Monday, June 14, 2010

यह कैसा न्याय

भोपाल गैस त्रासदी के मुददे पर भी राजनीति शुरू हो गयी है। सीबीआई ने केस की जिस तरह से लचर पैरवी की है। उसका परिणाम सामने दिख रहा है। देश के आज तक के सबसे भयानक हादसे , जिसमें २७०० लोगों की मौत हो गयी थी सिर्फ आरोपियों को दो वर्ष की सजा सुनायी गयी। इन्हें बाद में जमानत पर रिहा भी कर दिया गया । इस फैसले से भोपाल के गैस पीड़ित परिवारों को घोर निराशा हुई है।
हालांकि केंद्रीय कानून मंत्री ने यह घोषणा करके कि अभी भोपाल गैस त्रासदी मामला खत्म नहीं हुआ है पीड़ितों के परिवारों के घावों पर मरहम लगाने का काम किया है लेकिन लोग उनके इस वक्तव्य पर शंका व्यक्त कर रहे हैं । वे इस फैसले के लिए राज्य और केंद्र सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं। इसके खिलाफ हर क्षेत्र से व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिली है। समाज के सभी तबकों ने सीबीआई पर अपनी जिम्मेदारी वहन न करने का आरोप लगाया है। इन सबका मानना है कि सीबीआई ने अगर ढंग से पैरवी की होती तो इस कांड के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिल सकती थी।
हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला देने वाले मामले पर २५ साल बाद भोपाल की सीजेएम कोर्ट ने फैसला सुना ही दिया। पंद्रह हजार से ज्यादा लोग भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली गैस से मारे गए थे। अभी भी कम से कम से कम ६ लाख लोग ऐसे हैं जिनके भीतर जहरीली गैस समाई है। इसके बुरे असर से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक के शिकार लोग हो रहे हैं। यह असाधारण मसला था लेकिन इसकी पूरी जांच और सुनवाई भारतीय संविधान की उन कमजोर कड़ियों का इस्तेमाल करके की गई कि यह लापरवाही का मामला बनकर रह गया। कमाल तो यह है कि उस समय यूनियन कार्बाइड के सीईओ रहे वॉरेन एंडरसन को आज भी दोषी नहीं बताया गया। जबकि वे इसी मामले में करीब दो दशक से भगोड़ा घोषित है। इसलिए जरूरी ये है कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी असाधारण परिस्थितियों के लिए संविधान में नए सिरे से बदलाव किया जाए।
दो-तीन दिसंबर १९८४ को भोपाल में जो औद्योगिक दुर्घटना हुयी थी जिसकी मार आज भी उस शहर के लोग झेल रहे हैं। इस भीषणतम दुर्घटना के पीड़ितों को आज तक उचित मुआवजा नहीं मिल पाया है। आज पच्चीस बरस बीत गए उस हादसे को। समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े लोग आज भी इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि किस तरह दुर्घटना में मारे गए लोगों को न्याय दिलाया जाए। न्याय भी मिला तो ऐसा कि लोगों के गले नहीं उतर रहा। दो - तीन दिसंबर की वह काली रात जब यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनाइड गैस लीक हुई थी तो १५ हजार से अधिक लोग मारे गए थे और तकरीबन पांच लाख से अधिक लोग घायल हुए थे। आज २५ बरस बीत चुके हैं तो गैस कांड के पीड़ित लोगों का न्याय देश में कोई मुद्दा नहीं है।
इस त्रासदी के उपरांत आज भी प्रभावित इलाके में भूजल बुरी तरह प्रदूषित है इससे प्रभावित लोगों की आने वाली पीढिय़ां बिना किसी जुर्म के शारीरिक और मानसिक तौर पर सजा भुगत रहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि हजारों को असमय ही मौत की नींद सुलाने वाले दोषियों को २५ साल बाद महज दो दो साल की सजा मिली और तो और उन्हें जमानत भी तत्काल ही मिल गई। हमारे विचार से तो इस मुकदमे की सजा इतनी होनी चाहिए थी कि यह दुनिया भर में इस तरह के मामलों के लिए एक नजीर पेश करती, वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं। कानून मंत्री वीरप्पा मोईली खुद भी लाचार होकर स्वीकार कर रहे हैं कि इस मामले में न्याय नहीं मिल सका है। फैसले में हुई देरी को वे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहे हैं। दरअसल मोईली से ही यह प्रश्न किए जाने की आवश्यक्ता है कि उन्होंने या उनके पहले रहे कानून मंत्रियों ने इस मामले में क्या भूमिका निभाई है।
इस औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक़ या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया था। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद लोगों का भरोसा सीबीआई से भी उठना स्वाभाविक है। इस मामले ने भारत के तंत्र को ही बेनकाब कर दिया । क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिका और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष की लौंडी बनकर रह गए हैं।

सीबीआई ने तीन साल तक लंबी छानबीन की और आरोप पत्र दायर किया था। इसके बाद आरोपियों ने उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाए थे। उच्च न्यायालय ने इनकी अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद आरोपी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए । वहां से उन्होंने आरोप पत्र को कमजोर करवाने में सफलता हासिल की। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या सीबीआई इतनी कमजोर हो गई थी कि उसने मामले की गंभीरता को न्यायालय के सामने नहीं रखा या रखा भी तो पूरे मन से नहीं । कारण चाहे जो भी रहे हों पर पीडि़तों के हाथ तो कुछ नहीं लगा।

आखिर क्या वजह थी कि एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद गेस्ट हाउस में रखा गया। इसके बाद जब उसे जमानत मिली तो विशेष विमान से भारत से भागने दिया गया। जब उसे ०१ फरवरी १९९२ को भगोड़ा घोषित कर दिया गया था तब उसके प्रत्यर्पण के लिए गंभीरता से प्रयास क्यों नहीं किए गए! २००४ में अमेरिका ने उसके प्रत्यर्पण की अपील ठुकरा दी गई तो सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। क्या अमेरिका का इतना खौफ है कि इस दिल दहला देने वाले हादसे के बाद भी सरकार उसे सजा दिलवाने भारत न ला सकी। सरकार वैसे भी लगभग दस गुना कम मुआवजा स्वीकार कर अपनी मंशा स्पष्ट कर चुकी है। क्या कारण थे कि भारत सरकार ने इस कंपनी को चुपचाप बिक जाने दिया। इस दौरान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति न जाने कितनी मर्तबा अमेरिका की यात्रा पर गए होंगे पर किसी ने भी अमेरिकी सरकार के सामने इस मामले को उठाने की हिमाकत नहीं की। अगर देश के नीति निर्धारक चाहते तो अमेरिका की सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते थे कि वह यूनियन कार्बाईड से यह बात पूछे कि यह हादसा हुआ कैसे!

No comments:

Post a Comment