Tuesday, June 29, 2010

रोचक हुआ राजनीतिक खेल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के दौरे ने बिहार की राजनीति को एक नया रंग दे दिया है। उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को लागू करने की घोषणा करके मायावती ने बिहार के अन्य राजनीतिक दलों में खलबली मचा दी है। मायावती के दौरे का असर साफ नजर आने लगा है। सभी राजनीतिक दल अपने अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने में जुट गए हैं। 
बसपा सुप्रीमों मायावती के दौरे का असर भाजपा -जदयू गठबंधन पर साफ दिखायी देने लगा है। भाजपा-जदयू गठबंधन में आयी दरार का मुख्य कारण बसपा सुप्रीमो मायावती के सफल दौरे को ही माना जा रहा है। मायावती की जनसभा में जुटी भारी भीड़ से अन्य दलों को यह आभास हो गया है कि दलित और मुस्लिम मतदाताओं के साथ-साथ सवर्ण मतदाताओं का रुझान भी बसपा की ओर बढ़ा है। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में बसपा को भले ही उत्तर प्रदेश की तरह अपेक्षित सफलता न मिले लेकिन बसपाके लिए  बिहार का चुनावी गणित काफी सक्षम प्रतीत हो रही है। 
हालांकि इससे पूर्व भी बिहार विधानसभा चुनाव में बसपा को कोई बड़ी सफलता हासिल नहीं हुई थी क्योंकि उन चुनाव में बसपा सिर्फ (वोट कटवा ) के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकी थी। लेकिन बसपा ने धर्मनिरपेक्ष मतों का जातिगत आधार पर बंटवारा करके धर्मनिरपेक्ष दलों को काफी नुकसान पहुंचाया था। बसपा के इसी रूप का लाभ भाजपा-जदयू गठबंधन को मिला था और बिहार में इस गठबंधन ने सत्ता संभाली थी। यह कहना उचित न होगा कि बसपा ही बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार बनाने में मदद की थी। क्योंकि पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की लोकप्रियता और जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद की अलोकप्रियता ने इस गठबंधन को सत्ता में पहुंचाया था। आगामी विधान सभा चुनाव में जहां इस गठबंधन को सत्ता में आने की चुनौती है वहीं लालू प्रसाद यादव और पासवान भी कांग्रेस को साथ लेकर सत्ता हासिल करने की चुनौती दे रहे हैं। जबकि उत्तर प्रदेश में बहुमत हासिल करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने बिहार की सत्ता हासिल करने का सपना संजोया है। 
बिहार के सभी राजनीतिक दल बसपा की उपस्थिति से अपनी-अपनी सफलताओं के प्रति चिंतित नजर आ रहे हैं।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  पर भी इस चिंता का असर साफ नजर आने लगा है। यही कारण है कि उन्होंने सांप्रदायिक शक्तियों से अपने को अलग करने का फैसला किया है। आमजनसभा में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्धारा दी गयी आपदा धनराशि को वापस करने की घोषणा को नीतीश कुमार की चुनावी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। नीतीश अपनी इस रणनीति से एक तीर से दो शिकार करना चाह रहे हैं। पहला यह कि नीतीश कुमार मुस्लिम मतदाताओं के बीच यह संदेश देना चाहते हैं कि उनका सांप्रदायिक शक्तियों से कोई लेना देना नहीं। वह मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी हैं। दुसरा यह कि उनकी सरकार ने अपने सहयोगी दल भाजपा के दबाव में कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे कि अल्पसंख्यक हितों की अनदेखी की जाएगी। नीतीश कुमार अपनी इस चाल से एक तरफ कांग्रेस, लालू-पासवान गठबंधन के मुस्लिम मतों में सेंध लगाने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ बसपा के प्रति बढ़ते रुझान को भी रोकने का प्रयास कर रहे हैं। श्री कुमार अपनी इन राजनीतिक रणनीतियों के साथ-साथ अपने विकास कार्यों को प्रचारित प्रसारित करके अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बना रहे हैं। फिलहाल बिहार में बसपा की सक्रियता से चुनावी गणित काफी रोचक हो गया है। जहां राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, लोजपा अध्यक्ष रामविलाश पासवान, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व कांग्रेस की प्रतिष्ठा  दांव पर लगी हुयी है। हालांकि कांग्रेस अपनी नयी जमीन तलाशने के प्रयास में नए-नए प्रयोग कर रही है।
फिलहाल बिहार का चुनावी रंगमंच बनकर तैयार है। सभी किरदार अपनी बदली भूमिका में नजर आ रहे हैं। कौन किसको अपने गले लगाएगा और किसकी पीठ में खंजर चुभायेगा यह जानने में अभी वक्त लगेगा। लेकिन राजनीति के धुरंधरों की मांग बढ़ रही है। चौपालों और कस्बों में चुनावी चर्चा जोर पकड़ रही है। बहस का मुद्दा फिलहाल यही है कि नीतीश कुमार दुबारा सत्ता हासिल करेंगे या फिर लालू प्रसाद यादव और उनके राजनीतिक कुनबे की वापसी होगी। बसपा एवं सपा भी इस खेल को रोचक बनाने में जुटे हुए हैं।  इन सबसे अलग कांग्रेस अकेले दम पर ताल ठोंककर अपनी खोई जमीन वापस लाने को बेकरार है।

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