Monday, January 25, 2010

दीन हीन भारतीय हाकी

बातचीत की और खिलाड़ियों को आश्वस्त किया कि उन्हें सभी वित्तीय सहायता दी जाएंगी एवं उनकी मांगे भी मानी जाएंगी। खिलाड़ी अपनी शर्तों को माने जाने के बाद प्रशिक्षण शिविर में लौट गए। हाकी टीम के खिलाड़ियों द्वारा अपनी मांग उठाने के बाद कुछ राज्यों ने इन्हें आर्थिक मदद की पेशकश भी की। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पूरी टीम को वित्तीय मदद देने का प्रस्ताव किया है। पंजाब के उपमुख्यमंत्री और हाकी पंजाब टीम के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी कहा कि उनका राज्य हाकी टीम का प्रायोजक बनने को तैयार हैं, बशर्ते खेल मंत्रालय उसे यह उत्तरदायित्व देने को तैयार हो। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने खिलाड़ियों को आर्थिक मदद देने के उद्देश्य से हाकी इंडिया को ५ करोड़ रुपये की मदद देने की घोषणा की। जबकि टीम के प्रायोजक सहारा ने खिलाड़ियों के लिए एक करोड़ रुपये देने का ऐलान किया। उल्लेखनीय है कि १३ मार्च २०१० से दिल्ली में वर्ल्ड कप टूर्नामेंट शुरू होना हैं। देश के हाकी बोर्ड द्वारा हाकी इंडिया की टीम को बकाया भुगतान न किए जाने के बाद देश के हाकी खिलाड़ियों ने हाल ही में बोर्ड से बगावत कर दी थी। वैसे देखा जाए तो हाकी खिलाड़ी किन हालात में खेलते आ रहे हैं यह देख लेगे के बाद कोई भी इन खिलाड़ियों का समर्थन करता नजर आएगा। गौरतलब है कि मीडिया जगत में आखिरी बार हाकी का जिक्र तब हुआ था, जब भारतीय हाकी संघ को पिछले साल अप्रैल में भंग कर दिया गया था। फेडरेशन के अध्यक्ष पर गुंडई के इतने आरोप लगे कि भारतीय ओलंपिक संघ ने इस संस्था को ही ध्वस्त कर दिया। इसके बाद न कभी हाकी का जिक्र हुआ और न ही उसके खिलाड़ियों का। अब कोई दस महीने बाद एक बार फिर भारतीय हाकी का जिक्र हो रहा है लेकिन जिस घटनाक्रम के तहत यह चर्चा शुरू हुई है वह इस खेल के लिए राष्ट्रीय शर्म से कम नहीं है। पहले दुनिया में भारत और पाकिस्तान हाकी के प्रतिनिधि देश माने जाते थे। भारत ने हाकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा दे रखा है। जैसे दूसरे सभी राष्ट्रीय प्रतीकों का बुरा हाल है वैसे ही हाकी की भी हालत खस्ता है। हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की कहानियां पढ़कर समझदार हुई पीढ़ी को जब पता चला कि हाकी जैसा कोई खेल भी है जो राष्ट्रीय खेल है। सरकार ने हाकी की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए एकमात्र राष्ट्रीय स्टेडियम का नाम भी ध्यानचंद के नाम पर कर रखा है। उस दौर में जब ध्यानचंद हाकी खेलते थे तो भारत का नाम इस खेल में चमचमाता था। हाकी ही एकमात्र ऐसा खेल है जिसने ओलंपिक में भारत को आठ स्वर्ण पदक दिलाए हैं। समय के प्रवाह में क्रिकेट सर्वप्रिय खेल बन गया। कारपोरेट घरानों ने भी इसे पागलपन की हद तक जुनून बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जैसे अंग्रेजों की हर हरकत हमें आकर्षित करती है वैसे ही लाट साहब के इस खेल ने भी दिल में खास जगह बना ली। जैसे हिन्दी राष्ट्रीय भाषा होते हुए भी गैरजरूरी समझी जाती है वैसे ही हाकी राष्ट्रीय खेल होते हुए भी नकारा खेल बनता गया। आस्ट्रेलिया अगर आज क्रिकेट में आगे की पंक्ति पर खड़ा है तो वह हाकी, टेनिस, तैराकी, फुटबाल में भी अपनी धाक जमाये हुए है। जर्मनी फुटबाल खेलता है तो हाकी में चुनौती ह। टेनिस में भी वह नाम कमाता है। चीन ने ओलंपिक में अमेरिका को नाको चने चबवा दिए। लेकिन अपने यहां क्रिकेट को ही सबसे बड़ा खेल मान लिया गया है। एक तरह से देश में क्रिकेट उन्माद पैदा कर दिया गया है। खेल भी अब बाजार के जिम्मे कर दिए गए हैं। बाजार तय कर रहा है कि वह किस खेल को कितना बेचे। इस मोलभाव में हाकी का कोई नाम नहीं ले रहा है।

दांव पर अस्तित्व

मोहन भागवत जब पिछले दिनों लखनऊ आये थे तो खासी राजनीतिक गहमागहमी देखी गयी। उनके स्वागत में कुछ उत्साही भाजपा कार्यकर्ताओं ने बैनर व पोस्टर टांगे। संघ के एक महत्वपूर्ण केंद्र रहे निरालानगर के सरस्वती शिशु मंदिर में उनका भाषण सुनने के लिए भाजपा के कई बड़े नेता पूर्ण गणवेश में इकट्ठा हुए। इसी तरह लखनऊ सहित प्रदेश के कई महत्वपूर्ण शहरों में पिछले माह बुजुर्ग भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म दिन धूमधाम से मना करके माहौल को राजनैतिक रंग देने की कोशिश हुई। इन तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा में खास बदलाव का दौर शुरू नहीं हो सका। समूचे खेमे में मायूसी छाई हुई है और सन्नाटा पसरा हुआ है। हाल में संपन्न हुए विधान परिषद चुनाव में भी पार्टी खाता नहीं खोल सकी। इससे पहले प्रदेश में जितने भी विधान सभा उपचुनाव हुए उसमें भी भाजपा कोई खास सफलता नहीं हासिल कर सकी थी। अब भारतीय जनता पार्टी के सामने न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि देश भर में अस्तित्व बचाने का संकट उत्पन्न हो गया है। जब भी उत्तर प्रदेश में बसपा के राजनैतिक विकल्प की चर्चा छिड़ती है लोग या तो सपा का नाम लेते हैं या फिर कांग्रेस का। भाजपा की कोई भूल करके भी चर्चा नहीं करता है। पिछले एक डेढ़ साल से भाजपा उत्तर प्रदेश में कुछ भी नहीं कर सकी।भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में चौथे स्थान पर खिसक चुकी है। जबकि उत्तर प्रदेश में आज भी उसके पास राष्ट्रीय एवं प्रदेश स्तर पर कई बड़े नेता हैं। भाजपा की सबसे बड़ी चिंता यह है अब उसकी सामान्य तौर पर कोई चर्चा भी नहीं होती है। पिछले एक डेढ़ साल से जब भी प्रदेश में कोई चुनाव नजदीक आता है, भाजपा नेताओं के हाथ पांव फूल जाते हैं। उन्हें प्रत्याशी तक नहीं मिलते। हाल में संपन्न हुए विधान परिषद चुनाव में भाजपा को सभी छत्तीस सीटों के लिए प्रत्याशी नहीं मिल सके। पार्टी एक भी विधान परिषद सीट न जीत सकी।पिछले साल प्रदेश में जितनी भी विधानसभा सीटों के लिए उप चुनाव हुए भाजपा एक भी सीट नहीं हासिल कर सकी। लखनऊ पश्चिम की प्रतिष्ठापूर्ण सीट जो पिछले कई चुनावों से भाजपा नेता लालजी टंडन जीतते आ रहे थे, इस बार कांग्रेस ने हथिया ली। लालजी टंडन के इस्तीफे से खाली हुई इस सीट पर जब भाजपा ने उनके पुत्र के स्थान पर पुराने कार्यकर्ता अमित पुरी को चुनाव मैदान में उतारा तो टंडन अपनी नाराजगी छिपा न सके। उनकी नाराजगी का ही नतीजा था कि भाजपा को अपनी मजबूत सीट से हाथ धोना पड़ा। अन्य सीटों पर भी यही हाल रहा।भाजपा की उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी चिंता यह है कि कल्याण सिंह , कलराज मिश्र, लालजी टंडन, राजनाथ सिंह, ओम प्रकाश सिंह के रूप में जो नेतृत्व१९८९-९० के दौर में उभरा था, अब ढलान पर है। कल्याण सिंह दूसरी बार भाजपा छोड़ चुके हैं। लालजी टंडन लखनऊ लोकसभा सीट से सांसद जरूर हैं किंतु उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनकी वह हैसियत नहीं है जो मायावती, मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह जैसे नेताओं की है। राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल समाप्त करके इन दिनो अवकाश की मुद्रा में हैं। वे प्रदेश की राजनीति में नये सिरे से सक्रिय होंगे इसकी कम संभावना है। ओम प्रकाश सिंह पूर्वांचल के बड़े नेता जरूर हैं किंतु अब उनसे भी चमत्कार की उम्मीद करना व्यर्थ है। विनय कटियार जो कभी बजरंग दल के फायर ब्रांड नेता थे, एक जमाने में तेजी के साथ आगे बढ़े। इन्हें भरपूर लोकप्रियता भी हासिल हुई किंतु ये कुछ खास न कर सके।भाजपा के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष डा. रमापति राम त्रिपाठी भी अपना अलग राजनैतिक कद नहीं बना सके। न तो वे कभी पूर्वांचल के बड़े नेता थे और न ही प्रदेश स्तर पर उनकी गिनती होती थी। उनसे ज्यादा तो गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ की भाजपा में पूछ है। गोरखनाथ पीठ के महंत होने के अलावा वे हिंदू युवा वाहिनी के बहाने भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों, कस्बों, शहरों व महानगरों में छाये हुए हैं। यह वही संगठन है जो कभी आखिल भारतीय हिंदू महासभा के नाम से जाना जाता था। हिंदू महासभा को अपने जमाने में महंत दिविजय नाथ और महंत अवैद्यनाथ ने भी आगे बढ़ाया था। यह संगठन उसी तरह प्रखर हिंदुत्व की वकालत करता है जिस प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्र्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और शिव सेना। बहरहाल डा. रमापति राम त्रिपाठी भी भाजपा को नयी पहचान न दे सके।भाजपा को उत्तर प्रदेश में दुबारा पटरी पर लाने के लिए नितिन गडकरी और मोहन भागवत कौन से नये नुस्खे आजमायेंगे यह देखना दिलचस्प रहेगा। भाजपा से जुड़े संगठनों भारतीय जनता युवा मोर्चा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ का बुरा हाल है। विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी उत्तर प्रदेश में विस्तार थमा है। राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद आंदोलन के थम जाने के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोई ऐसा मुद्दा नहीं मिला जिसके बल पर वह अपनी राजनैतिक जमीन बचाये रखती। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा की तीन बार सरकार बनवाई। इससे बसपा तो लगातार मजबूत होती गयी किंतु भाजपा पिछड़ती गयी। उसे कल्याण सिंह की बगावत ने भी कमजोर किया। कल्याण सिंह ने पहले राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई, फिर वे सपा के बगलगीर हुए और अब उन्होंने जन क्रांति पार्टी बनाई हर बार उन्होंने भाजपा को ही कमजोर किया। भाजपा की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसके पास उत्तर प्रदेश में कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं बचा जिसके सहारे वह आगे की राजनीति कर सके

अभियान के अगुआ

अपने मन की कहते हैं और विरोधियों पर पूरी सौम्यता से हमलावर होते हुए कांग्रेस के युवराज और महासचिव राहुल गांधी कांग्रेस के अभियान के नेता हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सफलता के झंडे गाड़ने के बाद अब कांग्रेस के युवा सम्राट राहुल गांधी ने बिहार की ओर अपना रुख किया है। अपने हाल के बिहार दौरों से श्री गांधी ने यह संकेत दे दिया है कि बिहार अब उनकी पहली प्राथमिकता है और बिहार में कांग्रेस को स्थापित करने में वह कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे।राहुल के बिहार के दौरों पर अगर एक नजर डाली जाए तो उससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी राहुल ने दलितों, शोषितों और गरीबों के बीच जाकर उनका दुःख दर्द सुनने का अभियान छेड़ दिया है। वैसे तो पूरे देश के कमजोर वर्गों की राहुल की ओर आशा भरी नजरें लगी हुई हैं लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने क्रमबद्ध तरीके से अपना राजनीतिक एजेंडा तय कर दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली भारी सफलता का श्रेय राहुल गांधी को जाता है। इस चुनाव में मिली अपार सफलता के बाद राहुल की निगाहें अब प्रदेशों के विधान सभा चुनाव पर है।इन्ही विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राहुल गांधी ने अपना राजनीतिक एजेंडा तैयार किया है। उन्होंने अपने एजेंडे में प्राथमिकता के आधार पर बिहार विधान सभा चुनाव को पहले स्थान पर रखा है। अगामी विधान सभा चुनाव में राहुल ने बिहार में कांग्रेस को पुनः वापस लाने का संकल्प किया है। बिहार में हो रहे उनके दौरों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उत्तर प्रदेश के बाद बिहार में कांग्रेस को मजबूत करके राहुल उत्तर भारत में कांग्रेस की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः हासिल करना चाहते हैं।धीरे धीरे राहुल गांधी उत्तर भारत में कांग्रेस की धूरी बनते जा रहे हैं। वैसे तो भारतीय राजनीति की धुरी धीरे-धीरे राहुल गांधी की तरफ केंद्रित होती दिखाई दे रही है। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं लेकिन राहुल गांधी का विजन सिर्फ सत्ता की राजनीति तक सीमित नहीं है। सत्ता से ऊपर उठकर वह देश को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार कर रहे हैं। देश के सामने चुनौतियां २२वीं सदी की हैंं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए राहुल हर प्रदेश का दौरा करके वहां की स्थितियों का अवलोकन कर उन पर कार्य कर कर रहे हैं। नये जमाने की नई चुनौतियों के लिए राहुल देश को तैयार करना चाहते हैं। वे अपने पिता राजीव गांधी की तरह अपने काम और विचारों के प्रति बेहद आश्वस्त हैं। भारतीय राजनीति में राहुल गांधी इकलौते ऐसे नेता हैं जिनका व्यक्तित्व कोरे कागज की तरह है। उनके व्यक्तित्व में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, लीक से हटकर सोचने और कुछ करने की क्षमता है। कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव सहित महाराष्ट्र, राजस्थान, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, दिल्ली आदि प्रदेशों में बेहतरीन काम करके दुबारा सरकार बनायी है तो उसमें कहीं न कहीं राहुल गांधी की राजनीतिक सोच का भी सकारात्मक असर पड़ा। अब इसी तर्ज पर वे बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में गरीबों, दलितों और आम आदमी के बीच जाकर उनकी परेशानियों से रू-ब-रू हो रहे हैं। आने वाले समय में बिहार में विधान सभा के चुनाव होने है। जिसके मद्देनजर राहुल प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत बनाने का काम कर रहे हैं। बिहार में राहुल गांधी ने 'एकला चलो' का नारा दिया है। हाल ही में अन्य प्रदेशों में भी उन्होंने इसी नारे के सहारे कांग्रेस की विजय पताका फहरायी और नतीजा सबके सामने है। वे उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस की वापसी चाहते हैं। हाल में युवक कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव करने के लिए उन्होंने सीधे साक्षात्कार का सहारा लिया। बहरहाल मुद्दों पर संघर्ष के बजाय वे युवाओं पर विशेष निगाह रखना चाहते हैं। संघर्ष की बात वे अक्सर देश को याद दिलाते रहते हैं। आजादी और आंतकवाद से निपटने के लिए उनके परिवार ने कितनी कुर्बानी दी सभी जानते हैं। उनकी कोशिश है कि संघर्ष के बजाय युवाओं को अपना अभिमन्यु बनाया जाए। देश भर में कोई दस हजार कालेज हैं। हरेक कालेज में कम से कम सौ छात्रों को छांटकर उनको अपनी टोली में शामिल करना, जिनसे उनका सीधा संवाद हो, यह है राहुल की रणनीति। उनके टेलेंट हंट से प्रभावित एक युवा कांग्रेसी नेता का कहना है कि राहुल का यह सपना जब साकार होगा तब वह देश के युवाओं के अकेले नेता होंगे। इन पढ़े लिखे एक लाख नौजवानों के दम पर वे भारत की तस्वीर बदल देंगे। उनकी हंट प्रतिभा का प्रयोग और भर्ती की खबर प्रायःसुर्खियां बटोरती रहती है। राहुल वर्तमान समय में मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश , झारखंड आदि राज्यों में जाकर वहां के कालेजो, विश्र्वविद्यालयों में युवाओं से सीधे रू-ब-रू हो रहे हैं। जब वह किसी कालेज में जाते हैं तो सब पर उनका जादू बढ़ चढ़ कर बोलता है। इसलिए कभी दिल्ली तो कभी गुजरात के किसी कालेज में पहुंच जाते हैं। हाल में गुजरात में राज्य सरकार ने युवाओं के बीच कार्यक्रम की उन्हें अनुमति नहीं दी तो वे कालेज की कैंटीन पहुंच गए। कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश में कानपुर में चंद्रशेखर कृषि विश्व विद्यालय में उनके कार्यक्रम को इजाजत नहीं मिली तब भी वह वहां पहुंच गए। मध्य प्रदेश में छात्रों से मुलाकात कर उन्होंने देश के सामने आने वाली भविष्य की चुनौतियों पर चर्चा की। हाल ही में उन्होंने कांग्रेस के नेताओं को संदेश दिया कि 'कांग्रेस को कोई और नहीं हराता बल्कि खुद कांग्रेसी ही हराते हैं।' कभी वह कहते हैं कि 'सभी पार्टियों में लोकतंत्र का अभाव है।' कुछ राजनैतिक पंडितों ने सवाल उठाया कि कांग्रेस खुद कोई लोकतांत्रिक पार्टी नहीं है लेकिन कांग्रेसियों ने खूब वाहवाही की। राहुल बड़े होने लगे हैं, लोकतंत्र की बात करने लगे हैं। कांग्रेस का कमाल है कि उसके पास लोकतंत्र की बात करने वाला महासचिव हैं।
देश की गरीबी के बारे उनके पिता राजीव गांधी को कम चिंता नहीं थी। उन्होंने सत्ता को दलालों से दूर रखने के साथ यह खुलासा भी किया था कि केंद्र के एक रुपये में से केवल पंद्रह पैसा ही नीचे पहुंचता है। उसका जिक्र कर राहुल गांधी अभी भी देश के गरीबों का हाल जानने की कोशिाश करते हैं। राहुल गांधी को जिस तरह उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदियों की सराहना मिल रही है, वह भी एक सुखद आश्चर्य है। आमतौर पर हमारे नेताओं में अपने विरोधियों की प्रशंसा करने का बड़प्पन नहीं दिखाई देता। अब तो अपने विरोधियों की हरेक गतिविधि को आंख मूंदकर खारिज करना राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। ऐसे में अगर बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा, समाजवादी पार्टी की सांसद जयाप्रदा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राहुल गांधी के काम की तारीफ की तो यह निश्चय ही रेखांकित करने योग्य तथ्य है। शत्रुघ्न सिन्हा और जयाप्रदा ने किसी सियासी रणनीति के तहत ऐसा नहीं किया। न ही अपनी पार्टी के निर्देश पर इन्होंने ऐसा बयान दिया। इन्होंने तो अपने मन की बात खुलकर कही। इन्होंने राहुल के कामकाज का निष्पक्ष मूल्यांकन किया। जयाप्रदा सपाई हैं तो शत्रुघ्न सिन्हा उस दल से हैं जिसने राहुल गांधी की गांवों की यात्राओं को ढोंग करार दिया। फिर भी शत्रुघ्न सिन्हा ने अपना विचार व्यक्त करने में संकोच नहीं किया। संघ भले ही कांग्रेस की अनेक मामलों में खिंचाई करता रहा हो पर गांवों से जुड़ने की राहुल की कोशिशों की उसने तारीफ की और सभी राजनेताओं को ग्रामीण जनजीवन से जुड़ने की सलाह दी । आरएसएस का कहना है कि अगर गांवों का विकास हुआ तो वहां से पलायन की समस्या पर रोक लग जाएगी। दरअसल राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति की जड़ता को तोड़ने की कोशिश की है। उनका संदेश है कि सियासत को एयरकंडीशंड कमरों से बाहर निकाला जाए। उसे पोलिटिकल मैनेजरों के चंगुल से मुक्त किया जाए और समाज के व्यापक वर्ग के हितों से जोड़ा जाए। दुर्भाग्य से ज्यादातर राजनीतिक दल इसे कांग्रेस का राजनीतिक हथकंडा ही मानते रहे हैं लेकिन इसे एक सबक के रूप में लिया जाए तो देश का ही भला होगा। कुछ अरसा पहले सोनिया गांधी ने कहा था कि उनका बेटा या बेटी अगर सियासत में आते हैं तो यह उनका अपना फैसला होगा। यह माना जा सकता है राहुल अपने विवेक से सियासत में सक्रिय हुए हैं। उनकी सक्रियता का ही नतीजा है कि कांग्रेस आज पूरे देश में हर जगह मजबूत हो रही है। राहुल को नेहरू-गांधी परिवार का जो प्रभामंडल मिला है उसकी एक खासियत यह भी रही है कि हर अगली पीढ़ी ने खुद को पिछली पीढ़ी से कुछ अधिक महत्वाकांक्षी, कुछ अधिक उग्र साबित किया है। मोतीलाल नेहरू स्वतंत्र उपनिवेश की स्थिति से संतुष्ट नजर आते थे लेकिन जवाहरलाल ने पूरी आजादी को राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। प्राइम मिनिस्टर नेहरू केरल की निर्वाचित सरकार को हटाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमती इंदिरा गांधी की जिद ने ऐसा करना जरूरी समझा। इंदिरा गांधी की तुलना में संजय गांधी के तौर तरीके ज्यादा उग्र थे। शांत और गंभीर माने जाने वाले राजीव गांधी भी जब महासचिव बने तो आंध्र प्रदेश के चीफ मिनिस्टर को हवाई अड्डे पर सरेआम फटकार लगा बैठे। इसे लोगों ने आंध्र गौरव का अपमान माना था, जो आखिरकार तेलुगू देशम के उभार की वजह बना। इस उग्रता को सिर्फ नकारात्मक संदर्भ में न देखा जाए तो यह आशा की जा सकती है कि अगली पीढ़ी बेहतर कल की तरफ ज्यादा बेकरारी से बढ़ना चाहती है। अब राहुल इसके एक नुमाइंदे के तौर पर सामने आए हैं। सोनिया गांधी ने कहा था कि उनके या राहुल के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। लेकिन कांग्रेस में जिस तरह का माहौल बनता जा रहा है उससे तो यही लगता है कि राहुल खुद वह जादू की छड़ी हैं जो यूपी और बिहार में कांग्रेस को फिर से आगे ही नहीं लाएंगे बल्कि गठबंधन की मजबूरी से भी आजाद कर देंगे। भारतीय राजनीति में बड़े बदलाव अक्सर बिना किसी शोरशराबे के आते रहे हैं। फिर चाहे वह गांधी का एक अल्पज्ञात नेता के तौर पर ट्रेन के तीसरे दर्जे में सवार होकर भारत दर्शन करना हो या फिर कांशीराम का घूम घूमकर दलित सरकारी कर्मचारियों का संगठन बनाना। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनावों के जरिए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र लाने की कवायद को भरपूर चर्चा मिल रही है। राहुल गांधी पार्टी में अपने स्टेटस और गांधी नाम की वजह से मिले ऊंचे कद से जुड़े सवालों पर एक ही और बहुत ठोस जवाब देते हैं कि सिर्फ इसलिए कि मैं एक हायार्की, एक सिस्टम की वजह से यहां खड़ा हूं, मैं चीजों को बदलने की कोशिश न करूं, तो गलत होगा। ऐसी ही एक कोशिश है पार्टी को युवा ऊजार् और युवा कार्यकर्ता बख्शना।

चीनी की बेतहाशा बढ़ती कीमतें

बहुत दिनों बाद ऐसा मौका आया जब चीनी ने गुरु गुड़ को कीमतों के मामले में शिकस्त दे दी। इन दिनों खुदरा बाजार में गुड़ की कीमत ३५ रुपये है, जबकि चीनी ४६-४८ रुपये प्रति किलो बिक रही है। बहुत जल्द यह ५० रुपये प्रति किलो बिकने की तैयारी में है। चीनी के बाद दूध के मूल्य में भी उबाल आना तय है। खासतौर पर उत्तर भारत के राज्यों में। कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार ने दूध की उपलब्धता बढ़ाने के लिए खरीद मूल्य बढ़ाने पर विचार करने जरूरत बताई है। यह वही पवार हैं जिनके एक बयान से ही चीनी के मूल्य सातवें आसमान पर हैं। उनके ऐसे ही एक बयान से चावल के दामों में भी उछाल आया।उनके ताजा बयान से चाय की प्याली से दूध उड़न छू हो सकता है। दूध की जरूरतों को पूरा करने के मामले में अपना पल्ला झाड़ते हुए पवार ने साफ कहा, 'जब तक पशु पालकों से दूध की कीमत पर कोई फैसला नहीं हो जाता, मुझे नहीं मालूम कि विभिन्न राज्य मांग को पूरा करने के लिए दूध की खरीद कर पाएंगे या नहीं।' राज्यों के पशुपालन और डेयरी विकास मंत्रियों के सम्मेलन उन्होंने ऐलान किया कि देश को दूध की कमी का सामना करना पड़ रहा है। उत्तर भारत के राज्यों में इसकी किल्लत लगातार बनी हुई है। ऐसा तब है जब देश दूध उत्पादन में दुनिया में नंबर वन है। भारत में हरित क्रांति के बाद श्वेत क्रांति हो चुकी है। जनवरी माह में बाजार में चीनी की कीमत ४२५० रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गई। लोगों को अब किसी सूरत में ४६ से ४८ रुपए किलो से कम दर पर चीनी नहीं मिल सकेगी। आप अपने दफ्तर से निकल कर जिस किसी गुमटी वाले के पास चाय पीने जाएंगे, वह आप से चार से पांच रुपये प्रति कप की दर से वसूली करेगा। यह महंगाई सिर्फ गरीबों का ही नहीं बल्कि अधिकांश परिवारों का बजट गड़बड़ा रही है। उन्हें चीनी की खपत के बारे में नई रणनीति तैयार करने को विवश कर रही है। चाय कम पी जाए या फिर गुड़ की चाय पी जाए। मगर हमारे केंद्रीय कृषि, उपभोक्ता, खाद्य और जन वितरण मंत्री शरद पवार इससे परेशान नजर नहीं आ रहे। यूपीए की दुबारा बनी सरकार में वे अपने मंत्रालय पर पिछले टर्म के मुकाबले अधिक ध्यान दे रहे हैं और तब यह हाल है। पिछले टर्म में उनका अधिकांश समय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की समस्याओं को निबटाने में बीतता था। शरद पवार का गृह राज्य महाराष्ट्र देश में चीनी के उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे पायदान पर माना जाता है। वहां की शुगर लाबी से उनकी नजदीकियों के चर्चे अक्सर होते रहे हैं। पिछले दशक तक इस राज्य में कोआपरेटिव शुगर मिलों का एकाधिपत्य था। मौजूदा दशक में राज्य में कई प्राइवेट शुगर मिलें अस्तित्व में आईं और चीनी के उत्पादन में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी निभाने लगीं। इसे संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि अधिकांश बड़ी प्राइवेट शुगर मिलें कांग्रेस और राकांपा के शीर्ष नेताओं के संबंधियों के स्वामित्व वाली हैं। उदाहरण के तौर पर लातूर की मांजरा चीनी मिल पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव के स्वामित्व में चीनी उत्पादित करती है। श्रीगोंडा स्थित साईंकृपा शक्कर कारखाना राज्य के आदिवासी कल्याण मंत्री बावनराव पचपुते के स्वामित्व वाला है। प्रतिदिन ४५०० टन गन्ने की चीनी बनाने की क्षमता वाले बारामती एग्रो और ३५०० टन गन्ने की खपत वाली दौंड शुगर लिमिटेड राजेंद्र पवार और अजीत पवार की है। दोनों शरद पवार के भतीजे हैं। ऐसे में पहले गन्ना किसानों के खिलाफ नीति तैयार करना और फिर एकाएक चीनी की कीमतों में भारी उछाल के लिए न सिर्फ शरद पवार बल्कि कांग्रेस नेतृत्व को भी जवाबदेह होना पड़ेगा। कहीं यह शुगर मिल को फायदा पहुंचाने के लिए तो नहीं हो रहा। बहरहाल पहले राज्य सरकारों और अब चीनी मिलों की उत्पादन क्षमता में कमी को मूल्य वृद्धि के लिए जवाबदेह ठहराने वाले शरद पवार ने चीनी के आयात का फैसला कर लिया है। इससे कितना डैमेज कंट्रोल होगा यह आने वाले समय में देखा जाएगा। बहुत पहले जब देश में चीनी मिलें कम थीं और गुड़ उत्पादित करने वाली भट्ठियां अधिक तब चीनी की कीमत अधिक हुआ करती थीं। तब सस्ता गुड़ गरीबों का आहार माना जाता था। हाल के पंद्रह-बीस वर्षों में गुड़ की भट्ठियां कम होती गईं और चीनी मिलें छा गईं, लिहाजा चीनी सस्ती और गुड़ महंगा हो गया। मगर पिछले साल आखिरी महीनों में चीनी ने ऐसी छलांग लगाई कि वह गुड़ से आगे निकल गया। शरद पवार की महिमा से चीनी ने अपनी हैसियत बढ़ा ली। चीनी की कीमतों में हुई इस अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी के पीछे शीतल पेय, बिस्कुट, चाकलेट जैसे उत्पादों के निर्माताओं द्वारा आनन फानन में की जा रही खरीद भी प्रमुख वजह है। ये कंपनियां इस खबर के कारण पैनिक में थीं कि चीनी की कीमतें ५० रुपये के पार जा सकती है। सरकार ने इस पैनिक पर रोक लगाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। अगर सरकार इस मसले पर गंभीर होती तो सबसे पहले मिलों में उत्पादित चीनी के मूल्य और उसके वितरण पर लगाम लगाती। वह वेवरेज कंपनियों की खरीद का कोटा तय करती और चीनी के राशनिंग की व्यवस्था कराती लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया।

Saturday, January 23, 2010

बादशाह हैं सहवाग

सहवाग ७००० रन पूरे करने वाले छठे भारतीय
टीम इंडिया के सलामी बल्लेबाज वीरेंद्र सहवाग एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में सात हजार रन पूरे करने वाले छठे भारतीय बन गए हैं। उनके २१९ मैचों में ३४.३२ की औसत से ७०३६ रन हो गए हैं, जिसमें १२ शतक और ३५ अर्धशतक शामिल हैं। सहवाग ने अपनी २१३ वीं पारी में ७००० रन का आंकड़ा छुआ यह उपलब्धि हासिल करने वाले वह देश के चौथे सबसे तेज बल्लेबाज बन गए। पूर्व कप्तान सौरभ गांगुली ने १७४ वीं सचिन तेंडुलकर ने १८९ वीं और राहुल द्रविड़ ने २०४ वीं पारी में ७००० रन पूरे किए थे। भारतीय बल्लेबाजों में सहवाग से आगे युवराज सिंह (७३४५ रन), मोहम्मद अजहरुद्दीन (९,३७८ रन), राहुल द्रविड़ (१०,७६५ रन) सौरव गांगुली (११,३६३ रन) तथा सचिन तेंदुलकर (१७,३९४ रन) हैं।हाल ही में पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर रमीज राजा ने कहा था कि वीरेंद्र सहवाग तो क्रिकेट के बादशाह हैं। सौरभ गांगुली ने उनकी तुलना विवियन रिचर्ड्स से करते हुए कहा था कि सहवाग रिचर्ड्स से कहीं भी कम नहीं नजर आते। अगर हम स्ट्राइक रेट को आधार मानें तो सहवाग रिचर्ड्स को भी पीछे छोड़ देते हैं। वन डे इतिहास में जिन बल्लेबाजों ने पांच हजार या अधिक रन बनाए हैं उनमें सहवाग भारत के अकेले और दुनिया के दूसरे बल्लेबाज हैं जिनका स्ट्राइक रेट १०० से ऊपर चल रहा है। हालांकि बल्लेबाजी की अपनी अलग शैली के बावजूद आदर्श सुरक्षात्मक स्ट्रोक खेलने की भी क्षमता है, बल्ले और पैड को साथ साथ इस्तेमाल करते हुए वे अक्सर खेलते हैं। सहवाग महानता की तरफ बिल्कुल उल्टी दिशा से बढ़े हैं। याद रखने की बजाय उनके पास भूल जाने का गुण है। न कोई दुख और न ही किसी खराब पारी या शाट का विश्लेषण। सहवाग आज और अभी में जीते हैं। बीता कल भुला चुके होते हैं और आने वाले कल के बारे में सोचते नहीं। उनकी जगह कोई और होता तो २९३ पर आउट होने के बाद दुःख से सराबोर हो सकता था। मगर वह कह रहे थे कि दो तिहरे शतकों के बाद इतना बड़ा स्कोर बनाने वाले वे अकेले बल्लेबाज हैं। वर्तमान से उनके जुड़ाव को समझना हो तो उनकी पारी के किसी भी क्षण पर नजर डालकर देखें। ज्यादातर बल्लेबाजों को बल्लेबाजी करते देखकर ही यह बताया जा सकता है कि यह उनकी पारी की शुरुआत है या मध्य। कभी कभी तो यहां तक पता चल जाता है कि अब बल्लेबाज जल्द ही अपना विकेट देने वाला है मगर सहवाग को देखकर यह बताना बेहद मुश्किल होता है कि वह २५ के स्कोर पर हैं या २५० के। उनके चेहरे पर हमेशा वही शांति होती है। उनका बल्ला हर समय उसी रचनात्मक तेजी के साथ चलता है। सहवाग ने खुद को तेंदुलकर की तर्ज पर ढाला। शुरुआत में जब वे टीम में आए तो हेलमेट पहने इन दोनों खिलाड़ियों को पिच पर देखकर बताना मुश्किल होता था कि कौन तेंदुलकर है और कौन सहवाग। शायद उन्होंने इसीलिए बाद में अपना वजन बढ़ा लिया ताकि दशर्क उन्हें ज्यादा आसानी से पहचान सकें। २००१ में जब सहवाग ने अपना पहला टेस्ट खेलते हुए सेंचुरी लगाई तो वे नंबर छह पर बल्लेबाजी कर रहे थे। चार सीरीज बाद उन्हें लार्ड्स में पारी की शुरुआत करने का मौका मिला, जहां उन्होंने ८४ रन बनाए। अगले ही मैच में उन्होंने शतक बनाया। उनके पहले छह शतकों में से पांच अलग-अलग देशों में बने हैं। यह भी दिलचस्प है कि ये मैच के पहले ही दिन बने। महानता की तरफ सहवाग ने अपने आखिरी कदम उस बेफिक्री के साथ बढ़ाए, जिसके बारे में इस श्रेणी में पहले से ही मौजूद लोग सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने बल्लेबाजी के मायने ही बदल दिए। वे उत्तर आधुनिक दौर के ओपनर हैं जो खेल के तीनों संस्करणों में उपयोगी हैं। १९८० के दशक में जब बैरी रिचर्ड्स ने कहा था कि बल्लेबाजी की तकनीक बदल रही है तो परंपरावादियों ने उनका विरोध किया था। उनका कहना था कि तकनीक कभी नहीं बदल सकती। टेस्ट क्रिकेट में भारत को नंबर एक की गद्दी तक पहुंचाने में जितना सचिन तेंदुलकर, राहुल दृविड़, लक्ष्मण औैैैैैर सौरभ गांगुली का योगदान रहा उतना ही योगदान सहवाग का भी है।वन डे में पांच हजार रन बनाने वाले टाप दस बैटिंग स्ट्राइक रेट वाले बल्लेबाजों के क्रम में सहवाग वेस्टइंडीज के विव रिचर्ड्स ९०.२० के बैटिंग स्ट्राइक रेट के साथ छठे स्थान पर हैं। वन डे में पांच हजार रन बनाने वाले टाप स्ट्राइक रेट वाले बैट्समैन में सहवाग गिलक्रिस्ट और जयसूर्या से भी आगे हैं। इस लिस्ट में उनके अलावा तीन और भारतीय शामिल हैं, जिनमें सचिन तेंडुलकर दसवें, युवराज सिंह नौवें और महेंद सिंह धोनी सातवें स्थान पर हैं। भारत की ओर से वन डे में टाप टेन स्ट्राइक रेट वाली सेंचुरीज में सहवाग सबसे आगे हैं। उनकी सर्वाधिक चार सेंचुरी पारियां हैं, जबकि भारत की ओर से वन डे में उनसे बेहतर एक सेंचुरी पारी सिर्फ युवराज द्वारा खेली गई। सहवाग की १६८.९१ बैटिंग स्ट्राइक रेट वाली नाट आउट १२५ रनों की पारी ओवरआल वन डे इतिहास में सातवीं सर्वोच्च स्ट्राइक रेट वाली सेंचुरी पारी है। उन्होंने वन डे में जो १२ सेंचुरी बनाई, उनमें से ११ में भारत जीता और केवल एक मैच हारा। राजकोट से पहले जब भारत ने २००७ के वर्ल्ड कप में वन डे में पहली बार ४०० का स्कोर बनाया तब भी सहवाग ने अकेले सेंचुरी (११४) बनायी थी। यह मैच भी भारत ने जीता था । सहवाग ने वन डे में जो १२ सेंचुरी बनाई उनमें ९ में उनका बैटिंग स्ट्राइक रेट १०० से ऊपर रहा २ सेंचुरी में उनका बैटिंग स्ट्राइक रेट ९० रहा जबकि एक सेंचुरी में यह रेट ८० रहा। सहवाग की वन डे में सेंचुरी में सर्वोच्च बैटिंग स्ट्राइक रेट १६८.९१ रहा है और सबसे कम ८०.५७। भारत की ओर से वन डे में सबसे तेज सेंचुरी सहवाग ने ही बनाई है। न्यूजीलैंड के खिलाफ ६० गेंदों में अपनी १२५ नाट आउट पारी में। सहवाग ने भारत की जिन ११ वन डे जीत में सेंचुरी बनाई उनमें ७ जीत में केवल उन्होंने ही सेंचुरी बनायी जबकि ४ जीत में उनके साथ उस पारी में अन्य चार बल्लेबाजों गांगुली, सचिन, द्रविड़ और युवराज ने भी सेंचुरी बनाई। इन ११ वन डे जीत में बनाई सेंचुरी में ४ भारत में, ४ विरोधी देश में और ३ तटस्थ मैदानों पर लगाई गई। इनमें ५ जीत में पहले बैटिंग करते हुए जबकि ६ जीत में बाद में बैटिंग करते हुए सेंचुरी बनाई गई। वीरेंद्र सहवाग के बल्ले ने ब्रेबोर्न स्टेडियम में श्रीलंका के खिलाफ रनों की बौछार ही नहीं की बल्कि अपनी २९३ रन की पारी के दौरान कई रिकार्ड भी बनाए, जिनमें टेस्ट क्रिकेट में भारत की तरफ से सर्वाधिक छह दोहरे शतक लगाना भी शामिल है। अब तक आस्ट्रेलिया के डान ब्रैडमैन, वेस्टइंडीज के ब्रायन लारा और सहवाग के नाम पर दो-दो तिहरे शतक का संयुक्त रिकार्ड है। सहवाग ने टेस्ट क्रिकेट में भी ६,००० रन पूरे कर लिए हैं। इस मुकाम पर पहुंचने वाले वह दुनिया के ५०वें और भारत के नौवें बल्लेबाज हैं। उन्होंने १२३वीं पारी में यह मुकाम हासिल किया। इस तरह से भारत की तरफ से सबसे कम पारियों में इस रन संख्या पर पहुंचने वाले तीसरे बल्लेबाज बने। उन्होंने भारतीय सरजमीं पर भी ३,००० रन पूरे किए। वह गुंडप्पा विश्वनाथ के ६, ०८० रन और मोहम्मद अजहरुद्दीन के ६,२१५ रन की संख्या को पीछे छोड़कर भारत की तरफ से सर्वाधिक टेस्ट रन बनाने वाले बल्लेबाजों की सूची में सातवें स्थान पर काबिज हुए। दिल्ली के इस तूफानी बल्लेबाज ने इस बीच अपना छठा दोहरा शतक भी पूरा किया । ऐसा करते हुए उन्होंने राहुल द्रविड़ के पांच दोहरे शतक को पीछे छोड़ा। उन्होंने केवल १६८ गेंद पर दोहरा शतक पूरा किया, जो भारतीय रिकार्ड है। यह टेस्ट क्रिकेट में दूसरा सबसे तेज दोहरा शतक है। यह रिकार्ड न्यूजीलैंड के नाथन एस्टल १५३ गेंद के नाम पर है। अब सबसे तेज चार दोहरे शतकों में से तीन सहवाग के नाम पर दर्ज हैं। सहवाग जब २२४ रन पर पहुंचे तो यह मुंबई के ब्रेबोर्न स्टेडियम पर सर्वाधिक व्यक्तिगत पारी थी। इससे पहले का रिकार्ड वीनू मांकड़ २२३ के नाम पर था। यही नहीं उन्होंने मुंबई में किसी भारतीय बल्लेबाज के सर्वाधिक का रिकार्ड अपने नाम किया जो अब तक विनोद कांबली २२४ के नाम पर दर्ज था। उन्होंने मुंबई में क्लाइव लायड २४२ के सर्वाधिक स्कोर का वर्षो पुराना रिकार्ड भी तोड़ दिया। हालांकि सहवाग तिहरा शतक तो नहीं बना पाए लेकिन अगर वह तिहरा शतक पूरा कर लेते तो ब्रैडमैन के बाद यह कारनामा करने वाले दुनिया के दूसरे बल्लेबाज बन जाते। ब्रैडमैन ने १९३० में इंग्लैंड के खिलाफ लीड्स में ३०९ रन बनाए थे। सहवाग इस सूची में अब ब्रैडमैन और इंग्लैंड के डेनिस कांपटन २९५ रन के बाद तीसरे नंबर पर काबिज हो गए हैं। इससे पहले सहवाग ने पिछले साल दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अपनी ३१९ रन की पारी के दौरान एक दिन में २५७ रन बनाए थे। जहां तक दोहरे शतकों की बात है तो टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक १२ दोहरे शतक ब्रैडमैन ने लगाए हैं। उनके बाद ब्रायन लारा नौ और वाली हैमंड सात का नंबर आता है। सहवाग अब श्रीलंका के कुमार संगकारा, मर्वन अटापट्टू और महेला जयवर्धने तथा पाकिस्तान के जावेद मियादाद के साथ संयुक्त रूप से चौथे स्थान पर हैं। सहवाग ने मुल्तान में जब ३०९ रन की पारी खेली थी तब उन्होंने पहली बार २०० रन की संख्या पार की थी। इसके बाद उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ही २००५ में बेंगलूर में २०१ और २००६ में लाहौर में २५४ रन, दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ २००८ में चेन्नई में ३१९ और उसी वर्ष श्रीलंका के खिलाफ गाले में नाबाद २०१ रन बनाए।

Friday, January 15, 2010

बस एक घंटा ...

जब कभी हम किसी पार्टी में होते हैं तो हम घंटों उसका लुत्फ़ उठाते रहते हैं। लेकिन अगर किसी पूजा समारोह में हों तो बस एक घंटे बाद ही ऊब जाते हैं। सोचते हैं कि कब पंडित जी पूजा खत्म करेंगे। भगवान से हम चाहते तो बहुत कुछ हैं लेकिन उसके साथ बैठकर टाइम गुजारा जाए.... यह हमारे लिए बड़ी समस्या बन जाती है।
इधर-उधर हम कई बार बेकार में भटकते रहते हैं। बस भगवान का नाम लेने के लिए हमारे पास टाइम नहीं है। जब कुछ विपदा आ जाती है, तब कहते हैं कि हे भगवान मेरी रक्षा करना, मुझे इस संकट से बचाना। अगर हम अपने देवी देवताओं की तरफ देखें तो पाएंगे कि उनकी प्रतिमा हमें हमेशा मुस्कराती हुई दिखाई देती हैं। लेकिन, हम हाथ जोड़ कर जब दुआ मांगते हैं, तो हमारे चेहरे पर रत्ती भर भी मुस्कान नहीं होती। बस अपना मतलब पूरा हुआ और निकल लिए। किसी से मांगिए तो मुस्कुराकर, भले ही आपका दिल गम से मालामाल हो। वो यानी भगवान सब जानता है कि हमें क्या चाहिए, वो तो सिर्फ हमें परखता है। इसलिए ऊंघिए मत। सिर्फ ऑंखें बंद कर लीजिए। फिर देखिए आनंद ही आनंद मिलेगा।

जो गम से बेखबर हो

नई एक दिशा हो नया एक सफ़र हो
नया एक जहां हो जो गम से बेखबर हो
नया हो वो अम्बर नयी ये धरा हो
नई हो एक मंजिल नया रास्ता हो
नई हो वो चिड़िया नई एक चहक हो
नया हो एक मधुवन नयी एक महक हो
नयी हो वो रिमझिम बरसती घटाएं
जो मन को कहीं दूर गम से ले जाएं

Friday, January 8, 2010

राजनीतिक मैनेजर अमर सिंह ...

सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अब भले ही यह स्वीकार किया हो पार्टी में अंदरूनी मतभेद है और पार्टी के दोनो राष्ट्रीय महासचिवों के बीच कुछ अनबन है लेकिन सपा की यह अंदरूनी लड़ाई पहले ही जगजाहिर हो चुकी थी।
सपा महासचिव ने अपने सभी पदों से इस्तीफा देने के बाद इस्तीफे का कारण खराब स्वास्थ्य होना बताया है और कहा कि उन्होंने यह निर्णय डाक्टरों की सलाह के बाद लिया है लेकिन अपने ब्लाग में श्री अमर सिंह ने सपा प्रमुख के परिवारवाद पर जिस तरह से हमला बोला है, उससे साफ जाहिर है कि वे पार्टी गतिविधियों से संतुष्ट नहीं थे। हालांकि श्री सिंह के बढ़ते वर्चस्व के कारण सपा में आतंरिक असंतोष बहुत पहले से उभर रहा था। समय-समय पर सपा के कई नेताओं ने उनका मुखर विरोध भी किया लेकिन उन नेताओं को ही मुंह की खानी पड़ी। सपा के संस्थापक नेताओं में रहे बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर व आजम खां को इसलिए सपा छोड़नी पड़ी कि उन्होंने श्री सिंह का पार्टी स्तर पर विरोध किया था। सपा सूत्रों की मानें तो श्री सिंह ने सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को इस कदर प्रभावित कर लिया था कि श्री यादव उनके खिलाफ अपने किसी नेता की बात सुनने को तैयार नहीं थे। यहां तक कि सपा प्रमुख ने अपने भाइयों, बेटे व भतीजे से भी ज्यादा सम्मान श्री सिंह को देना प्रारंभ कर दिया था। सपा में श्री सिंह की हैसियत नं. दो की हो चुकी थी। यहां तक कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बिना श्री सिंह की राय के कोई फैसला नहीं कर पाते थे। फिरोजाबाद लोकसभा उप चुनाव में मिली हार के बाद ही सपा में अंदरूनी कलह की शुरुआत हुई। श्री सिंह ने इस हार के लिए मुलायम सिंह परिवार के लोगों के अति आत्मविश्र्वास को जिम्मेदार ठहराया। वहीं मुलायम सिंह के भाई राम गोपाल यादव ने श्री सिंह के बयान को अनुशासनहीनता करार दिया। इन दोनों महासचिवों की अनबन मुकाम तक पहुंचती, उसी बीच मुलायम सिंह ने बीच बचाव करके सपा के इस अंदरूनी संकट का हल ढूंढ निकाला। हालांकि इस हल के लिए श्री यादव को यह स्वीकार करना पड़ा की श्री सिंह पर पार्टी का कोई पदाधिकारी कार्रवाई नहीं कर सकता बल्कि श्री सिंह ही पार्टी कार्यकर्ताओं पर कार्यवाही करने का हक रखते हैं। सपा प्रमुख के प्रयासों के बावजूद पार्टी के दोनों महासचिव रामगोपाल यादव और अमर सिंह में अनबन जारी रही। श्री सिंह अपने व्यंग्य बाण जहां श्री यादव पर चलाते रहे वहीं श्री राम गोपाल यादव भी समय मिलने पर उन पर हमला करने से नहीं चूकते। इसी अनबन का यह परिणाम रहा कि श्री अमर सिंह ने पार्टी के अपने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। अमर सिंह के सपा के कई पदों से इस्तीफे के बाद एक बात साफ हो गई कि अमर सिंह ने अपना इस्तीफा यूं ही नहीं दिया। इसलिए आश्चर्य नहीं कि उनके इस्तीफे में भी कोई खेल हो। अमर सिंह का कहना है कि डाक्टर ने उन्हें आराम करने को कहा है, इसलिए स्वास्थ्य लाभ के लिए वह पार्टी की अहम जिम्मेदारियों से दूर रहना चाहते हैं। इसी के साथ वह यह भी कह रहे हैं कि राजनीति से उनका मन दुःखी हो गया है। वह यह बताने से भी नहीं चूक रहे कि अगर मुलायम सिंह यादव काम का सही बंटवारा करेंगे तो वह तय सीमा में पार्टी का काम करते रहेंगे। अमर सिंह हमेशा अपने बयानों में राजनीतिक विश्लेषकों के लिए कोई न कोई संकेत छोड़ देते हैं और इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया है। हालांकि पार्टी में उनके खिलाफ माहौल तो बहुत पहले से ही बन रहा था लेकिन फिरोजाबाद में मुलायम सिंह यादव की बहू की हार के बाद अमर सिंह के विरोधी काफी मुखर हो गए। हालांकि सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि 'यह सपा अंदरूनी मामला है।अमर ने पार्टी के पदों से इस्तीफा दिया है, न कि पार्टी से। मामला जल्दी सुलझा लिया जाएगा।'रामगोपाल यादव के हाल के बयान में इसकी एक झलक मिलती है। फिरोजाबाद में हार से मुलायम सिंह समेत अनेक वरिष्ठ नेताओं को अहसास हो रहा था कि पार्टी का परंपरागत यादव वोट बैंक भी सिर्फ अमर सिंह के कारण छिटकने लगा है। कई पुराने समाजवादी यह बात बार बार उठा चुके हैं कि अमर सिंह ने पार्टी को अपनी बुनियादी जमीन से भटका दिया। इसलिए पार्टी में अब अपने मूल आधार को तलाशने की मांग तेज हो रही है। ऐसे में अमर सिंह को अलग-थलग होने की आशंका सता रही थी। हालांकि पार्टी में अपने पदों से इस्तीफे देने के बाद वह दबाव बना रहे हैं और खुद को परख भी रहे हैं। दरअसल वह अपनी जगह फिर से तलाश रहे हैं, पार्टी के भीतर भी और संभवतः बाहर भी। ऐसे में राजनीतिक मैनेजर अमर सिंह की वाकई कितनी जरूरत है यह देखना दिलचस्प रहेगा। वैसे देखा जाए तो बीमारी और डाक्टरी सलाह का बहाना करके अमर सिंह ने इस्तीफा दिया। जबकि पिछले साल बीमारी के बीच में ही अमर सिंह जोरदार चुनाव प्रचार करते हुए देखे गये थे। अमर सिंह ने अपने इस्तीफे में इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है लेकिन एक न्यूज चैनल से बातचीत में उन्होंने इस बात का जिक्र किया तब बात साफ हुई कि उनके मन में नाराजगी का भाव आखिर क्यों है। सपा को चलाने को लेकर पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव सहित पार्टी के अनेक नेताओं से मतभेद पैदा होने के बाद उन्होंने अपना इस्तीफा यादव को दुबई से भेज दिया। हालांकि उन्होंने इस्तीफा देने के पीछे स्वास्थ्य कारणों की दुहाई दी और यादव में आस्था जताते हुए पार्टी नहीं छोडऩे की भी बात कही है। पत्रकारों ने उनसे जब यह पूछा कि क्या वह किसी अन्य पार्टी में शामिल होने जा रहे है उन्होंने कहा कि यह काल्पनिक उड़ान है जिसका वह जवाब नहीं देंगे। पिछले १४ वर्षों से सपा से जुड़े अमर सिंह ने पूर्व में भी तीन बार इस्तीफा दिया पर सपा प्रमुख द्वारा इसे अस्वीकार कर दिया गया। इस बार अमर सिंह का कहना है कि वह पार्टी अध्यक्ष का निर्देश नहीं मानेंगे क्योंकि उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं बदल ली हैं। उन्होंने कहा कि ५३ वर्ष की उम्र में वह २० वर्षों के राजनीतिक जीवन को छोड़ परिवार और बच्चों की देखभाल करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि चिकित्सकों ने भी उन्हें यही सलाह दी है। अब वह पार्टी का साधारण कार्यकर्ता बन कर रहेंगे। पुस्तकें पढ़ेंगे, फिल्में देखेंगे, ब्लाग लिखेंगे और परिवार व मित्रों के साथ विश्व भ्रमण करेंगे। अमर सिंह ने कहा कि यह कहना बिल्कुल गलत है कि उनके मुलायम सिंह यादव के साथ मतभेद हैं। उन्होंने कहा कि नेता जी ने उन्हें जो अवसर दिये उसके लिये वे आभारी है, इसीलिये वह पार्टी में सीमित जिम्मेदारियां लेना चाहते हैं पर साथ ही यह भी कहा कि सिंगापुर में जब अपना गुर्दा बदलवाने गये थे तब अमिताभ बच्चन, अनिल अम्बानी और उनका परिवार ही २४ घंटे उनके साथ रहा। पार्टी अध्यक्ष सपा प्रमुख उन्हें देखने तक नहीं आये। पार्टी ने भी उनके लिये कुछ नहीं किया। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमर सिंह ने पार्टी के तीन प्रमुख पदों से इस्तीफा स्वास्थ्य कारणों से नहीं बल्कि पार्टी अध्यक्ष और अन्य नेताओं के साथ बढ़ते मतभेदों के चलते दिया। यह मतभेद फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव को लेकर और गहरा गये, जिसमें पार्टी अध्यक्ष की पुत्रवधु डिंपल यादव को सपा के ही पूर्व नेता एवं कांग्रेस उम्मीदवार फिल्म अभिनेता राज बब्बर के हाथों शिकस्त मिली। पार्टी अध्यक्ष का भी मानना है कि पिछले कुछ वर्षों में पार्टी जिस नीति पर चली है उससे मुसलमान मतदाता दूर होता जा रहा है और कांग्रेस की ओर उसका झुकाव बढ़ रहा है। सपा छोड़ कर कांग्रेस का दामन थाम १५वीं लोकसभा में पहुंचे पूर्व केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का कहना है कि मुलायम की सारी काली कमाई अमर के पास है, इसलिये वह उन्हें छोड़ ही नहीं सकते .सपा से निकाले गये आजम खां ने कहा कि अमर अब जनेश्वर मिश्र और रामगोपाल यादव को पार्टी से निकालने का दबाव पार्टी अध्यक्ष पर बना रहे थे जो उनके लिये संभव नहीं था। जनेश्वर मिश्र संजीदा और प्रदेश में प्रभाव रखने वाले बड़े नेता हैं और रामगोपाल यादव मुलायम के चचेरे भाई हैं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि अमर सिंह सच में काफी बीमार हैं और उनके विदेश से इलाज करा कर वापस आने के बाद वह उनसे बात करेंगे तथा त्यागपत्र वापस लेने के लिये समझाएंगे। मुलायम कहते हैं कि अमर सिंह पार्टी के जिम्मेदार नेता हैं और सपा को उनकी जरूरत है। उन्होंने कहा कि अमर सिंह ने एक बार पहले भी इस्तीफा दिया था लेकिन उन्हें समझाया गया था। बातचीत के बाद उन्होंने त्यागपत्र वापस ले लिया था। उन्होंने कहा कि सिंह के विदेश से आने के बाद पार्टी की कोर कमेटी की बैठक होगी और उसमें त्यागपत्र वापस लेने का आग्रह किया जाएगा।

Wednesday, January 6, 2010

महंगाई और गरीबी

मक्खन मलाई नहीं तो कम से कम दालरोटी तो मिल ही जाएगी। जिंदगी इसी से काट लेंगे। गरीब और आम लोगों से ऐसा सुनने को अक्सर मिल जाया करता है। अब शायद सुनना आसान नहीं रहा। क्योंकि महंगाई अपनी पराकाष्ठा पर है। मलाई और मक्खन तो दूर, दो जून की रोटी जुटाने में आम आदमी आज पस्त है। देश के अनगिनत परिवारों की थालियों से ये सब चीजें आज गायब हैं आैर अब यह सुनना आसान हो चला है कि भूखे भजन न होहीं गोपाला। वर्ष २००९ आम आदमी की थाली से दाल रोटी गायब ही रही वर्ष २०१० में महंगाई के आलम देख कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है। तो दूसरी ओर देश का एक तबका है जो इस महंगाई में भी अपनी सुविधाओं से कोई समझौता नहीं करना चाहता। यह तबका है हमारे जनप्रतिनिधियों का। हाल ही में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बड़ी चतुराई से मौका हाथ लगते ही महंगाई का दोष राज्यों के सिर मढ़ दिया। इतना ही नहीं भविष्य में स्थिति गंभीर होने के संकेत यह कहते हुए दे दिए कि राज्य सरकारें इस मामले में सहयोग नहीं करती हैं तो मौजूदा हालात का सामना करना और भी कठिन हो सकता है। हाल ही में हुए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्होंने ये बातें कहीं। जहां तक महंगाई का सवाल है, इसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेने से सभी बच रहे हैं फिर चाहे केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकारें। बीते वर्ष संसद सत्र में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी विपक्ष द्वारा सवाल उठाने पर बुरी तरह झल्ला उठे थे, विपक्ष ने भी हंगामा करने का कोई मौका नहीं छोड़ा था। वस्तुओं के दाम लगातार बढ़ ही रहे हैं और अनाज जैसी आवश्यक वस्तु को वायदा कारोबार से मुक्त रखने सरकार कुछ नहीं कर पा रही। आवश्यक वस्तुओं पर तरह-तरह के कर लगाने और पूरे देश की मंडियों में खरीदार, परिवहन और भंडारण की व्यवस्था अलग-अलग होने से भी कीमतों में फर्क पड़ रहा है। राज्य सरकारें अपनी सुविधा और सत्तारूढ़ पार्टी की नीतियों के मुताबिक कार्य करती हैं और केंद्र सरकार अपने हिसाब से। इनमें सामंजस्य न होने का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। शरद पवार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते कि राज्य सरकारें सहयोग नहीं कर रही हैं। उन्हें जवाब देना ही होगा कि पिछले वर्षों में अनाज के दाम लगातार क्यों बढ़े हैं? कीमतों पर तत्काल काबू पाने के लिए लालफीताशाही से मुक्त व्यावहारिक कदम क्यों नहीं उठाए गए? कालाबाजारी पर पूरी तरह अंकुश क्यों नहीं लगाया जा सका? शायद कृषि मंत्री के लिए इन सवालों के जवाब ढूंढना असुविधाजनक होगा, इसलिए वे महंगाई पर बात करने के आसान रास्ते तलाश रहे हैं पर जनता की कठिनाई इससे दूर नहीं होगी। वर्ष २००९ के नवंबर अंत में जारी थोक सूचकांक के मुताबिक पिछले १० सालों में महंगाई अपने सर्वोच्च स्तर पर है। दालों की कीमत में ४२ प्रतिशत और सब्जियों की कीमत में ३१ प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। ऐसा नहीं है कि अनाज का उत्पादन एकदम ही घट गया है। सरकारी गोदामों में अनाज का पर्याप्त भंडारण है। अगर सही योजना बनाकर इस अनाज को बाजार में लाया जो तो कीमतों में एकदम से रोक लगायी जा सकती है। जनता को इससे तत्काल राहत मिलेगी। अनाज के बड़े व्यापारियों को जरूर इससे तकलीफ होगी, शायद इसलिए सरकार ऐसे विकल्पों पर विचार नहीं कर रही है। वह खुद सस्ता अनाज बेचने को सामने आ रही है, चाहे वह दो तीन रुपए किलो गेहूं चावल बेचने के रूप में हो या मदर डेयरी के बूथों पर सस्ता आटा, दाल और सब्जी बेचने जैसे कार्य हों। इनसे कुछ देर की राहत मिलती है, दीर्घकालिक हल नहीं मिलता। सरकार भी यह अच्छे से समझती है। लेकिन महंगाई का स्थायी हल ढूंढने से अनाज, सब्जी बेचने उतरे बड़े उद्योगपतियों का मुनाफा मारा जाएगा और यदि उन्हें घाटा हुआ तो राजनीतिक दलों का चंदा घट जाएगा। खेतों से सीधे खुदरा बाजार में अनाज सब्जी बेचने का यह व्यापार चंद लोगों के लिए लाटरी खोलता है, लेकिन देश के लिए यह हानिकारक है। कीमतों में अवास्तविक वृध्दि व्यापार में ऐसी चतुराइयों से ही हुई है। महंगाई के इस विस्फोट में भी यदि सरकारें निजी लाभहानि का गणित लगाती रहें तो यह आने वाले समय में भयंकर संकट को न्यौता देने जैसा होगा। मजे की बात यह है कि जब देश के जनप्रतिनिधियों के हित की कोइर् बात उठे तब इनका आपसी लाड प्यार देखिए। संसद के शीतकालीन सत्र को उदाहरणस्वरूप लीजिए। इस सत्र में संसद भले ही कई मुद्दों पर बंटी हुई दिखाई दी हो, लेकिन मंत्रियों के वेतनभत्तों से संबंधित संशोधन विधेयक २००९ संसद में बिना चर्चा के पारित हो गया। इतना ही नहीं इससे एक कदम आगे बढाते हुए दिल्ली सरकार की व्यय वित्त समिति ने नए बंगले के निर्माण की परियोजना को मंजूरी भी दे दी है। इस बात से आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यही दिल्ली सरकार झुग्गियों को बांस के टाट से बाड़बध्द करना चाहती है ताकि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान यहां आने वाले मेहमानों को झूठी चकाचौंध की सच्चाई न दिखे। बिजली इस कदर महंगी हो गई कि लोगों को आज अंधेरे से समझौता करने का शौक हो चला है। परिवहन व्यवस्था सुधार नहीं सके तो इसका सबसे सरल उपाय ढूंढ़ा कि बस किराया को दोगुना कर दो। टिकट महंगाई से लोग खुद साइकिल पर आ जाएंगे या फिर नौकरीपेशा छोड़ अपने-अपने प्रदेश को लौट जाएंगे। दूसरी ओर अगर महंगाई के साथ आज अहम सवाल सामने यह है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की वास्तविक संख्या कितनी है? मौजूदा समय में सरकार के पास चार आंकड़े हैं और चारों भिन्न-भिन्न। इसमें देश की कुल आबादी में गरीबों की तादाद २८.५ प्रतिशत से लेकर ६० प्रतिशत तक बताई गई है। इन दोनों में से कौन सा आंकडा सही है यह सरकार को ही तय करना है। तीन दशक पहले के आर्थिक मापदंड के अनुसार देश में गरीबी रेखा से नीचे आने वाली आबादी कुल जनसंख्या की २८.५ प्रतशित है। अभी तक यही आंकडा सरकार दिखाती आई थी, जिसमें गरीबी पिछली गणना से कम दिखती है। आर्थिक पंडितों का मानना है कि राष्ट्रीय आय में वृध्दि जिस दर से होती है कोई जरूरी नहीं कि उसी दर से देश की गरीबी घटे। गरीबी की समस्या भारत के सामने ही नहीं बल्कि उन सारे देशों के सामने है जो आज विकास की दौड में हैं। भारत के सामने यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल भले ही हो। गरीबी पर सुरेश तेंदुलकर की आई रिपोर्ट कुछ ऐसी ही कहती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत का प्रत्येक तीसरा व्यक्ति गरीब है। आर्थिक क्षेत्र में छलांग लगाते भारत के लिए यह रिपोर्ट किसी शर्म से कम नहीं। योजना आयोग द्वारा गठित एसडी तेंदुलकर की रिपोर्ट ने बताया कि वर्ष २००४-०५ में गरीबी ४१.८ प्रतिशत थी। जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति के अनुसार देश में ५० प्रतिशत यानी आधी आबादी निर्धन है। समस्या सिर्फ इन आंकड़ों के साथ ही नहीं है। गरीबी की प्रतिशत और गरीबी रेखा का निर्धारण इतना पेंचीदा काम है कि सरकार की विभिन्न समितियां भी इसे साफ नहीं कर पातीं। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो सरकार इसे जानबूझ कर पेंचीदा बनाए रखना चाहती है जिसका सरल उदाहरण विभिन्न समितियों का विभिन्न आंकडे पेश करना है। तेन्दुलकर की रिपोर्ट भले ही इसे गरीबी रेखा कहे लेकिन असल में यह दरिद्र रेखा है। गरीबी से भी एक कदम नीचे। सुरेश तेन्दुलकर ने अपनी रिपोर्ट में काम भी यही किया है। उन्होंने जम्मू कश्मीर, दिल्ली और उत्तर पूर्व के राज्यों को गरीब तो माना है लेकिन बिहार तथा उड़ीसा को उनसे अधिक दयनीय माना है। आश्चर्यजनक रूप से तेन्दुलकर की यह रिपोर्ट सेनगुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट को भी झूठा साबित कर रही है जिसमें उन्होंने देश की अस्सी फीसदी आबादी को २० रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करने की बात कही थी। यानी महीने में ६०० रुपये पर। तेन्दुलकर रिपोर्ट का कहना है कि असल में भारत में ४१ प्रतिशत से अधिक आबादी ४४७ रुपये मासिक पर गुजारा कर रही है जो कि सेनगुप्ता के बीस रुपये प्रतिदिन से काफी कम है। इनसे यही बात साफ होती है कि गरीबी रेखा को लेकर ही जब इतनी दुविधा है तो फिर उसके उन्मूलन पर कार्यान्वयन की स्थिति कैसी होगी। सरकार गरीबों के लिए अनेक राहत योजनाएं बन्ााती है। इसके लिए उसे गरीबों की पहचान करनी होती है। देश का ग्रामीण विकास मंत्रालय यह काम प्रत्येक पांच वर्ष पर करता है। देश में गरीबी निर्धारण का पहला प्रयास १९९२ में किया गया। इसमें उन परिवारों को गरीब माना गया जिनकी सालाना आय ११,००० रु थी। लेकिन समस्या तब खडी हो गई जब ऐसे परिवारों की संख्या योजना आयोग की अनुमानित संख्या से ज्यादा हो गई। इसमें गरीबी के पहचान का आधार प्रति परिवार आमदनी था जबकि इसे प्रति व्यक्ति आमदनी या उपभोग होना चाहिए था। इसलिए १९९७ के दूसरे गरीबी पहचान की प्रक्रिया में योजना आयोग द्वारा तय उपभोग को आधार बनाया गया। और उन परिवारों को गरीबी से बाहर माना गया जिनके पास २ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन या पक्का मकान या घर में महंगे उपकरण हों या उस परिवार का कोई सदस्य प्रति वर्ष २०,००० रुपए से ज्यादा कमाई करता हो। इस पहचान में समस्या यह आ गई कि गरीब परिवारों की संख्या योजना आयोग के अनुमान से नीचे चली गई। यह संख्या मंत्रालय के हिसाब से काफी कम थी। इसलिए २००२ में गरीबी पहचाने के लिए परिवार से संबंधित ११ मापदंड तय किए गए। इसमें जमीन, घर का प्रकार, प्रति परिवार कपडे, प्रतिदिन लिए जाने वाले भोजन, शौचालय आदि को आधार बनाया गया। इस आधार पर प्रति परिवार को एक निश्चित स्कोर देने की प्रक्रिया अपनाई गई। इसमें परेशानी यह आई कि कई प्रदेशों में गरीब परिवारों की संख्या अनुमानित संख्या से पार हो गई। इसे देख २००७ में गरीबी का मापदंड तय करने के लिए एनसी सक्सेना समिति का गठन हुआ। इसके मापदंड कुछ इस प्रकार रहे कि देश की आधी आबादी निर्धनता की सूची में आ गई। सब्सिडी के आधार पर गरीबी उन्मूलन का ख्वाब महज ख्वाब बन कर ही रह गया क्योंकि उत्तरदान से समृध्दि कभी नहीं आ सकती। कोई आर्थिक नीति इसे सही नहीं ठहरा सकती। सब्सिडी गरीबी उन्मूलन तो नहीं कर सकती लेकिन भ्रष्टाचार अवश्य बढा सकती है। नरेगा इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है। वैसे विश्व बैंक भी हाल में ही जारी अपने एक अध्ययन में कह चुका है कि २०१५ तक भारत में गरीबी घटने की बजाए और बढ़ेगी। जो गरीब हैं वे और गरीब होंगे। विश्व बैंक का आंकलन है कि २०१५ तक भारत की एक चौथाई आबादी भीषण गरीबी में चली जाएगी। बाक्सभारत में गरीबों की वास्तविक संख्या क्या है? योजना आयोग द्वारा गठित तेन्दुलकर कमेटी कहती है कि कुल आबादी के ३७ फीसदी. अब जिस सरकार के लिए योजना आयोग योजनाएं बनाती है उसी सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि देश में गरीबी के ताजे आंकड़े जारी होंगे। योजना आयोग ने गरीबों के हिस्से का नया अनुमान पेश करने के लिए तेंडुलकर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी थी। कमेटी की सिफारिश के हिसाब से गरीबी का सही अनुमान ३७ फीसद बैठता है। यह अब तक चले आ रहे २७.५ फीसद जनता के गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे होने के अनुमान से करीब १० फीसद ज्यादा है। यानी २००९ तक सरकार देश में जितनी आबादी को गरीब मानने के लिए तैयार थी, २०१० में उससे करीब डेढ़ गुने लोगों को गरीब मानने के लिए तैयार होगी। बेशक, तेंडुलकर कमेटी की सिफारिशों पर अभी सरकारी अनुमोदन की मोहर लगनी बाकी है। लेकिन, यह सिर्फ एक औपचारिकता का मामला है, जिसे जल्द ही और हर सूरत में अगले बजट से पहले ही पूरा कर लिया जाएगा।

एकल चलो

क्या अजीब इत्तेफाक था। विगत ५ जनवरी को ७७ वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह अपने जन्मदिन के अवसर पर जब एक नई पार्टी के गठन की घोषणा कर रहे थे तो उसी वक्त रेडियो पर एक गीत बज रहा था 'छटे सब संगी साथी...'। ऐसा लगता था कि जैसे रेडियो ने सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री को ही यह गीत समर्पित किया हो।नई पार्टी के गठन के समय कल्याण सिंह के अन्य सहयोगियों में कोई भी नामवर व कद्दावर चेहरा उनके साथ मौजूद नहीं था।कल्याण सिंह के वर्षों पुराने साथी रहे रघुवर दयाल वर्मा, गंगाचरण राजपूत ने तो पहले ही बसपा का दामन थाम लिया। उनकी अनन्य सहयोगी रहीं कुसुम राय भी इस बार उनके साथ नहीं थीं। उन्होंने तो कल्याण सिंह के सपा में शामिल होने के समय से ही 'बाबूजी' से अपना दामन छुड़ा लिया। पूर्व मुख्यमंत्री के सहयोगी रहे भाजपा के कई दिग्गजों ने पहले ही उनसे किनारा कर लिया। सपा से अलग होने की घोषणा के बाद जिन भाजपा नेताओं ने कल्याण का स्वागत किया था वह भी मौजूद नहीं थे। मौजूद रहने की बात तो दूर इन नेताओं ने कल्याण को जन्म दिन की बधाई तक देना उचित नहीं समझा। निवर्तमान भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लखनऊ में मौजूद रहने के बावजूद श्री सिंह के जन्मदिन पर फोन भी करना मुनासिब नहीं समझा।कल्याण की संभवतः आखिरी राजनीतिक पारी की इतनी फीकी होगी इसका अंदाजा शायद ही किसी को रहा हो। ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी विध्वंस के बाद वे हिंदुत्व के एक मात्र नेता बनकर उभरे थे। उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में उन्हें हिंदुत्व का सबसे बड़ा नेता माना जाने लगा था। लेकिन शायद वे यह सफलता पचा नहीं पाए। उनका अहंकार व दंभ उनके सिर चढ़ कर बोलने लगा। उन्होंने अपने आलाकमान को ही चुनौती देना प्रारंभ कर दिया। यही चुनौती उनको महंगी साबित हुई और कुछ दिनों बाद ही उन्हें भाजपा से अलग होना पड़ा। भाजपा से अलग होने के बाद कल्याण सिंह अपनी राजनीतिक दिशा तय नहीं कर सके। कभी उन्होंने हिंदुत्व के बल पर राजनीतिक सफलता पाने का प्रयास किया तो कभी धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में सपा के साथ मिलकर अपने बेटे व सहयोगी कुसुम राय को सत्ता का अंग बनाया। धर्मनिरपेक्ष छवि ओढ़कर वे भले ही सत्ता सुख भोगने में सफल रहे हों लेकिन उनका यह रूप प्रदेश की जनता को पसंद नहीं आया। आम जनता के बीच उनकी छवि न तो हिंदुत्व के प्रखर नेता के रूप में बच सकी और न ही धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में नयी छवि उभर सकी। इसने उन्हें हिंदुत्व मतों से वंचित किया। दूसरी तरफ करके मुस्लिम मतदाताओं ने सपा का दामन छोड़ दिया। सपा नेताओं ने इसका दोषारोपण उन पर किया। परिणाम सामने था। सपा और कल्याण सिंह में दूरियां बढ़ती गयी और ऐसा भी समय आया जब एक दूसरे का आजीवन साथ देने की कसम खाने वाले कल्याण सिंह और मुलायम सिंह के रास्ते अलग-अलग हो गये। परिणामस्वरूप कल्याण सिंह को अपने जन्मदिन के अवसर पर जन कल्याण पार्टी बनाने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने इस पार्टी का अध्यक्ष अपने बेटे राजवीर सिंह को बनाया है।पार्टी की घोषणा और राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने के बाद पत्रकारों से बातचीत में राजवीर ने कहा कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाएगी। भाजपा के बाबत उन्होंने कहा कि वे उसके बारे ज्यादा कुछ नहीं कहेगे लेकिन इतना जरूर है कि वहां काम करने का मौंका नहीं है। उन्होंने कहा कि 'गांव-गरीब, किसान, झुग्गी झोपड़ी का जवान' इनकी लड़ाई के लिए पार्टी संघर्ष करेगी । उन्होंने कहा कि आगामी तीन महीनों में वे पार्टी का सांगठनिक ढांचा भी तैयार कर लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि टिकट वितरण में पचास फीसदी महिलाओं और तैंतीस फीसदी युवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जन क्रांति पार्टी के एजेंडे में रहेगे। इस प्रकार कल्याण सिंह ने दोबारा अपने पुराने रूप में लौटने का संकेत दिया है। मंदिर मुद्दे के बाबत उन्होंने कहा कि इसको लेकर अब राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जन क्रांति पार्टी का गठन कार्यकर्ताओं की मर्जी से किया गया है। इस बारे में लखनऊ और दिल्ली की बैठकों में समर्थको ने सहमति और सुझाव दिया था। उन्होंने कहा कि पार्टी की ओर से चुनाव आयोग से चुनाव चिन्ह के रूप में गिलास, चारपाई, टोकरी, मांगी गई है। इनमें से जो भी चुनाव चिन्ह आयोग द्वारा आवंटित किया जाएगा पार्टी उसी पर अगले चुनाव लड़ेगी।

लौटेगा हाकी का गौरव

भारतीय खिलाड़ियों के लिए वर्ष २०१० काफी अहम होगा। इस साल भारत में ही दो बड़े खेल आयोजन हाकी विश्व कप और राष्ट्रमंडल खेल आयोजित किए जाएंगे। वर्ष की पहला सबसे महत्वपूर्ण खेल आयोजन हाकी विश्व कप २८ फरवरी से १३ मार्च तक नई दिल्ली में खेला जाएगा। यह सिर्फ भारतीय टीम हीं नहीं बल्कि विदेशी कोच जोंस ब्रासा के लिए भी अग्नि परीक्षा होगी। भारतीय हाकी पिछले कुछ सालों में लगातार विवादों और लचर प्रदर्शन के कारण चर्चा में रही लेकिन आश्ाा है कि विश्व कप में वह अच्छा प्रदर्शन करके खोई हुई प्रतिष्ठा हासिल करने की तरफ मजबूती से कदम बढ़ाएगी। उम्मीद है कि वर्ष २०१० में भारतीय हाकी के लिए उम्मीदों की नई सुबह लेकर आएगा। लेकिन भारतीय हाकी को फिर से जिंदा करना है तो उसके ढांचे में बदलाव करना होगा। भारत में हाकी के लिए अभी भी इसके मुरीदों में पुराना प्यार है। इसका अंदाज शायद इसी बात से लगाया जा सकता है आज भी रंगास्वामी कप के लिए खेली जाने वाली राष्ट्रीय हाकी चैंपियनशिप के मैच देखने के लिए क्रिकेट में रणजी ट्राफी, दिलीप ट्राफी और देवधर ट्राफी तथा अब विजय हजारे ट्राफी वनडे मैचों से ज्यादा हाकी प्रेमी आते हैं। २०१० में भारत घरेलू मैदान में और घरेलू समर्थकों के बीच वर्ल्ड कप के मैच खेलेगा। इसका फायदा उठाते हुए अगर वह इसमें टाप छह टीमों में जगह बनाने में कामयाब रहता है, तो भारत को दुनिया की इलीट टीमों के चैंपियंस ट्राफी जैसे टाप लेवल टूर्नामेंट में खेलने का मौका मिलेगा। भारतीय खिलाड़ी आस्ट्रेलिया, जर्मनी, हालैंड, इंग्लैंड, स्पेन, साउथ कोरिया और न्यूजीलैंड की टीमों के खिलाफ खेलेंगे, उनके खेल का स्तर तो सुधरेगा ही उन्हें खुद पर यह भरोसा होगा कि वे दुनिया में किसी से कम नहीं। भारतीय हाकी के बेहतर होने की शुरुआत के लिए उसे वर्ल्ड कप जैसा प्लेटफार्म नहीं मिल सकता। अच्छी बात यह है कि वर्ल्ड कप के बाद कामनवेल्थ गेम भी भारत में होने वाले हैं। एक ही साल में देश में दो बड़े टूर्नामेंट का होना भारतीय हाकी के लिए सुखद संयोग कहा जा सकता है। भारत खुशकिस्मत है कि उसने बतौर मेजबान हीरो होंडा हाकी वर्ल्ड कप के लिए खेलने का मौका पा लिया। इस बार इस वर्ल्ड कप में कुल १२ टीमें शिरकत करेंगी और इन्हें दो पूल ए और बी में बांटा गया है। पूल ए में मौजूदा चैंपियन जर्मनी, हालैंड, साउथ कोरिया, न्यूजीलैंड, कनाडा और अर्जेंटीना जैसी सशक्त टीमें हैं। भारत को पूल बी में फिलहाल सबसे जोरदार फार्म में चल रही आस्ट्रेलिया, स्पेन, इंग्लैंड, चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान और साउथ अफ्रीका के साथ रखा गया है। भारतीय हाकी टीम की गाड़ी पटरी पर लाने का जिम्मा उसके पहले फुल टाइम विदेशी कोच स्पेन के जोंस ब्रासा तथा भारतीय हाकी टीम को एक तार में जोड़े रखने में अहम भूमिका निभाने वाले कोच हरेंद्र सिंह पर होगी। घरेलू दर्शकों के जबर्दस्त सपोर्ट के बीच भारत के लिए अपनी खोई प्रतिष्ठा को दोबारा हासिल करने का यह सुनहरा मौका होगा। आस्ट्रेलिया की मौजूदगी में भारत का अपने पूल में ही शुरू की दो टीमों में स्थान पाना इतना आसान न होगा। साथ ही स्पेन, इंग्लैंड और पाकिस्तान को भी कम नहीं आंका जा सकता है। इस पूल में दरअसल आस्ट्रेलिया को छोड़ बाकी सभी टीमें लगभग बराबरी की हैं। पिछले कुछ समय से भारतीय हाकी जितने बुरे दौर से गुजरी है, इस वर्ल्ड कप में उसके लिए दुनिया की टाप छह टीमों में भी जगह बनाना बड़ी उपलब्धि होगी। भारत वर्ल्ड कप में टाप सिक्स में रहा तो वह इलीट चैंपियंस ट्राफी के लिए क्वालीफाई कर लेगा। दरअसल इस वर्ल्ड कप में भारत की चुनौती कहां तक जाएगी, यह बहुत हद तक संदीप सिंह जैसे दुनिया के बेहतरीन ड्रैग फ्लिकर के निशानों और शिवेंद्र सिंह, कप्तान राजपाल सिंह, वर्ल्ड आल स्टार टीम में चुने गए विंगर प्रभजोत सिंह, दीपक ठाकुर, तुषार खांडेकर गुरविंदर सिंह चंडी जैसे हाकी के बेहतरीन खिलाड़ियों के साथ मध्यपंक्ति में अर्जुन हालप्पा, विक्रम पिल्लै, गुरबाज सिंह, धनंजय महादिक और भरत चिकारा के खेल पर निर्भर करेगा। भारत की फिलहाल सबसे बड़ी चिंता उसकी रक्षापंक्ति है। भारतीय हाकी को संकट से उबरने के लिए पाकिस्तान से सबक लेना चाहिए। पाकिस्तान ने हाकी को अलविदा कह चुके ड्रैग फ्लिकर सुहेल अब्बास को वापस बुलाया। फुलबैक सुहेल और अनुभवी विंगर रेहान बट की वापसी से पाकिस्तान ने भारत को चैंपियंस चैलेंज वन में साल्टा (अर्जेंटीना) में सेमीफाइनल में करारी शिकस्त दी। बेहतर होगा भारत अपने सबसे मजबूत राइट फुलबैक दिलीप टिर्की को अब वापस बुलाए। आस्ट्रेलिया जिस तरह की आक्रामक हाकी भारत के कोच रह चुके रिक चार्ल्सवर्थ के मार्गदर्शन में खेल रहा है, उसे रोक पाना किसी भी टीम के लिए दिल्ली में होने वाले वर्ल्ड कप में बहुत मुश्किल होगा। दिलचस्प बात यह है कि यदि आस्ट्रेलिया को कोई चौंका सकता है, वह भारत ही होगा, क्योंकि दोनों ही आक्रामक हाकी खेलते हैं। भारत का पहला लक्ष्य अपने पूल मैचों में ध्यान लगाकर पूल में टाप थ्री में स्थान बनाने पर होना चाहिए। अगर बात करें भारतीय हाकी टीम की रक्षापंक्ति की तो भारतीय हाकी की रक्षापंक्ति का सरदार कहा जाता है सरदार सिंह को, वह नामधारी हैं इनसे पूरे भारत को काफी ज्यादा उम्मीदें हैं। इस पंथ के मानने वालों का हाकी प्रेम वाकई एक मिसाल है। नामधारियों की टीम के दीदार सिंह और हरपाल सिंह सरीखे खिलाड़ी भारत का ओलंपिक हाकी में प्रतिनिधित्च कर चुके हैं। इस क्रम में भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुमाइंदगी करने वाले बड़े खिलाड़ी के रूप में अब सरदार सिंह का नाम भी जुड़ गया है। वह २००९ के आखिर में साल्टा (अर्जेंटीना) में हुए चैंपियंस चैलेंज वन में ब्रांज मेडल जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य रहे ही, वहां वह टूर्नामेंट के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी भी रहे। सरदार अपने नाम के अनुरूप ही वाकई मैदान पर अपने बढ़िया खेल से खुद को सरदार साबित करते हैं। सरदार सिंह की एक और खासियत यह है कि वह अब पीछे आक्रामक बैक के रूप में खेलने के बावजूद आगे अपने साथी फारवर्ड को हमले बोलने में वैसी ही मदद करते हैं, जैसी कि वह बतौर सेंटर हाफ करते थे। २०१० में भारतीय हाकी टीम को पटरी पर लाने में सरदार सिंह का रोल खासा अहम होगा। सरदार से भारतीय हाकी टीम को अगले साल के शुरू में पहले वर्ल्ड कप और उसके बात कामनवेल्थ गेम्स में बहुत उम्मीदें हैं। सरदार सिंह के बाद भारतीय हाकी में सबसे ज्यादा उम्मीदें हैं तो जूनियर स्तर पर भारत के कप्तान रहे दिवाकर राम से। भारत के पूर्वी अंचल के गोरखपुर के दिवाकर राम अपने ड्रैग फ्लिक से दुनिया की मजबूत से मजबूत रक्षापंक्ति को भेदने का दम रखते हैं। ऐसे में भारत की टीम जब २०१० के शुरू में नई दिल्ली में होने वाले वर्ल्ड कप तथा कामनवेल्थ गेम्स में खेलने उतरेगी तो वह अनुभवी ड्रैग फ्लिकर संदीप सिंह, धनंजय महादिक, वी. रघुनाथ के साथ भारत की सीनियर हाकी टीम के लिए गोल करने के एक प्रमुख अस्त्र के रूप में मौजूद रहेंगे। दरअसल इस बार जर्मनी के लिए अपना खिताब बरकरार रखना मुश्किल लगता है। भारत के पूर्व ओलंपियन जगबीर सिंह २०१० में होने वाल हाकी वर्ल्ड कप में भारत के अवसरों की बाबत हाल ही में मीडिया से कहा, भारत की निगाहें पूल में बढ़िया प्रदर्शन पर होनी चाहिए। भारत को अपने पूल में बढ़िया प्रदर्शन कर शुरू की तीन टीमों में जगह बनाने का लक्ष्य बना कर आगे बढ़ना होगा। इससे भारत पर उम्मीदों का दबाव कम होगा। वह वर्ल्ड कप में टाप छह में रहा तो फिर कम से कम चैंपियंस ट्राफी तो खेलेगा। इसके अलावा अपने देश की हाकी को और मजबूती के लिए यह जरूरी है कि हमें दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नैशनल स्टेडियम और शिवाजी स्टेडियम में नए एस्ट्रो टर्फ बिछानी होगी। इससे हाकी को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। आने वाले समय में देश के अलग-अलग हिस्सों में ज्यादा से ज्यादा एस्ट्रो टर्फ लगाए जाने चाहिए। अक्सर भारतीय हाकी की खराब हालत के लिए देश में आधुनिक सुविधाएं न होने का रोना रोया जाता रहा है। भारतीय खिलाड़ी पुराने और खराब पड़ चुके टर्फ पर प्रैक्टिस करते रहते हैें और इससे उनका गेम भी प्रभावित होता है। मगर खिलाड़ियों की यह शिकायत अब जल्दी ही दूर हो जाएगी। टर्फ बिछाने और उसके रखरखाव में बहुत खर्चा आता है, मगर अब समय आ गया है कि हाकी प्रशासन को इसके लिए तैयार होना होगा। उम्मीद है कि २०१० में पंजाब, उत्तर प्रदेश, भोपाल, उड़ीसा, झारखंड और हरियाणा जैसे राज्यों में हर जगह चार-चार एस्ट्रो टर्फ होगी। यदि ऐसा होता है तो फिर भारतीय हाकी खिलाड़ियों को अपना गेम यूरोपीय खिलाडिय़ों की तरह तेज और ताकतवर बनाने में देर नहीं लगेगी। इतना ही नहीं भारत में हाकी के अच्छे उस्तादों की कभी भी कमी नहीं रही। बात बस अहम पर आकर लटक जाती है। इस मामले में पंजाब सरकार ने परगट सिंह सरीखे भारत के पूर्व ओलंपियन को अपने यहां स्पोर्ट्स डायरेक्टर के पद पर तैनात किया। वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने भारत के पूर्व ओलिंपियन अशोक कुमार सिंह को अपने राज्य में हाकी को संवारने की अहम जिम्मेदारी सौंपी है। उत्तर प्रदेश सरकार को भी इस बारे में पहल करनी होगी। परगट सिंह और अशोक कुमार सिंह, दोनों इन राज्यों में जमीनी स्तर से हाकी की प्रतिभाओं को निखारने में जुटे हैं। निजी तौर पर हाकी खिलाडिय़ों को तैयार करने में धनराज पिल्लै और आशीष बलाल बेंगलुरू में जुटे हैं। यदि देश के पूर्व ओलंपियन वाकई दिल से हाकी का फिर भला चाहते हैं तो उन्हें खुद स्कूल और कालेजों में जाकर अपना अनुभव बांटना होगा। ग्रास रूट स्तर पर किए जा रहे ये बदलाव जल्दी ही पाजिटिव परिणाम देने लगेंगे। पंजाब सरकार ने पंजाब गोल्ड शुरू कर एक अच्छा आगाज किया है। इसके २००९ में इस साल के शुरू में भारत को ओलिंपिक व वर्ल्ड चैंपियन जर्मनी, यूरोप की हालैंड सरीखी शीर्ष टीम तथा न्यूजीलैंड की टीम के खिलाफ खेलने का मौका मिला था। भारत का इसमें उपविजेता रहना इस बात का संकेत है कि भारतीय हाकी फिर से सही दिशा में आगे बढ़ रही है। उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश सरकार इससे प्रेरणा लेकर इंदिरा गांधी इंटरनैशनल गोल्ड कप को फिर शुरू करेगी। भारत में हर साल जितने ज्यादा इंटरनैशनल स्तर के हाकी टूर्नामेंट होंगे, उतना ही ज्यादा भारतीय खिलाड़ियों को दुनिया भर के खिलाड़ियों के खिलाफ खेलने का मौका मिलेगा। जब ज्यादा टूर्नामेंट होंगे तो भारत को हाकी खिलाड़ियों का बड़ा पूल चुनने को मिलेगा। आईपीएल में जिस तरह कारपोरेट कंपनियां शामिल होकर उसे सफलता की नई ऊंचाई की ओर ले जा रही हैं, हाकी में भी अगर ऐसा हो पाता, तो इस खेल का गौरव लौटने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। अच्छी बात यह है कि हीरो होंडा और सेल ने भारत में हाकी के वर्ल्ड कप के लिए बतौर प्रायोजक आकर पहल की है। उम्मीद करनी चाहिए कि उनकी तरह और भी कारपोरेट आगे आएंगे।

विचारधारा से दूर होती राजनीति

नये साल में भारतीय जनता पार्टी ने संकल्प लिया है पहरेदारी का। संकल्प यह है कि वह केंद्र सरकार की कारगुजारियों पर वॉचडॉग की भूमिका निभाएगी। इतना ही नहीं नए साल में सरकार पर निगाह रखने को बीजेपी ने दस मुद्दे तय कर लिए हैं। तो दूसरी तरफ देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने स्थापना के सवा सौ साल पूरे किए हैं। भाजपा दावा करती है कि वह कांग्रेस का विकल्प है पर जब हम गैर कांग्रेसवाद की बात करते हैं तो उसका अर्थ होना चाहिए कांग्रेस का विकल्प। पर देश के दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल इस कसौटी पर खरा उतरता दिखाई नहीं देता। खुद भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने की बजाय कांग्रेस की हमशक्ल बनना चाहती है। अगर हम पहले भाजपा के संकल्पों के उन दस मुद्दों की बात करें तो पहला महंगाई, जो कांग्रेस राज में खूब तेजी से बढ़ी। पर सरकार रोकने में नाकाम रही और भाजपा कांग्रस को घेरने में पीछे रही। संसद में बहस हुई। तो गिनगिनाकर बहस के वक्त सदन में १७ सांसद दिखे। दूसरा आतंकवाद और नक्सलवाद। तीसरा पाकिस्तान से संबंध की नीति। चौथा रंगनाथ मिश्र रपट। जिस पर सरकार ढाई साल बाद भी एटीआर पेश करने की हिमाकत नहीं दिखा सकी। पर खुद एनडीए में रंगनाथ रपट पर एक राय नहीं। सो बीजेपी अपने एजंडे पर खेलेगी। यानी बीजेपी की दलील, अगर रपट पर अमल हुआ। तो एससी, एसटी, ओबीसी के आरक्षण अधिकार कम होंगे। पांचवां महिला आरक्षण बिल। जिस पर संसद का बहुमत तो साथ, पर आम सहमति नहीं। सो गेंद सरकार के पाले में। पर बीजेपी भला अकेली कांग्रेस को क्रेडिट क्यों लेने दे। सो गाहे बगाहे मुद्दा उठाएगी। छठा सिख विरोधी दंगों के आरोपियों पर कार्रवाई। बीते साल के आखिरी दिन सरकार ने सज्जन कुमार के खिलाफ केस चलाने की हरी झंडी दे दी। पर जगदीश टाइटलर की तकदीर का फैसला नहीं। वैसे भी टाइटलर अब बिहार कांग्रेस के प्रभारी हैं। इसी साल बिहार विधानसभा का चुनाव होगा। तो नीतिश की अग्रि परीक्षा होगी। सातवां कश्मीर की स्वायत्तता की फिर से उठ रही मांग। यों स्वायत्तता की मांग कोई नई बात नहीं। नेशनल कांफ्रेंस ने १९९६ के विधानसभा चुनाव में स्वायत्तता को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया। आठवां किसान समस्या। नौवां तेलंगाना। जिसकी आग नहीं बुझ रही। और आखिरी सरकार के कामकाज के तौर तरीकों पर निगरानी। ताकि कहीं चूक हो, तो सरकार को बेनकाब कर सकें। यों बीजेपी ने जिम्मेदार विपक्ष के नाते संसद में इन मुद्दों पर सरकार को सुझाव देने का भी एलान किया। अब आपने भाजपा के दस का दम देख लिया होगा। ऐसे में सवाल उठते हैं कि बीते सालों में इनमें से ऐसा कौन सा मुद्दा था जो बीजेपी ने नहीं उठाए और अब वह इन दस मुद्दों के सहारे नय साल में क्या कर लेगी?दूसरी तरफ अगर कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल पर एक नजर डालें तो अब तक के केंद्रीय राजनीतिक परिदृश्य से साफ नजर आता है कि आज भी कांग्रेस का विकल्प कोई अन्य दल पूरी तरह नहीं बन पाया। दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल इस कसौटी पर खरा उतरता दूर तक दिखाई नहीं देता। आज कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल बाद एक बार फिर यह अहम सवाल सामने है कि क्या देश में गैर कांग्रेसवाद है? कांग्रेस की आज जो राजनीति दिख रही है वह केन्द्र में अगली दो सरकारों तक डटे रहने की राजनीति है। कोई चमत्कार न हो तो फिलहाल अगले दो आमचुनाव में कांग्रेस को टक्कर देता कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है। विपक्ष के नाम पर जो भी राजनीतिक दल हैं वे सत्ता से ज्यादा कोई राजनीतिक सोच नहीं रखते हैं। वामपंथी दलों की अपनी कोई खास निष्ठा नहीं है। वे कांग्रेस के साथ यथास्थितिवाद में ज्यादा विश्वास करते हैं। और खुद भाजपा कांग्रेस का राजनीतिक िवकल्प बनने की बजाय कांग्रेस का राजनीतिक हमशक्ल बनने में ज्यादा दिलचस्पी रखती है। गौरतलब है कि १९१५ में कांग्रेस में गांधी युग शुरू होने से पहले बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस के कर्णधार बने रहे, लेकिन १९१५ में कांग्रेस में गांधी के पदार्पण के साथ ही कांग्रेस से ए ओ ह्यूम की आत्मा सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी। १९१५ से १९४७ तक कांग्रेस का इतिहास आजादी के आंदोलन के एकमात्र राजनीतिक दल का इतिहास है लेकिन १९४७ के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस का इतिहास मात्र एक राजनीतिक दल का इतिहास हो जानेवाला था। संभवत महात्मा गांधी ने इसीलिए कांग्रेस को विसर्जित करने का भी सुझाव दिया था। ऐसा नहीं है कि १९०७ से कांग्रेस में अलग-अलग विचारधाराओं का जो टकराव शुरू हुआ वह १९१५ के बाद बंद हो गया। फिर भी कांग्रेस बिना किसी संदेह के सबके लिए एक प्रतिनिधि दल था। जो आज भी बना हुआ है। ब्रिटिश साम्राज्य ने जिस राजनीतिक चेतना को डिफ्यूज करने के लिए कांग्रेस को औजार की तरह चलाया था वही अपनी पूरी मारक क्षमता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य पर ही प्रहार कर रहा था। १९४७ में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से छुटकारा मिलने के बाद कांग्रेस एक राजनीतिक दल के रूप में देश के सामने था। उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद भारत को विरासत में जो कांग्रेस मिली लंबे समय तक लोगों का उसके प्रति जुड़ाव पूरी तरह से भावनात्मक बना रहा। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक गांव घर के बड़े बुजुर्ग कांग्रेस को महात्मा गांधी की कांग्रेस ही समझते रहे और दुहाई देते रहे कि जिस पार्टी ने देश को आजाद करवाया आज उसे ही लोग सम्मान नहीं दे रहे हैं। लेकिन इक्कीसवी सदी में अब न वे लोग बचे हैं जो आजादी के आंदोलन से कांग्रेस को जोड़कर खुद भावनात्मक रूप से जुड़े रह सकें। उपनिवेशवाद के खात्मे के साथ ही देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति ने भी आकार लेना शुरू कर दिया था। देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति पर सोचेंगे तो दो नाम सबसे अहम दिखाई देंगे. एक, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दो, डॉ राममनोहर लोहिया. ये दो नाम ऐसे हैं जो कांग्रेस के धरातल से पूरी तरह दूर जाकर देश में विपक्ष की स्थापना करना चाहते थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धारा आगे चलकर लगातार मजबूत होती गयी और आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में उस धारा का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल देश में मौजूद है जबकि राममनोहर लोहिया की धारा लगातार बिखरती चली गयी। आज जो अपने आप को लोहिया के लोग कहने वाले भी कांग्रेस के अहाते में ही शरण पाना चाहते हैं। साठ सालों में राजनीति भी विचार और व्यवहार से हटकर सत्ता और सौदेबाजी का बिषय हो गया है इसलिए अब गैर कांग्रेसवाद जैसा शब्द उतना आकर्षित नहीं करता जैसा सत्तर और अस्सी के दशक में करता था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसा धैर्य भी किसी राजनीतिज्ञ में नहीं दिखता जो लंबे समय तक इस बात की प्रतीक्षा करता है कि उसे देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार देनी है। सच्चे अर्थों में अटल बिहारी वाजपेयी ने यह काम किया और देश को छह साल तक विशुद्ध गैर कांग्रेसी सरकार दिया। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के युग के अवसान के साथ ही एक बार फिर गैर कांग्रेसवाद किनारे कर दिया गया।