जाने के खिलाफ थे। ऐसे में वह सूर्य प्रताप शाही का किस हद तक और कितना साथ देंगे यह देखना दिलचस्प रहेगा। योगी आदित्य नाथ के प्रकोप से पूर्वांचल में भाजपा के वरिष्ठ नेता शिव प्रताप शुक्ल आज तक नहीं उतर सके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वे घटक उनका कितना साथ देंगे जो इस बार अपना प्रतिनिधि बतौर प्रदेश अध्यक्ष चाहते थे। वैसे सूर्य प्रताप शाही ने एक काम अच्छा किया। वे सड़क मार्ग से लोगों से मिलते जुलते हुए लखनऊ पहुंचे। उनकी निगाह ट्विटर जैसे आधुनिक संचार माध्यमों पर भी हैं। वैसे यहां उनकी मौजूदगी पर पार्टी का एक वर्ग नाराज भी है।

यह कैसा न्याय

भोपाल गैस त्रासदी के मुददे पर भी राजनीति शुरू हो गयी है। सीबीआई ने केस की जिस तरह से लचर पैरवी की है। उसका परिणाम सामने दिख रहा है। देश के आज तक के सबसे भयानक हादसे , जिसमें २७०० लोगों की मौत हो गयी थी सिर्फ आरोपियों को दो वर्ष की सजा सुनायी गयी। इन्हें बाद में जमानत पर रिहा भी कर दिया गया । इस फैसले से भोपाल के गैस पीड़ित परिवारों को घोर निराशा हुई है।
हालांकि केंद्रीय कानून मंत्री ने यह घोषणा करके कि अभी भोपाल गैस त्रासदी मामला खत्म नहीं हुआ है पीड़ितों के परिवारों के घावों पर मरहम लगाने का काम किया है लेकिन लोग उनके इस वक्तव्य पर शंका व्यक्त कर रहे हैं । वे इस फैसले के लिए राज्य और केंद्र सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं। इसके खिलाफ हर क्षेत्र से व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिली है। समाज के सभी तबकों ने सीबीआई पर अपनी जिम्मेदारी वहन न करने का आरोप लगाया है। इन सबका मानना है कि सीबीआई ने अगर ढंग से पैरवी की होती तो इस कांड के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिल सकती थी।
हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला देने वाले मामले पर २५ साल बाद भोपाल की सीजेएम कोर्ट ने फैसला सुना ही दिया। पंद्रह हजार से ज्यादा लोग भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली गैस से मारे गए थे। अभी भी कम से कम से कम ६ लाख लोग ऐसे हैं जिनके भीतर जहरीली गैस समाई है। इसके बुरे असर से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक के शिकार लोग हो रहे हैं। यह असाधारण मसला था लेकिन इसकी पूरी जांच और सुनवाई भारतीय संविधान की उन कमजोर कड़ियों का इस्तेमाल करके की गई कि यह लापरवाही का मामला बनकर रह गया। कमाल तो यह है कि उस समय यूनियन कार्बाइड के सीईओ रहे वॉरेन एंडरसन को आज भी दोषी नहीं बताया गया। जबकि वे इसी मामले में करीब दो दशक से भगोड़ा घोषित है। इसलिए जरूरी ये है कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी असाधारण परिस्थितियों के लिए संविधान में नए सिरे से बदलाव किया जाए।
दो-तीन दिसंबर १९८४ को भोपाल में जो औद्योगिक दुर्घटना हुयी थी जिसकी मार आज भी उस शहर के लोग झेल रहे हैं। इस भीषणतम दुर्घटना के पीड़ितों को आज तक उचित मुआवजा नहीं मिल पाया है। आज पच्चीस बरस बीत गए उस हादसे को। समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े लोग आज भी इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि किस तरह दुर्घटना में मारे गए लोगों को न्याय दिलाया जाए। न्याय भी मिला तो ऐसा कि लोगों के गले नहीं उतर रहा। दो - तीन दिसंबर की वह काली रात जब यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनाइड गैस लीक हुई थी तो १५ हजार से अधिक लोग मारे गए थे और तकरीबन पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। आज २५ बरस बीत चुके हैं तो गैस कांड के पीड़ित लोगों का न्याय देश में कोई मुद्दा नहीं है।
इस त्रासदी के उपरांत आज भी प्रभावित इलाके में भूजल बुरी तरह प्रदूषित है इससे प्रभावित लोगों की आने वाली पीढिय़ां बिना किसी जुर्म के शारीरिक और मानसिक तौर पर सजा भुगत रहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि हजारों को असमय ही मौत की नींद सुलाने वाले दोषियों को २५ साल बाद महज दो दो साल की सजा मिली और तो और उन्हें जमानत भी तत्काल ही मिल गई। हमारे विचार से तो इस मुकदमे की सजा इतनी होनी चाहिए थी कि यह दुनिया भर में इस तरह के मामलों के लिए एक नजीर पेश करती, वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं। कानून मंत्री वीरप्पा मोईली खुद भी लाचार होकर स्वीकार कर रहे हैं कि इस मामले में न्याय नहीं मिल सका है। फैसले में हुई देरी को वे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहे हैं। दरअसल मोईली से ही यह प्रश्न किए जाने की आवश्यक्ता है कि उन्होंने या उनके पहले रहे कानून मंत्रियों ने इस मामले में क्या भूमिका निभाई है।
इस औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक़ या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया था। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद लोगों का भरोसा सीबीआई से भी उठना स्वाभाविक है। इस मामले ने भारत के तंत्र को ही बेनकाब कर दिया । क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिका और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष की लौंडी बनकर रह गए हैं।

सीबीआई ने तीन साल तक लंबी छानबीन की और आरोप पत्र दायर किया था। इसके बाद आरोपियों ने उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाए थे। उच्च न्यायालय ने इनकी अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद आरोपी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए । वहां से उन्होंने आरोप पत्र को कमजोर करवाने में सफलता हासिल की। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या सीबीआई इतनी कमजोर हो गई थी कि उसने मामले की गंभीरता को न्यायालय के सामने नहीं रखा या रखा भी तो पूरे मन से नहीं । कारण चाहे जो भी रहे हों पर पीडि़तों के हाथ तो कुछ नहीं लगा।

आखिर क्या वजह थी कि एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद गेस्ट हाउस में रखा गया। इसके बाद जब उसे जमानत मिली तो विशेष विमान से भारत से भागने दिया गया। जब उसे ०१ फरवरी १९९२ को भगोड़ा घोषित कर दिया गया था तब उसके प्रत्यर्पण के लिए गंभीरता से प्रयास क्यों नहीं किए गए! २००४ में अमेरिका ने उसके प्रत्यर्पण की अपील ठुकरा दी गई तो सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। क्या अमेरिका का इतना खौफ है कि इस दिल दहला देने वाले हादसे के बाद भी सरकार उसे सजा दिलवाने भारत न ला सकी। सरकार वैसे भी लगभग दस गुना कम मुआवजा स्वीकार कर अपनी मंशा स्पष्ट कर चुकी है। क्या कारण थे कि भारत सरकार ने इस कंपनी को चुपचाप बिक जाने दिया। इस दौरान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति न जाने कितनी मर्तबा अमेरिका की यात्रा पर गए होंगे पर किसी ने भी अमेरिकी सरकार के सामने इस मामले को उठाने की हिमाकत नहीं की। अगर देश के नीति निर्धारक चाहते तो अमेरिका की सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते थे कि वह यूनियन कार्बाईड से यह बात पूछे कि यह हादसा हुआ कैसे!

कूटनीतिक रिश्तों के ६०साल

भारतीय राष्ट्रपति का एक दशक बाद चीन दौरा भारत व चीन के रिश्तों में विशेष महत्व रखता है। भारत की तुलना में चीन का राष्ट्रपति अपने देश की एक शक्तिशाली हस्ती है। इसलिए यह बात कम करके नहीं आंकी जा सकती कि चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने भारतीय राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल को चीन आमंत्रित कर भारत के साथ रिश्ते मजबूत करने की बात की।इस यात्रा के दौरान चीन के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जिस तरह भारतीय राष्ट्रपति को समय दिया, उससे पता चलता है कि भारत के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिए वह कितना गंभीर है।
चीन भारत के साथ अपने रिश्तों के महत्व को समझता है। भारत और चीन के बीच कूटनीतिक रिश्तों की स्थापना की ६०वीं सालगिरह मनाने के लिए प्रतिभा पाटिल को चीन सरकार द्वारा आमंत्रित किया जाना और पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ ग्रेट हाल ऑफ द पीपल में उनकी अगवानी करना इस बात का सूचक है कि भारत के साथ रिश्तों को चीन आगे बढ़ाना चाहता है। दो पड़ोसियों का एक दूसरे के यहां आना जाना हो तो मतभेदों के बावजूद रिश्ते आगे बढ़ते रहते हैं। इस नजरिए से प्रतिभा पाटिल का चीन दौरा दोनो देशों रिश्तों के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है। चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ २००६ में भारत दौरे पर आए थे। तब उनके दौरे में सीमा मसले पर दूरगामी महत्व का एक समझौता हुआ था। उसी समझौते के आधार पर आज भी दोनों देश सीमा विवाद पर बातचीत कर रहे हैं, हालांकि अब इसमें ठहराव सा आ गया है। भारत और चीन के बीच करीब दो सालों में तनाव बढ़ा है। इसकी वजह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सेना के अतिक्रमण और घुसपैठ की घटनाओं का बढ़ना है, साथ ही चीन ने अनावश्यक तौर पर जम्मू कश्मीर के नागरिकों को स्टेपल वीजा देने की प्रथा शुरू करके भारत को चिढ़ाने की बात की है। न चीन ने भारत की चिंताओं को दूर करने की बात की और न ही राष्ट्रपति ने इन मसलों को सीधे तौर पर उठाया। राष्ट्रपति ने इशारे में यही कहा कि एक दूसरे की भावनाओं की परस्पर समझ से ही आपसी रिश्तों में गहराई आ सकती है। इशारा साफ था कि चीन भारत की शिकायतों को दूर करे और सीमा विवाद का जल्द से जल्द हल खोजे, ताकि दोनों देशों के बीच जारी विवाद दूर हो और वे बेहतर साझेदारी के साथ आगे बढ़ें। मौजूदा दशक में दोनों देशों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बहुपक्षीय गठजोड़ स्थापित किए हैं। भारत, चीन और रूस का त्रिकोणीय गठजोड़ तो चल ही रहा है भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का गठजोड़ भी कायम हुआ है। इन दोनों गठजोड़ों की अब सालाना बैठकें होने लगी हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत और चीन किस तरह कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं।
पिछले साल कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति हू जिन्ताओ की साझेदारी रंग लाई और उन्होंने अमेरिका जैसी ताकतों की नहीं चलने दी, उससे साफ है कि दोनों देश यदि परस्पर तालमेल से चलें तो कोई भी ताकत इनके हितों को चोट नहीं पहुंचा सकती। भारत तो यही उम्मीद करता है कि बड़ी ताकतों की दादागिरी को चुनौती देने के लिए चीन और वह हमेशा साथ रहेंगे। वैसे जिस तरह ये दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ सीमाओं पर सैन्य तैनाती में लगे हैं, उससे साफ है कि इन दोनों के बीच परस्पर विश्वास की भारी कमी है। जब बात आपसी रिश्तों की आती है तो दोनों देशों के सुरक्षा अधिकारी एक दूसरे के खिलाफ बांहें चढ़ाने लगते हैं और जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समान हितों की बात आती है तो दोनों कंधे से कंधा मिला कर चलने लगते हैं।यह विरोधाभास दोनों को ही मिल कर खत्म करना होगा। हालांकि इसे दूर करने की ज्यादा जिम्मेदारी चीन की ही है। उसके लिए स्टेपल वीजा का मसला हल करना कोई बड़ी बात नहीं है। उसे यह भी समझना होगा कि जम्मू कश्मीर के पाक अधिकृत इलाके में सिंचाई व बिजली परियोजनाओं का ठेका लेने का मतलब भारत को परेशन करना है। इधर भारत भी चीन की दूरसंचार कंपनियों के साथ भेदभाव की नीति त्याग सकता है और चीनी कामगारों के लिए उदार वीजा नीति अपना सकता है। सीमा मसले का जो हल ६० के दशक में चीनी नेतृत्व ने अप्रत्यक्ष तौर पर सुझाया था, भारत आज उसे मानने को तैयार हो सकता है। ८० के दशक में भी तंग श्याओ फिंग ने एकमुश्त सीमा समझौते की पेशकश की थी। आज यदि वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा में बदल दिया जाए तो काफी हद तक इस मसले का हल निकल सकता है, लेकिन चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके पर दावा ठोंक कर इसे जटिल बना दिया है। चीन यदि चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत उसके साथ साझेदारी से चले तो उसे भारत की दिक्कतों को भी ध्यान में रखना होगा। राष्ट्रपति पाटिल के मौजूदा चीन दौरे की यही उपलब्धि कही जा सकती है कि भारत सौहार्दपूर्ण माहौल में चीन को अपनी भावनाओं से अवगत करा सका है।

महाउत्सव शुरू

विश्व कप फुटबाल यानी रोमांच की हदों को पार करने वाला एक ऐसा उत्सव जिसकी दीवानगी समूचे विश्व को अपने आगोश में भर लेती है। महीने भर तक दुनिया के हर खेल प्रेमी की निगाह उस मैदान में टिकी रहेगी जहां हर दिन दिलचस्प मुकाबले होंगे।
विश्व की सर्वश्रेष्ठ ३२ टीमें दक्षिण अफ्रीका में विश्व कप फुटबाल के १९वें संस्करण के लिए कमर कस कर मैदान में उतर चुकी हैं। दुनिया के इस अनूठे महा मेले से जैसे ही परदा उठा फुटबाल महाकुंभ का आगाज हो गया।
हर विश्व कप नए सितारों को जन्म देता है और उन्हें पुराने सितारों के साथ श्रेष्ठता की कसौटी पर तौलता है। मैच के कई यादगार लम्हे इतिहास बनते हैं सो अलग। यदि इस विश्व कप की बात की जाए तो पूरी दुनिया एक तरफ होगी और दूसरी तरफ होंगी लैटिन अमेरिका की दो टीमें ब्राजील और अर्जेंटीना। यदि लैटिन अमेरिकी दंतकथाओं को जरा सा भी मान लिया जाए तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि मनुष्य ने पहली बार अपने वंशजों की खोपड़ी से ही खेलना सीखा था। ग्वाटेमाला, मैक्सिको और पेरू की सीमा के बीच अमेजन के घने जंगलों में आज से हजारों वर्ष पहले दक्षिण अमेरिका की तीन सभ्यताएं पनपीं। पहली थी मायंस, दूसरी इंका और तीसरी एजटेक। इतिहास गवाह है कि मायंस के काल में फुटबाल का आविष्कार हुआ। तीनों सभ्यताओं के चिन्ह आज भी वर्तमान पेरू, कोलंबिया, ब्राजील, मैक्सिको, इक्वाडोर और कोस्टारिका में देखे जा सकते हैं।
आज भी हम ब्राजील या अर्जेंटीना का फुटबाल देखते हैं या फिर यूरोपियन देश का फुटबाल , तो फर्क तत्काल समझ में आ जाता है कि फुटबाल दिल से भी खेला जाता है और दिमाग से भी। जो सभ्यता दक्षिण अमेरिका में पनपी थी, उसी का नतीजा है कि ब्राजीलियन और अर्जेंटाइन नाचते गाते दर्शकों की उपस्थिति के बीच वैसा ही दिलों को छूने वाला फुटबाल खेलते हैं जो हम सिर्फ सपनों में ही सोच सकते हैं। गोल करना किसी भी फुटबालर का लक्ष्य होता है, किंतु विपक्षी टीम के किसी खिलाड़ी को छूए बगैर किस प्यार से ऐसा किया जाता है, यदि इसे सीखना हो तो आपको सीधे दक्षिण अमेरिका जाना होगा।
महान फुटबालर पेले ने ही ब्राजील की राष्ट्रीय टीम में आने से पहले सांतोस क्लब के लिए खेलते हुए बाइसिकल किक से गोल दागना सीख लिया था। जगालो जैसे दिग्गज के साथ खेलते हुए पेले ने दुनिया को पहली बार लैटिन अमेरिकी फुटबाल की झलक दिखलाई थी। ब्राजील या अर्जेंटीना विश्व कप चैंपियन बने, यह चर्चा का विषय नहीं है लेकिन यह भी अंतिम सच है कि कोई भी विश्व कप इन दो लैटिन अमेरिकी टीमों के बिना पूरा नहीं हो सकता। आज भी यह हालत है कि ब्राजील के तमाम खिलाड़ी यूरोप में खेलते हैं। इतिहास गवाह है कि इंग्लैंड (१९६६) और फ्रांस (१९९८) के बाद कोई भी यूरोपियन देश मेजबान होते हुए चैंपियन नहीं बन सका है।
१९९४ में अमेरिका में हुए विश्व कप फाइनल में भी ब्राजील चैंपियन बना था। जबकि १९९८ के फाइनल में वह पेरिस में फ्रांस से हार गया था लेकिन उसकी भरपाई ब्राजील ने २००२ में जर्मनी को हराकर पूरी कर ली थी। यदि ब्राजील रिकार्ड पांच बार विश्व कप जीता है तो अर्जेंटीना भी पीछे नहीं रहा है। १९८६ के मैक्सिको विश्व कप में चैंपियन बनने के बाद वह इटेलिया ९० के फाइनल में जर्मनी से अंतिम सेकंड में ० -१ से हार गया था, लेकिन यह वह विश्व कप था, जिसने उस जीनियस मेराडोना की बिगड़़ी हुई छवि देखी थी जो कि १९८६ के विश्व कप के बाद फुटबाल का भगवान बन चुका था।
अर्जेंटीना ने इसके बाद भी अमेरिका से लेकर कोरिया जापान तक (२००२ विश्व कप) अपनी दावेदारी में कोई कमी नहीं आने दी। तब गैब्रियला बातिस्तुता और क्लाडियो कनीजिया जैसे धुरंधर स्ट्राइकर्स की मदद से अर्जेंटीना ने यूरोपीय ताकतों को हिलाकर रख दिया था।
यूरोपियन देशों को देखें तो उसमें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह दक्षिण अफ्रीका में आयोजित १९वें विश्व कप को जीतने का हकदार है। इंग्लैंड के साथ १९६६ से ही दुर्भाग्य जुड़ा हुआ है। जर्मनी ने जरूर एक दो बार चमत्कार दिखाए हैं लेकिन इसके सिवा और कुछ बाकी नहीं रह जाता। ४० के दशक में इटली दो बार जीता था। फिर उसे यह सौभाग्य १९८२ के बाद २००६ में जर्मनी में आयोजित विश्व कप में प्राप्त हुआ। अब तक के १८ विश्व कप मुकाबलों में ९ बार लैटिन अमेरिकी देशों के पाले में ही खिताब गया है।
इस बार ब्राजील की टीम कोच डुंगा की पसंद की है, जिसमें युवाओं की भरमार है। पिछले विश्व कप के ब्राजीली सितारे रोनाल्डो, रोनाल्डिनो, राबर्टो कार्लोस तथा कैफू की चौकड़ी अफ्रीका में नजर नहीं आएगी। अलबत्ता सुपर स्टार काका और राबिन्हो पर सबकी निगाहें होंगी। ब्राजील या अर्जेंटीना को यदि कोई यूरोपियन देश चुनौती दे सकता है उसमें सबसे पहला नाम स्पेन व जर्मनी का ही होगा। वैसे तो इंग्लैंड, हालैंड, क्रोएशिया, डेनमार्क, इटली भी इस दौड़ में शामिल हैं। स्पेन व जर्मनी के पास्ा प्रतिभाओं का कभी अकाल नहीं रहा लेकिन दो समस्याओं ने इन दोनों टीमों का पीछा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिटनेस और दूसरी दुर्भाग्य। इंग्लैंड के साथ भी दुर्भाग्य ने चोली दामन का साथ निभाया। १९६६ में एक विवादास्पद गोल के बाद विश्व चैंपियन (इतिहास में सिर्फ एक बार) बनने वाले इंग्लैंड ने अभी तक विश्व कप फाइनल में स्थान नहीं बनाया है। यह उस देश की त्रासदी का परिचायक है, जिसकी प्रीमियर लीग दुनिया की सबसे महंगी और आकर्षक मानी जाती है फिर भी उसका स्टार खिलाड़ी डेविड बेखम स्पेन जाकर खेलना पसंद करता है। वर्तमान इंग्लिश टीम की धुरी वायने रूनी के आसपास घूमती है। उनके अलावा फारवर्ड एमिली हेस्की पीटर क्राउच को अहम किरदार अदा करना होगा। मिड फील्ड का दारोमदार जेकोले पर है।

...जोर का झटका

एशियाई खेलों में पहली बार क्रिकेट (टी-२०) को शामिल कर लिया गया है लेकिन इसमें टीम इंडिया के शामिल नहीं होने का भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को मलाल रहेगा। बीसीसीआई ने अंतिम तिथि गुजरने तक एशियन गेम्स में भारतीय टीम की एंट्री नहीं भेजी। हालांकि इसके लिए भारत को भी आमंत्रित किया गया था। बीसीसीआई के अधिकारियों का कहना है कि भारतीय टीम के पहले से तय शिडयूल हैं। ऐसे में उसका इसमें शामिल होना संभव नहीं है।
एशियन गेम्स नवंबर माह में चीन में होने हैं। पहली बार इसमें क्रिकेट को शामिल किया गया है । क्रिकेट में टी-२० के मुकाबले भी होने हैं। बोर्ड द्वारा टीम इंडिया की एंट्री नहीं भेजे जाने से क्रिकेट प्रेमियों में खासी निराशा है। वे आरोप लगा रहे हैं कि बोर्ड को देश के लिए लिए मैडल से ज्यादा पैसे की चिंता है। भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व चयनकर्ता किरण मोरे ने भी कहा कि टीम को भागीदारी करनी थी। यह देश के लिए सम्मान की बात होती है।
बीसीसीआई का कहना है कि वह १२ से २७ नवंबर तक होने वाले एशियाई खेलों के लिए अपनी पुरुष और महिला टीमों को चीन नहीं भेजेगा। पुरुष टीम को नवंबर में न्यूजीलैंड की मेजबानी करनी है। बीसीसीआई के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी रत्नाकर शेट्टी ने कहा हम अपनी पुरुष और महिला टीमों को चीन भेजने की स्थिति में नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यस्तताएं हमारे आड़े आ रही हैं। हमने इस संबंध में भारतीय ओलंपिक संघ को जानकारी दे दी है। हालांकि विश्व डोपिंग निरोधी इकाई (वाडा) के विवादास्पद ठिकाना बताओ नियम के कारण भी भारतीय क्रिकेट टीमों का एशियाई खेलों में हिस्सा लेना मुश्किल लग रहा था। भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों ने वाडा के नियम को लेकर करार पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था । बीसीसीआई ने अपने खिलाड़ियों का समर्थन करते हुए इस नियम को गोपनीयता भंग करने वाला करार दिया था।
एशिया महाद्वीप के चार टेस्ट खेलने वाले देशों ेंभारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश द्वारा अपनी-अपनी श्रेष्ठ टीमों को खेलने के लिए भेजने के वादे के बाद ही एशियाई ओलंपिक संघ ने इन खेलों में क्रिकेट को शामिल किया है। ऐसे में जब भारत ने अपनी टीम भेजने से मना कर दिया है तो बहुत कम उम्मीद है कि श्रीलंका और पाकिस्तान अपनी टीमें चीन भेंजे क्योंकि इस दौरान इन दोनों टीमों का कार्यक्रम काफी व्यस्त है। पाकिस्तान को २५ अक्टूबर से २५ नवंबर के बीच दक्षिण अफ्रीका के साथ टेस्ट तथा एकदिवसीय श्रृंखला खेलनी है । उसी दौरान श्रीलंकाई टीम वेस्टइंडीज की मेजबानी करेगी।
एशियन ओलंपिक काउंसिल (ओसीए) और भारतीय ओलंपिक संघ ने (आईओए) एशियन गेम्स में भारतीय क्रिकेट टीम नहीं भेजने के फैसले की आलोचना की है। आईओए के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने कहा कि बीसीसीआई पैसे के पीछे भागती है, एशियन गेम्स प्राइ.ज मनी नहीं है इसलिए टीम नहीं भेजने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि हमने २०१० कॉमनवेल्थ गेम्स में क्रिकेट को शामिल नहीं किया। ओसीए के सेक्रेटरी जनरल रनधीर सिंह ने कहा कि बीसीसीआई के फैसले से क्रिकेट को एशियन गेम्स में शामिल कराने के लिए की गई मेहनत पर पानी फिर गया। उन्होंने कहा कि एशियन गेम्स के शिड्यूल काफी पहले बता दिए गए थे इसके बावजूद यह फैसला किया जाना निराशाजनक है।

राजनीतिक खेल

बसपा से आपराधिक गतिविधियों वाले लोगों को पार्टी से बाहर दिखाने की मूहिम को उस समय करारा झटका लगा जब बसपा सुप्रीमो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने आगामी विधान सभा चुनावों में पार्टी के सभी विधायकों को पुनः चुनाव में प्रत्याशी बनाने की घोषणा कर दी। बसपा सुप्रीमो के इस निर्णय से न सिर्फ पार्टी के पदाधिकारियों को धक्का लगा है बल्कि प्रदेश में बसपा की छवि खराब हुई है।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने कुछ समय पहले पार्टी से आपराधियों को हटाने करने की बात कही थी और उस समय उन्होंने लगभग ५०० आपराधिक छवि के लोगों को निष्कासित कर दिया था लेकिन बसपा से निकाले जाने वालों में उन विधायकों व सांसदों का नाम नहीं था जो आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहे हैं। बसपा में आज भी ऐसे कई विधायक व सांसद हैं जो जेलों में बंद हैं फिर भी बसपा सुप्रीमो ने उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
बसपा की आपराधियों को पार्टी से निकालने की मुहिम पर इसलिए भी विश्र्वास नहीं किया जा सकता कि बसपा में आज भी ऐसे विधायकों सांसदों की संख्या अधिक है जो अपनी आपराधिक गतिविधियों के कारण ही अपनी पहचान बनाए हुए हैं। बसपा में आज भी डीपी यादव, सुशील सिंह, अंगद यादव, ददन मिश्रा, बादशाह सिंह, रंगनाथ मिश्रा, व वेदराम भाटी जैसे लोग विधायक के पर पद पर विराजमान हैं। वहीं बसपा के कई सांसद ऐसे हैं जिनका आपराधिक इतिहास है और वो संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। बसपा सांसद कपिल मूनि करवरिया, ब्रजेश पाठक, गोरखनाथ पांडेय, कादिर राना, राकेश पांडेय, धनंजय सिंह व हरिशंकर तिवारी के ऊपर आज भी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप लग रहे हैं। बसपा के कई ऐसे विधायक व पूर्वमंत्री हैं जो आज भी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाए जाने की वजह से जेलों में बंद हैं। पूर्व मंत्री जमूना प्रसाद निषाद, आनंद सेन यादव, विधायक शेखर तिवारी व सोनू सिंह आज भी जेलों में बंद हैं। जबकि विधायक जितेंद्र सिंह बब्लू प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाने के आरोपी है। लेकिन वह खूले आम सड़कों पर घूम रहे हैं। बसपा सुप्रीमो के पार्टी का आपरेशन क्लीन करने की छवि को उस समय भी संदेह की नजर से देखा जाने लगा था जब इन्होंने विधान परिषद चुनाव में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा था जिनमें से अधिकांश विजयी भी हुए थे। बसपा को इस चुनाव में ३६ से ३४ सीटें प्राप्त हुई थीं। इन सब सीटों पर जीतने वालों में आपराधिक छवि के लोगों की संख्या अधिक रही। यहां तक की विधान परिषद के सभापति गणेश शंकर पांडेय का भी अपराधिक इतिहास रहा है और वह पूर्वांचल के एक गिरोह के सक्रिय सदस्य रहे हैं। फिर भी वह आज माननीय उच्चसदन की सबसे ऊंची कुर्सी पर विराजमान हैं। इसी तरह कई अन्य कुख्यात अपराधी आज विधान परिषद की शोभा बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री की यह घोषणा की वह पार्टी से आपराधियों से मुक्त कर देगी हास्यापद सी लगती है।
बसपा से ५०० अपराधिक छवि के लोगों को निकाले जाने पर टिप्पणी करते हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि मायावती प्रथम उन अपराधी तत्वों के नाम बताएं जिनको उन्होंने पार्टी से निष्काषित कर दिया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश की जनता को यह जानने का पूरा हक है। यदि वह उन आपराधियों के नाम नहीं बताती तो उससे साफ है कि उनका आपरेशन क्लीन महज एक दिखावा है।
आपराधियों से पार्टी को मुक्त करने का बसपा सुप्रीमो का यह प्रयास शुरू से ही शंका की दृष्टि से देखा जा रहा था लेकिन यह शंका उस समय और बलवती हो गयी जब मुख्यमंत्री ने यह घोषणा कर दी कि वह सभी पार्टी विधायकों को आगामी चुनाव में टिकट देंगी ऐसा कहकर उन्होंने अपने सभी विधायकों को क्लीन चिट दे दी है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि आपराधिक छवि का मुद्दा उठाकर विपक्ष सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है। वह विपक्ष को उनके मकसद में कामयाब नहीं होने देगीं। उन्होंने कहा कि बसपा में आने से पूर्व भले ही विधायकों का आपराधिक इतिहास रहा हो लेकिन बसपा में आने के बाद उन्होंने अपनी आपराधिक गतिविधियां छोड़ दी हैं। उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा है। इसलिए वह विपक्षी नेताओं के जाल में फंसने वाली नहीं है। हालांकि मायावती की इस घोषणा को राजनीतिक नजरिए से भी देखा जा रहा है। राजनीतिज्ञों का मानना है कि मायावती ने एक राजनीति के तहत ही यह घोषणा की है कि जिससे विधान परिषद चुनाव में उनको कोई अपमान न झेलना पड़े। हालांकि उत्तर प्रदेश में विधान परिषद चुनाव संपन्न हो गए हैं फिर भी यह माना जा रहा है कि मायावती का यह कदम उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता को दर्शाता है। बहुत से राजनीतिज्ञों का मानना है कि आज भी बसपा में करीब ५० ऐसे विधायक हैं जिनका आपराधिक इतिहास रहा है, अगर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की गई तो वो सरकार के सामने संकट खड़ा कर सकते हैं। सरकार को इसी संकट से उबरने के लिए मुख्यमंत्री ने एक राजनीतिक बयान बाजी की है।
फिलहाल बसपा सुप्रीमो अपने ही विरोधाभाषी बयानों से घिर गयी हैं। पार्टी को आपराधियों से मुक्त करने की इनकी मुहिम पर भी विराम लग गया है। जिससे पार्टी और सरकार की छवि को गहरा धक्का लगा है।

Sunday, June 13, 2010

सूचना

कार्यालय : वह स्थान जहां आप घर के तनावों से मुक्ति पाकर विश्राम कर सकते हैं।

श्रेष्ठ पुस्तक : जिसकी सब प्रशंसा करते हैं परंतु पढ़ता कोई नहीं है।

कान्फ्रेन्स रूम : वह स्थान जहां हर व्यक्ति बोलता है, कोई नहीं सुनता है और अंत में सब असहमत होते हैं।

समझौता : किसी चीज को बांटने का वह तरीका जिसमें हर व्यक्ति यह समझता है कि उसे बड़ा हिस्सा मिला।

व्याख्यान : सूचना को स्थानांतरित करने का एक तरीका जिसमें व्याख्याता की डायरी के नोट्स, विद्यार्थियों की डायरी में बिना किसी के दिमाग से गुजरे पहुंच जाते हैं।

अधिकारी : वह जो आपके पहुंचने के पहले ऑफिस पहुंच जाता है और यदि कभी आप जल्दी पहुंच जाएं तो काफी देर से आता है।

कंजूस : वह व्यक्ति जो जिंदगी भर गरीबी में रहता है ताकि अमीरी में मर सके।

अवसरवादी : वह व्यक्ति, जो गलती से नदी में गिर पड़े तो नहाना शुरू कर दे।

अनुभव : भूतकाल में की गई गलतियों का दूसरा नाम ।

कूटनीतिज्ञ : वह व्यक्ति जो किसी स्त्री का जन्मदिन तो याद रखे पर उसकी उम्र कभी नहीं।

मनोवैज्ञानिक : वह व्यक्ति, जो किसी खूबसूरत लड़की के कमरे में दाखिल होने पर उस लड़की के सिवाय बाकी सबको गौर से द