Saturday, March 27, 2010

... फैसला

गरीब और पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों के आरक्षण के बारे में अंतरिम आदेश देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आंध्रप्रदेश सरकार के फैसले पर मंजूरी की मुहर लगा दी। एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को बहाल कर दिया है जिसे आन्ध्र प्रदेश सरकार ने इस उद्देश्य से बनाया था कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सकेगा। बाद में हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था। अब हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कानूनी शक्ल दे दी है। पर सवाल यह है कि क्या सिर्फ मुसलमान होने की वजह से कोई आरक्षण का हकदार हो जाता है, लेकिन यहां पर यह इसलिए ठीक है कि अगर वह सामाजिक रूप से पिछड़ा या दलित की श्रेणी में आता है तो उसे भी शिक्षा और नौकरियों में ठीक उसी तरह आरक्षण मिलना चाहिए, जिस तरह उसके जैसी सामाजिक स्थिति वाले अन्य धर्मों के भाइयों को मिलता है। फिलहाल मामला संविधान बेंच को भेज दिया गया है जहां इस बात की भी पक्की जांच होगी कि आन्ध्र प्रदेश सरकार का कानून विधिसम्मत है कि नहीं। संविधान बेंच से पास हो जाने के बाद मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर कोई वैधानिक अड़चन नहीं रह जायेगी। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें रि.जर्व करने का कानून बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल की है। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में मुसलमानों को १० प्रतिशत रिजर्वेशन देने की पेशकश की थी। उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। अब इस फैसले के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य को अपने फैसले को लागू करने के लिए ताकत मिलेगी। इसके पहले भी केरल, बिहार, कर्नाटक और तमिलनाडु में पिछड़े मुसलमानों को रि.जर्वेशन की सुविधा उपलब्ध है। देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश में है लेकिन राज्य में अभी पिछड़े मुसलमानों के लिए किसी तरह का आरक्षण नहीं है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यहां आज भी उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दल इस वोट बैंक पर अपना दावा ठोंकते रहते हैं। इसी आधार पर यह दल अपनी राजनीतिक रोटी तो सेंकते हैं पर इनके हितो से इनका कोई भी लेना देना नहीं रहता। क्योंकि अगर हित साध देंगे तो इनकी राजनीति ही बंद हो जाएगी। अपनी राजनीति की दुकान चलाने के लिए यही वोट बैंक इन्हें सबसे मुफीद लगता है। सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के बाद केंद्र की यूपीए सरकार पर भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा। कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सरकार बनने पर मुसलमानों के लिए ओ बी सी के लिए रिजर्व नौकरियों के कोटे में मुस्लिम पिछड़ों के लिए सब कोटा का इंतजाम किया जाएगा। अब कांग्रेस से सवाल पूछने का समय आ गया कि वे अपने वायदे कब पूरे करने वाले हैं। वैसे संविधान लागू होने के ६० साल बाद एक बार फिर ऐसा माहौल बना है कि राजनीतिक पार्टियां अगर चाहें तो सकारात्मक पहल कर सकती हैं और गरीब और पिछड़े मुसलमानों का वह हक उन्हें दे सकती हैं।

Friday, March 26, 2010

फिर विवादों में बिग बी

बिग बी का विवादों से पुराना नाता रहा है बोफोर्स घोटाले से लेकर आज तक बिग बी किसी न किसी विवाद के चलते सुर्खियों में बने रहते हैं। बांद्रा वर्ली सी लिंक के उद्घाटन के अवसर पर उनकी उपस्थिति ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया। कांग्रेस पार्टी को बिग बी की उपस्थिति काफी नागवार गुजरी है। मुंबई महानगर कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह ने बिग बी के साथ मंच पर जाने से यह कह कर इंकार कर दिया कि बिग बी गुजरात सरकार के ब्रांड एंबेसडर हैं। नरेंद्र मोदी की नीतियों का समर्थन करते हैं। इसलिए उनके साथ मंच पर उपस्थित होना संभव नहीं है।कांग्रेस के इस विरोध पर मुख्यमंत्री अशोक चहवाण को भी सफाई देनी पड़ी है। श्री चहवाण ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने इस कार्यक्रम में बिग बी को आमंत्रित नहीं किया था। वहीं दूसरी तरफ बिग बी ने सफाई दी है कि वे महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री के बुलावे पर इस समारोह में शामिल हुए थे। सूत्रों के अनुसार इस प्रकरण को कांग्रेस एनसीपी के आपसी संबंधों के रूप में देखा जा रहा है। सूत्रों की मानें तो अमिताभ बच्चन को एनसीपी कोटे के मंत्री ने कार्यक्रम में आमंत्रित किया था। एनसीपी ने यह कदम किसी राजनीतिक कूटनीति के तहत ही उठाया था ताकि कांग्रेस को नीचा दिखा सके। एनसीपी के इस कदम से यह भी समझा जा रहा है कि कांग्रेस और एनसीपी के संबंधों में दरार पड़ना प्रारंभ हो गयी है। दोनों ही दल भाजपा और शिवसेना को सत्ता से दूर रखने के लिए भले ही एकजुट हुए हों लेकिन दोनों ही सरकार में रहकर अपना-अपना एजेंडा लागू करना चाहते हैं। एनसीपी ने अमिताभ बच्चन को भी अपनी उसी कूटनीति के तहत कार्यक्रम स्थल पर आमंत्रित किया था। सपा के निष्कासित नेता अमर सिंह की बच्चन से नजदीकियां जगजाहिर हैं। एनसीपी प्रमुख शरद पवार व अमर सिंह के रिश्तों में घनिष्ठता बढ़ी है। इसी घनिष्ठता को और प्रगाढ़ करने के लिए शरद पवार के इशारे पर उनके कोटे के मंत्री ने अमिताभ को आमंत्रित किया था। अमिताभ बच्चन को आमंत्रित करके एनसीपी ने कांग्रेस को भी यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह अपने सिद्धांतों और नीतियों पर ही राजनीति करेंगे और कांग्रेस के इशारों पर नहीं चलेंगे। सनद रहे कि कभी बच्चन परिवार नेहरू गांधी परिवार का चाहने वाला रहा है। बीच के दिनों में पता नहीं किस बात पर गांधी और बच्चन परिवार के बीच खटास पैदा हुई और इसके चलते अमर सिंह जैसे लोगों ने सोनिया परिवार की वाचिक छंटाई शुरू कर दी। अब जब बच्चन पर भी सीधा हमला बोल दिया गया है तो हर संकट में बच्चन के लिए खुद को कुर्बान करने की कसम खाने वाले छोटके भैया अमर सिंह की इस मामले में बोलती बंद है। अमिताभ बच्चन को लेकर सोनिया गांधी कितनी सख्त हैं, यह तो तब ही पता चलेगा जब वे या उनका परिवार कुछ बोले। देखा जाए तो यह एक ऐसा मौका था जब मुंबई के दो हिस्से ही नहीं जुड़ते बल्कि गांधी बच्चन परिवार के संबंधों में भी एक नया सेतु निर्मित होता लेकिन ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी की राजनीतिक मंडली किसी भी कीमत पर ऐसा कोई सेतु निर्मित नहीं होने देना चाहती। फिर चाहे सोनिया गांधी की रजामंदी हो या न हो।हालांकि मीडिया में चर्चा सिर्फ इस बात की हो रही है कि अमिताभ बच्चन का अपमान कांग्रेस क्यों कर रही है। लेकिन इस बात की तरफ शायद जान बूझ कर लोग ध्यान नहीं दे रहे हैं कि अचानक अमिताभ बच्चन को कांग्रेस एनसीपी की सरकार में एक ऐसे सी लिंक के उद्घाटन में बुलाने की वजह क्या हो सकती है जिसका शुरुआती उद्घाटन खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि अमिताभ बच्चन छोटे भ्ौया अमर सिंह के लिए एनसीपी में राजनीतिक लिंक खोलने जा रहे हैं? वैसे, जब अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दिया था तभी इस बात की चर्चा जोरशोर से उठी थी कि अमर सिंह एनसीपी में जा सकते हैं लेकिन अमर सिंह और एनसीपी शायद आपसी तालमेल के लिए तैयार नहीं हो पाए थे। इस बीच कांग्रेस ने महंगाई के लिए सीधे तौर पर पवार को जिम्मेदार ठहराया है। पवार को कांग्रेस एकदम से निपटाने की हर कोशिश में लगी है। पवार कभी बाल ठाकरे से मिलकर तो कभी पूरी सरकार को महंगाई के लिए दोषी ठहराकर कांग्रेस को लगातार परेशान करते ही रहते हैं। लेकिन उनको एक चेहरा चाहिए जो, महाराष्ट्र से बाहर भी कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर सके। अमर सिंह एक ऐसा चेहरा हैं जिन्हें एनसीपी अपने लिहाज से और अमर सिंह एनसीपी को अपने लिहाज से इस्तेमाल करने के लिए बेहद मुफीद दिख रहे हैं।

Wednesday, March 24, 2010

गुम होती गोरैया

गोरैया को बचाने की एक पहल शुरू हुई है। २० मार्च २०१० को पहली बार विश्र्व गोरैया दिवस मानाया गया। अच्छा है कि इस पृथ्वी पर और हमारे जीवन में गोरैया चहकती रहे। दरअसल गोरैया घरेलू चिड़िया है। हमारे घरों में रहती, खिड़की और दरवाजे पर बैठकर चहकती है। आंगन में फुदकती है और चावल का दाना बीनने बड़े अधिकर से रसोई में चली आती है। पर अब नहीं, पहले था जब हम गांवों में थे। अक्सर होता था गौरैया खाना खाने के दौरान हो या फिर कहीं कोई अन्न फैला हो हमारे आसपास ही चहकती नजर आती थी लेकिन गोरैया भी अब लुप्तप्राय है। विरले ही दिखती है जिस तरह के मकानों में अब हम रहने लगे हैं। उसमें गोरैया के लिए कोई जगह ही नहीं बची। गोरैया बड़े पेड़ों पर नहीं रहती जंगलों में भी नहीं। वह कहां घोंसला बनाए। घर के आंगन और छतों की मुंडेर पर चहकने वाली गौरैया की आबादी पर मोबाइल टावरों से घातक असर पड़ा है। इस बात को सरकार ने भी कुछ समय पहले स्वीकार स्वीकार किया था। पर्यावरण और वन राज्यमंत्री जयराम रमेश ने अपने मंत्रालय के पास उपलब्ध सूचना के आधार पर बताया था कि पंजाब यूनिवर्सिटी का पर्यावरण और व्यावसायिक अध्ययन केन्द्र वर्तमान में पक्षियों पर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक विकिरण के प्रभाव पर स्टडी कर रहा है। केरल पर्यावरणीय अनुसंधानकर्त्ता संघ ने भी लगभग एक साल तक स्टडी की, जिससे पता चलता है कि मोबाईल फोन टावरों के अवैज्ञानिक प्रसार ने घरेलू गौरैया की आबादी पर घातक प्रभाव डाला है। एक वक्त था कि हर गांव शहर में अलसुबह या सांझ के झुटपुटे में आसमान में पंछियों की पंक्तियां दिखाई देती थीं। तब हर कहीं तरह-तरह के पंछियों की मीठी आवाजें सुनाई देती थीं। लेकिन अब हर कहीं जिस तरह लोगों के घर बस रहे हैं, उससे पंछियों के बसेरे उजड़ रहे हैं। आज घरेलू चिड़ियां, कबूतर, घुग्घी, तोते, कौवे, चील, बाज, गिद्ध आदि पक्षी नजरों से ओझल होते जा रहे हैं। कभी पेड़ों की टहनियों पर अपनी मजबूत चोंचों से सूराख करते कठफोड़वे की ठुकठुक सुनाई देती थी। मन को खुश कर देने वाली कोयल की कुहूकुहू सुनाई देती थी? पक्षी ही नहीं, रंग बिरंगी तितलियां, कानों में गुंजन करते भौंरे, गिलहरियां और रात में रोशनी के मोती बिखेरने वाले जुगनू भी अब यहां के वातावरण का हिस्सा नहीं रहे हैं। बड़े शहरों में आमतौर पर जंगली या पहाड़ी पक्षियों के बजाय शहरी पक्षी ज्यादा पाए जाते रहे हैं मसलन चार तरह की मैना, घरेलू चिडिय़ा या गौरैया, चोटी वाली चिड़िया, कबूतर, हुदहुद, फाख्ता या घुग्घी, कोयल, रॉबिन चिडिय़ा, बुलबुल, कौवा, चील, बाज, धनेश या हॉर्नबिल, गिद्ध, कई तरह के उल्लू, दजिर्न चिडिय़ा, दोतीन तरह के कठफोड़वा और तोते। लेकिन अब जाने कहां चले गए हैं ये सब? सफेद पीठ वाला गिद्ध तो देश के दूसरे इलाकों से भी गायब हो गया है। इसकी वजह बताई जाती है, मवेशियों के लिए प्रयोग होने वाली डिक्लोफेनिक दवाई। जिन मरे हुए मवेशियों को ये गिद्ध खाते थे, उनसे यह जहर इनमें पहुंचता गया और वे खत्म होते चले गए। इसी तरह चील व बाज भी कम हो गए हैं। अब शहरों के आसपास के खेतों की जगह बिल्डिंगों ने ले ली है तो तीतरबटेर भी गायब हो गए हैं। दुनियाभर में पक्षियों की ९००० प्रजातियां हैं जिनमें से १२०० भारत में हैं। हमारे यहां मोर इसलिए कम हुए हैं क्योंकि वे जमीन पर अंडे देकर उन्हें २७ से २८ दिनों तक सेते हैं। इस काम के लिए उन्हें अब एकांत नहीं मिल पाता। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि पक्षियों का आसपास होना, उनकी आवाजें सुनना आदमी को सुकून देता हो या वे शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाते हों बल्कि पर्यावरण संतुलन के लिहाज से भी उनकी अहम भूमिका है। फलफूल खाने वाले पक्षी, उनके बीज इधर उधर फैला देते हैं जिनसे नए पेड़ों की संख्या बढ़ती है। कुछ पक्षी आदमी को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े मकोड़ों को खा जाते हैं। मरे हुए जानवरों को खाने वाले पक्षी तो सफाई कर्मचारी की भूमिका निभाते हैं। ये पक्षी हमारी फूड चेन का भी अहम हिस्सा हैं। पक्षियों के न रहने से यह पूरी चेन डिस्टर्ब हो रही है जिसका खामियाजा आखिरकार इंसान को भी भुगतना पड़ेगा और भुगतना भी पड़ रहा है। भारत की आदिकालीन अरण्य सभ्यता में वनों, पेड़ पौधों और पशु पक्षियों के साथ मनुष्य के आत्मीय रिश्ते की झलक मिलती है। पशुपक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर भारतीय मनुष्य ने उन्हें पूजा की वस्तु तक बना दिया है। शिव का वाहन नंदी है , विष्णु को गरुड़ प्रिय है , कृष्ण ने गायों और मोरों को प्रतिष्ठा दी है। गणेश अपने वाहन चूहे से , तो लक्ष्मी उल्लू से खुश हैं। दुर्गा शेर की सवारी करती हैं और सरस्वती हंस पर विराजती हैं। शनि देवता कौए को और भैरव कुत्ते को अपना वाहन बनाते हैं। कार्तिकेय मोर को , इन्द्र ऐरावत हाथी को अपने साथ रखते हैं। शिव यदि सांपों को अपने गले में लपेटे रखते हैं , तो विष्णु शेषशायी हैं। हमारी लोककथाओं में तोता और मैना बोलती हैं , तो कौवा काकभुशुण्डि के रूप में आध्यात्मिक विमर्श में शामिल होता है। यह सोचना चाहिए कि हमारे कस्बों और गांवों से गिद्ध क्यों नष्ट हो रहे हैं, जो मरे हुए जानवरों को तत्काल लील जाते थे और इस तरह हमें गंदगी से बचाते थे। क्या आपको नहीं लगता कि अब आपके घर में कोई कौवा, कोई कबूतर या गौरैया झांकने नहीं आती और आती है तो पंखे से कटकर या वहां फंसकर मर जाती है। आकाश में कितने कम पक्षी हैं और जो हैं वे लैंड फिलिंग वाले इलाकों में मंडराते ज्यादा दिखते हैं। आपने कब किसी जगह पिछली बार किसी तितली को देखा था ? जब पानी नहीं तो जंगल नहीं और जंगल नहीं तो पक्षी नहीं।

शादी से पहले सेक्स अपराध नहीं: सुप्रीम कोर्ट

शादी से पहले सेक्स अपराध नहीं है। लिवइन रहना भी अपराध नहीं है। ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है। चीफ जस्टिस के. जी. बालाकृष्णन, जस्टिस दीपक वर्मा और जस्टिस बी. एस. चौहान की बेंच ने २३ मार्च को कहा, जब दो लोग साथ रहना चाहते हैं, तो इसमें अपराध क्या है। कोर्ट ने तो यहां तक कहा कि मिथालजी के मुताबिक भगवान कृष्ण और राधा भी साथ रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने यह बात साउथ की मशहूर ऐक्ट्रेस खुश्बू के एक मामले में कही है। कोर्ट के इस फैसले के बाद लिवइन रिलेशनशिप को लेकर हमारे भारतीय समाज में खासी हलचल है। पर क्या लिवइन के इस मामले में कोर्ट की यह राय भगवान कृष्ण के उस सौंदर्य रूपी प्रेम और लिवइन में रहने वाले लोगों के उस ..... रूपी .... के साथ तुलना उचित है।
हालांकि मेट्रो शहरों में ऐसी मिसालें बढ़ती जा रही हैं, जहां युवक और युवतियां शादी के बंधन में बंध जाने की बजाय साथ रहने लगते हैं। कोर्ट के इस बयान के बाद लगता है कि हमारा समाज बालीवुड की फिल्म दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे के दौर से आगे निकल कर अब सलाम नमस्ते जैसी फिल्मों के दौर में पूरी तरह प्रवेश करने को आतुर है। इधर हमारी अदालतें भी लिवइन को उदार नजर से देखने लगी हैं और ऐसे रिश्ते से जन्मे बच्चों को उनका जायज हक दे रही हैं। इस तरह सोसायटी में लिवइन रिलेशनशिप को लेकर अब लोग हाय तौबा मचाते भी कम लोग ही नजर आ रहे, जैसे आज से दस साल पहले तक था। अलबत्ता ऐसे लोग भी कम नहीं, जो इस ट्रेंड को विवाह और परिवार के ट्रेडिशन के खिलाफ मानते हैं। उनका कहना है कि सदियों से लागू इन परंपराओं के टूटने से सोसायटी में बिखराव पैदा होगा। यानी उनकी नजर में, लिवइन रिलेशनशिप अनैतिक है। जाहिर है, यह एक बड़ा सामाजिक मुद्दा है, जिसका जवाब हमें हमारे भारतीय समाज के अंदर ही खोजना होगा। वैसे महाराष्ट्र सरकार तो लिव इन रिलेशन को कानूनी मान्यता देने के लिए प्रस्ताव पहले ही पारित कर चुकी है। यदि केंद्र सरकार की मंजूरी मिल जाए, तो यह महाराष्ट्र में कानून भी बन सकता है। वैसे भी महाराष्ट्र में लिव इन रिलेशनशिप की संख्या काफी ज्यादा है। गौरतलब है कि २००८ में भी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि लंबे समय से लिवइन रिलेशनशिप में रह रहे महिला पुरुष को मैरिड कपल्स की तरह ट्रीट किया जाएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या होंगे इस फैसले के दूरगामी प्रभाव। लिवइन रिलेशनशिप एक तरह से महानगरों में अब कल्चर का हिस्सा बन गए हैं। थोड़ी बहुत हिचक के साथ प्रोग्रेसिव लोगों ने इस रिलेशनशिप को एक तरह से स्वीकार ही कर लिया है। बावजूद इसके अधिकतर भारतीय अभी भी इसके खिलाफ ही हैं। दरअसल, इस रिलेशनशिप को लोग अभी भी मौज मस्ती वाले रिलेशनशिप के रूप में ही देखते हैं। वैसे, काफी हद तक यह सही भी है। आखिर अगर कोई शादी के बाद की स्थिति को सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हो, तो भला इस रिलेशनशिप की उसे जरूरत ही क्यों होगी? शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया फैसले से, जिसके अनुसार अब लिवइन रिलेशनशिप में पैदा हुई संतान को भी कानूनी वैधता मिलेगी, से तमाम लोग निराश भी हैं। हालांकि कुछ लोगों के लिए यह एक बड़ी खुशखबरी है। जो लोग सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से निराश हैं, उनकी चिंता यह है कि इससे शादी नामक संस्था पर असर पड़ेगा। आखिर अगर लिवइन इतना आसान होगा, तो लोग भला शादी के फेर में क्यों फंसना पसंद करेंगे?

Monday, March 15, 2010

शादी का लाइसेंस

ईरान में बाकी दुनिया की तरह बढ़ते तलाकों की वजह से चिंतित ईरान सरकार ने एक नया फरमान जारी किया है। इसके मुताबिक अब किसी भी नौजवान को शादी करने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना होगा। लाइसेंस के लिए उसे बाकायदा अप्लाई करना होगा, उसके बाद तीन महीने की आनलाइन ट्रेनिंग होगी। इसमें पास होने के बाद प्रमाणपत्र मिलेगा और तब निश्चित होगा की शादी की शहनाइयां बजेगी की नही। ईरान सरकार का यह आइडिया फिजूल की कसरत कहा जा सकता है। इससे टूटते परिवारों की समस्या खत्म होने वाली नहीं है। ईसाइयत और तमाम मजहब परिवार को बचाने की मुहिम चलाए हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद अमीर और अमीर होते समाजों में तलाक बढ़ रहे हैं। प्राइवेट लाइफ में सरकार का बेवजह दखल कोई भी नहीं बर्दाश्त कर सकता। मान लीजिय ईरान सरकार के नए फरमान के मुताबिक कोई भी नौजवान इस प्रमाणपत्र को प्राप्त कर शादी कर भी लेता है और उसके बावजूद तलाक दे देता है, तो वहां की सरकार क्या कर लेगी और इससे भला कैसे तलाक की समस्या का निदान हो जाएगा। सोचिए कि अगर हमारे देश में यह कानून लागू होता तो अब तक पूरे देश में बवाल मच चुका होता। जिस देश मे ंराहुल महाजन और राखी सावंत जैसे लोग स्वयंबर रचा रहे हैं। राखी सावंत को स्वयंबर के बाद भी अपने होने वाले पति से मोह भंग हो जाता है। अब देखते हैं कि ईरान सरकार का यह फरमान वहां के लोगों पर कितना असरकारी साबित होगा।

Saturday, March 13, 2010

...हम हिंदुस्तानी

भारत का हर हिस्सा सबके लिए है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने पटना में यही कहा था। मुंबई यात्रा के दौरान भी उनका यही आशय था। मुकेश अंबानी हों या फिर सचिन तेंदुलकर सभी खुद को पहले भारतीय मानते हैं। अभी हाल में आशा भोंसले ने भी यही बात नये अंदाज में कही है। मुंबई हो या फिर चेन्नई अथवा कोलकाता सभी क्षेत्रीयता के रंग से यदा कदा प्रभावित होते रहे हैं। अब यह बात जोर पकड़ने लगी है कि हम गुजराती, मराठी, बंगाली बाद में हैं और भारतीय पहले। जाने-माने उद्योगपति मुकेश अंबानी ने यही कहा। महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर का भी यही मत था। यही बात बालीवुड के किंग खान शाहरुख ने भी कही। संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत सहित भाजपा के आला नेताओं ने भी इस मुद्दे पर शिवसेना और मनसे को खरी-खोटी सुनाई। लगातार इन्हें करारे जवाब मिले। इन्हें मुंह की खानी पड़ी लेकिन इनका रवैया नहीं बदला। पिछले कुछ वर्षों से मुंबई में यह सवाल बार-बार उठा कि आखिरकार मुंबई किसकी है, सभी देशवासियों की या सिर्फ मराठियों की। शिवसेना व मनसे ने इस सवाल को तीखा बनाया। उत्तर भारतीयों के खिलाफ खूब बवाल हुआ। इसी आधार पर यह दोनो दल महाराष्ट्र में लंबे समय से अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते रहे हैं। अक्सर महाराष्ट्र मनसे और शिवसेना की अंधेरगर्दी के कारण चर्चा में बना रहता है। कभी किसी मामले को लेकर तो कभी किसी अन्य मामले पर। अब जब न सिर्फ देश के हर कोने बल्कि पूरे महाराष्ट्र से उत्तर भारतीयों को निशाने पर लेने वाली मनसे और शिवसेना को करारा जवाब मिल रहा है तो इनकी बोलती बंद है। हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान जब आशा भोंसले ने मनसे प्रमुख राज ठाकरे की मौजूदगी में कहा कि मुंबई उन सब लोगों की है, जो इस शहर में दिन-रात मेहनत करते हैं। इस पर न तो राज ठाकरे कुछ बोल पाए और न ही बाल ठाकरे और उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने ही कोई प्रतिक्रिया दी। शायद इनकी भी समझ में आ गया है कि अगर अब ये कुछ बोले तो उनके लोग ही खिलाफ हो जाएंगे। राहुल गांधी के मुंबई दौरे के बाद महारष्ट्र के लोगों ने इन दोनो ही दलों की नीतियों और कार्य शैली से किनारा करना शुरू कर दिया है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है।मुंबई किसकी है ? इस सवाल का जवाब देने के लिए आशा भोंसले को इससे बेहतर मौका नहीं मिल सकता था। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने आशा भोंसले को सम्मानित करने के लिए पुणे में कार्यक्रम का आयोजन किया था। मनसे पार्टी सुप्रीमो प्रमुख राज ठाकरे खुद उन्हें सम्मानित करने के लिए मंच पर मौजूद थे। इस मंच से आशा भोंसले ने कहा कि मुंबई उन सब लोगों की है, जो इस शहर में दिन-रात मेहनत करते हैं। उन्होंने कहा कि प्रत्येक भारतीय को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रोजी-रोटी कमाने का हक है। आशा भोंसले ने एमएनएस नेताओं और समर्थकों को नसीहत देते हुए कहा कि महाराष्ट्र के लोगों को भी ऐसी ही कड़ी मेहनत करनी चाहिए। उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि, मैंने दिन रात मेहनत की और अपने हिस्से की उपलब्धि हासिल की। कोई मुझसे यह नहीं छीन सकता। देश की मशहूर गायिका ने कहा कि मुझे मराठी बोलने में परेशानी होती है। मैं उसे सीखने की कोशिश कर रही हूं। मैं हिंदी बोलने में सहज महसूस करती हूं और उसे बोलना मुझे अच्छा लगता है। आशा का यह उद्बोधन सुनकर वहां मौजूद लोग और राज ठाकरे पहले तो हैरान हुए लेकिन बाद में सबने खूब तालियां बजाईं। आशा ने कहा कि वह पूरे भारत की हैं क्योंकि उन्होंने कई भाषाओं में गाने गाए हैं। कुछ महीने पहले जब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने मुंबई का दौरा किया था तब शिवसेना और एमएनएस इस पर बौखला गईं थीं। बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे ने जहां जमकर बयानबाजी की वहीं राज ठाकरे ने महाराष्ट्र को देश से बांटने तक की बात कह डाली थी।

Wednesday, March 3, 2010

विवादों के हीरो

एम.एफ.हुसैन और तस्लीमा नसरीन दो ऐसे नाम हैं, जो अपनी अभिव्यक्तियों के कारण लंबे समय से विवादों में हैं। एम.एफ.हुसैन हिंदू कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं तो तस्लीमा नसरीन मुस्लिम कट्टरपंथियों के। मकबूल फिदा हुसैन इस बार न तो माधुरी के पीछे पागलपन के कारण चर्चा में हैं और न ही किसी ऐसे चित्र को लेकर जिस पर हिन्दु समाज ने आपत्ति दर्ज करवाई हो। दरअसल अब वे कतर की नागरिकता ग्रहण कर चुके हैं और इसी वजह से वह चर्चा में हैं। ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि श्री हुसैन को भारत वापस आना चाहिए। यघपि इस मुद्दे पर सरकार आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे रही। हाल ही में संघ परिवार ने भी एक बयान दिया था कि उसे हुसैन के भरत वापस आने पर कोई आपत्ति नहीं है। हालांकि हुसैन तब तक कतर की नागरिकता ग्रहण कर चुके थे। राजा रवि वर्मा, अमृता शेरगिल की तरह हुसैन पूरे भारत के लोकप्रिय चित्रकार थे। उनकी बनाई एकएक तस्वीर लाखों में बिकती थी, तो उसके पीछे कुछ बात होगी ही। लेकिन ९० के दशक में ७० के दशक में बनाई गई उनकी कुछ तस्वीरों पर विवाद शुरू हो गए थे। यह वह समय था जब देश में राजनीति पर धार्मिक मुद्दे तेजी से हावी हो रहे थे, धार्मिक पहचान के नाम पर मतदाताओं का धुवीकरण हो रहा था। और उन्हीं विवादों के चलते हुसैन को निर्वासन पर मजबूर होना पड़ा था। इतना ही नहीं, उनकी कला प्रदर्शनियों में भी व्यवधान डाला जाता रहा। निर्वासन का यही दंश तस्लीमा नसरीन भी भुगत रही हैं। ला उपन्यास पर जान की धमकी मिलने के बाद उन्होंने बांग्लादेश छोड़ दिया। यूरोप, अमरीका में रहने के बाद २००४ में भारत की अस्थायी नागरिकता उन्हें ंमिली। प.बंगाल में रहते हुए उन्होंने अपना लेखन जारी रखा, उस पर विवाद भी हुए। बाद में तस्लीमा को कोलकाता छोड़ना पड़ा और अंततः भारत भी। हुसैन ने हाल ही में कतर की नागरिकता स्वीकार कर ली, जिस पर तथाकथित बौध्दिक समाज में विमर्श जारी है कि उनका यह निर्णय सही है या नहीं और इसके लिए जिम्मेदार कौन है। विमर्श का नतीजा चाहे जो सामने आए, एक बात तो तय रही कि अपने एक अनूठे कलाकार को भारत ने खो दिया, उसकी बहुलतावादी संस्कृति उसे संरक्षण देने में असफल साबित हुई।लगातार विवादों को जन्म देने वाली तस्लीमा नसरीन के एक लेख पर कर्नाटक में ऐसा विवाद खड़ा हो गया कि बात दंगों तक पहुंच गई और इसमें दो लोगों की मौत भी हो गई। हालांकि बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन ने कहा कि उन्होंने कभी किसी कन्नड़ अखबार के लिए कोई लेख नहीं लिखा। यह उनकी छवि धूमिल करने का प्रयास है। तस्लीमा ने एक वक्तव्य (जो प्रेट्र को उपलब्ध हुआ है) में कहा कि उन्होंने कर्नाटक के किसी अखबार के लिए कभी कोई लेख नहीं लिखा। तस्लीमा ने कहा कर्नाटक में एक मार्च को जो भी हुआ, उससे मुझे आघात पहुंचा है। मुझे पता चला कि यह संघर्ष एक कन्नड़ अखबार में मेरे द्वारा लिखे लेख द्वारा फैला, लेकिन मैंने अपनी जिंदगी में किसी कन्नड़ अखबार के लिए कोई लेख नहीं लिखा। तस्लीमा ने कहा लेख का प्रकाशन घटिया हरकत है। मैंने अपने किसी लेख में यह नहीं लिखा कि मोहम्मद साहब बुर्के के खिलाफ थे। इसलिए यह बिगाड़ कर पेश किया लेख है।