Monday, February 1, 2010
नहीं रहे छोटे लोहिया
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जनेश्वर मिश्र नहीं रहे। जनेश्वर मिश्र सपा के लो-प्रोफाइल लेकिन बेहद सम्मानित नेता थे। राजनीतिक हलकों में छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर मिश्र का जन्म ५ अगस्त १९३३ को बलिया के शुभनथही गांव में हुआ था। उन्होंने समाजवाद की दीक्षा डाक्टर राम मनोहर लोहिया व राजनारायण जैसे प्रखर समाजवादी नेताओं से ग्रहण की। १९६९ के फूलपुर उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस के केशवदेव मालवीय को हरा कर सनसनी फैला दी थी। इसी सीट से उनके राजनीतिक गुरु डाक्टर राम मनोहर लोहिया १९६२ में नेहरूजी से हार गये थे। उत्तर प्रदेश की फूलपुर सीट शुरू से ही नेहरूजी की सीट मानी जाती रही है। यहां से जीतना किसी के लिए भी सम्मान की बात हो सकती है। बाद में उन्होंने एक चुनाव में वी.पी.सिंह जैसे राजनीतिक धुरंधर को भी हराया था। डाक्टर लोहिया के समाजवादी विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आरंभ किये गये अंग्रेजी हटाओ आंदोलन की अगुवाई की थी। लोहिया को उनके शिष्यों ने अलग-अलग तरीकों से याद किया है किंतु जनेश्वर मिश्र का अंदाज सबसे निराला था। उनकी नयी दिल्ली स्थित कोठी पर साइन बोर्ड लगा है 'लोहिया के लोग'। सचमुच उनका घर हमेशा लोहिया के शिष्यों के लिए खुला रहा। समाजवादियों में एक अवगुण आम तौर पर देखा गया है। वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा महत्व को सैद्धांतिक मतभेद का नाम देकर कई बार विभिन्न गुटों में बंटे, पुरानी पार्टी छोड़ी व नयी पार्टी बनायी लेकिन जनेश्वर मिश्र ने ऐसा कभी नहीं किया। वे जिसके साथ भी रहे खुल कर उसका साथ दिया। कभी व्यक्तिगत की टकराहटों को उन्होंने राजनीतिक रंग देने की कोशिश नहीं की। अव्वल तो वे किसी से नाराज नहीं होते थे, यदि कोई बात होती भी थी तो वे उसे पार्टी फोरमों पर ही उठाते थे। डाक्टर लोहिया की मृत्यु के बाद वे राजनारायण के सहयोगी के रूप में सक्रिय रहे। जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया तो वे उनकी पार्टी में शामिल हो गये। वे सपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक थे। सपा के प्रत्येक आंदोलन में उन्होंने शिरकत की। इसे संयोग ही कहेंगे कि जब वे आखिरी बार बीमार पड़े व अस्पताल में भर्ती हुए, वह सपा के प्रदेशव्यापी आंदोलन का इलाहाबाद में नेतृत्व कर रहे थे। वे भी अन्य पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह गिरफ्तारी देने के लिए आगे बढ़े लेकिन पुलिस ने खराब स्वास्थ्य के चलते उन्हें गिरफ्तार नहीं किया। समाजवाद के प्रति उनकी आजवीन आस्था बनी रही। इतनी लंबी राजनैतिक जिंदगी और बेदाग कट जाए यह किसे मयस्सर होती है लेकिन जनेश्वर मिश्र ने इसे सच कर दिखाया। वे तमाम गैर कांग्रेसी सरकारों में बतौर मंत्री शामिल रहे लेकिन उन्हें सत्ता का मद कभी नहीं हुआ। वे आम जनता से सीधे जुड़े रहे। छात्रों व नौजवानों में वे बेहद लोकप्रिय थे। सपा का थिंक टैंक माना जाता था उन्हें। इलाहाबाद जैसे राजनैतिक रूप से सक्रिय और जागते हुए शहर की वह संभवतया आखिरी कड़ी माने जा सकते हैं। वह शहर जिसने राजनीति में नेहरूजी, शास्त्रीजी, इंदिराजी, हेमवती नंदन बहुगुणा, वी.पी.सिंह केशवदेव मालवीय, डाक्टर राम मनोहर लोहिया, राजनारायण,एन डी तिवारी व सत्य प्रकाश मालवीय सरीखे नेताओं को पहचान दी। इसी इलाहाबाद में आखिरी सांस ली जनेश्वर मिश्र ने।उन्होंने हमेशा मूल्यों पर आधरित राजनीति की। वे अपने प्रबल विरोधियों के प्रति भी कभी असंसदीय टिप्पणी करके उन्हें आहत नहीं करते थे। राजनीति में अजातशत्रु माना जा सकता है उन्हें। समाजवादी पार्टी ने दिवंगत नेता के प्रति सम्मान जताने के लिए न सिर्फ अपने प्रदेश मुख्यालय का झंडा झुका दिया बल्कि सैफई में चल रहे सैफई महोत्सव को भी समाप्त घोषित कर दिया। सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का कहना था कि जनेश्वर मिश्र के निधन से राजनीति के एक शानदार युग का अंत हो गया। आज जब मूल्यों पर आधरित सिद्धांतों की राजनीति करने वाले चंद लोग ही बचे रह गये हैं, ऐसे में जनेश्वर मिश्र का चले जाना लंबे समय तक सालता रहेगा।
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