Tuesday, April 13, 2010

...चुनौती

आतंकवाद के साथ-साथ नक्सलवाद ने भी देश को पूरी तरह से जकड़ लिया है। देश में नक्सलवाद इस कदर हावी हो गया है कि देश में गृहयुद्ध का खतरा बन गया है। नक्सलवादियों के बढ़ते आधार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय ग्रहमंत्री पी. चिदंबरम की चुनौतियों को नजरदाज करते हुए नक्सलवादियों ने दंतंवाड़ा में ७६ जवानों को मौत की नींद सुला दिया। इस घटना से नक्सलियों ने सीधे-सीधे देश की सुरक्षा को चुनौती दी है। देश में बढ़ता नक्सलवाद आंतरिक लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गया है।दंतेवाड़ा संहार के बाद इस्तीफे की पेशकश करके केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम भले ही सत्ता पक्ष और विपक्ष की सहानुभूति बटोरने में कामयाब हो गये हों, लेकिन इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि नक्सली गतिविधियों को रोकने में सरकार पूरी तरह विफल रही है। इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सलवाद का खतरा पिछले कुछ महीनों के भीतर काफी तेजी से बढ़ा है। इसके पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि जहां गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने लालगढ़ जाकर लोगों की समस्याओं को समझने की कोशिश की, वहीं माओवादियों ने दांतेवाड़ा में बर्बर हमला करके सीआरपीएफ के ७६ जवानों को मौत की नींद सुला दिया। केंद्र सरकार के आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ नक्सलियों द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा हमला है। इस हमले से एक बात तो साफ हो जाती है कि न सिर्फ राज्य सरकारें बल्कि केंद्र सरकार भी जिस हल्के तरीके से आतंकवाद की समस्या से निपटने की कोशिश कर रही हैं वह उसकी बहुत बड़ी भूल है। आंतरिक लोकतंत्र के लिए बढ़ता नक्सलवाद गंभीर खतरा है। यह बात केंद्रीय गृह मंत्री कई बार विभिन्न मंचों से उठा चुके हैं। उन्होंने इससे निपटने के लिए विस्तारित रणनीति भी बनाई है, जिसे आपरेशन ग्रीन हंट के नाम से जाना जाता है। केंद्र सरकार की इस रणनीति को नक्सल प्रभावित राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखंड, महाराष्ट्र तथा बिहार की सरकारों ने ही कभी गंभीरता के साथ नहीं लिया। इसका नतीजा यह निकला कि नक्सलवादियों के मंसूबे बढ़ते चले गये। वे कभी झारखंड में रेल की पटरी उड़ा देते हैं तो कभी पश्चिम बंगाल में नृशंस कार्रवाई में संलग्न नजर आते हैं। हाल ही में उन्होंने छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में बड़ा हमला किया।नक्सल प्रभावित सभी राज्यों में अत्याधुनिक हथियारों से नक्सली गुट लैस हैं। इनकी अच्छी खासी तादाद है। इसे छोटी मोटी लाल सेना भी माना जा सकता है। यह सेना बाकायदा चीन एवं पाकिस्तान द्वारा मुहैया कराये गये हथियारों से लैस हो चुकी है। चूंकि नक्सली गुटों को स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त है, इसलिए संबंधित राज्य सरकारें एवं जिला प्रशासन उनके खिलाफ कार्रवाई करने में विफल हैं। खास किस्म की जुझारू वामपंथी राजनीति का पैरोकार होने के चलते मानवतावादी संगठनों, साहित्यकारों, लेखकों व बुद्धिजीवियों का भी इन्हें समर्थन प्राप्त है। ये केंद्रीय सुरक्षा बलों को हमेशा बाहरी समझते हैं और उनके साथ शत्रुवत बर्ताव करते हैं। घने जंगल, नदी, नाले तथा प्रतिकूल भौगोलिक पृष्ठभूमि इनकी रणनीतिक ताकत माने जाते हैं। गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सली अक्सर बड़ी वारदातें कर जाते हैं। केंद्र व संबद्ध राज्य सरकारों के बीच तालमेल व संवाद की कमी का ये अक्सर फायदा उठाते नजर आते हैं।अब इस चुनौती से जूझने का शायद सही वक्त आ गया है। केंद्र व तमाम राज्य सरकारों को आपसी मतभेद भुला करके आपरेशन ग्रीन हंट को सफल बनाने की रणनीति बनानी होगी। नक्सलियों पर दोहरा वार करने की जरूरत है। इनके विदेशी सम्पर्कों एवं स्थानीय मददगारों की शिनाख्त होनी चाहिए व इसे कमजोर किया जाना चाहिए। दूसरे भ्रष्टाचार, गैर बराबरी, ऊंच-नीच, जातीय दमन, गरीबी व बेरोजगारी आदि जिन कारणों से नक्सलवाद जड़ें जमाता है उनको भी दूर किये जाने की जरूरत है। नक्सलवादी यदि बातचीत की पेशकश लगातार ठुकरा करके एक पर एक बड़े हमले कर रहे हैं तो यह जानना जरूरी है कि आखिरी वे ऐसा किसकी शह पर कर रहे हैं। माओवादी हिंसा का रास्ता नहीं त्याग रहे हैं। इसका मतलब है कि सरकार मानती है कि नक्सलियों पर लगाम कसना उसके लिए कठिन चुनौती है। हालांकि गृहमंत्री पी. चिदंबरम सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि अगर नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़ दें तो माओवादियों से सरकार बातचीत कर सकती है। गृहमंत्री की अपील का जवाब माओवादियों ने सुरक्षाबलों के ७६ जवानों को दांतेवाड़ा में शहीद करके दिया। नक्सली समस्या पर चिंतित सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है कि यह समस्या विशुद्ध रूप से सामाजिक सरोकार से जुड़ी हुई है। इसका समाधान सामाजिक असामानता दूर करके ही किया जा सकता है। बहरहाल बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल तक की पूरी पट्टी नक्सलवाद के जाल में बुरी तरह फंसी हुई है, जहां निरंतर निर्मम हत्याएं व सरकारी संपत्तियों की लूटपाट चल रही है। माओवादी निर्भीकता और स्वतंत्रता के साथ अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं और देश के अधिकांश राज्य इसकी चपेट में आ चुके हैं। वे सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को अगवा करते हैं। बदले में अपनी मांगे मनवाते हैं अन्यथा समय सीमा समाप्त होने पर अपहृत व्यक्ति की हत्या करके फेंक देते हैं। वे सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं। जवानों को मारते हैं। उनके हथियार छीन लेते हैं। वे ग्रामीणों की सामूहिक व निर्मम हत्या करते है। उनके घरों में आग लगा देते हैं। हत्याओं के लिए जघन्य तरीके अपनाते है। पुलिस जवानों की निर्मम हत्याओं के बावजूद सरकार अब तक कुछ खास कार्रवाई नहीं कर पाई। नक्सलवादियों के ऐसे कृत्यों से सुरक्षाबलों का मनोबल गिर रहा है और समाज में अशांति उत्पन्न हो रही है। चिदंबरम के आपरेशन ग्रीन हंट के सामने नक्सलियों का रेड हंट भारी है। चिदंबरम की समूची रणनीति को नक्सलियों ने विफल कर दिया है। नक्सलियों ने उनके ग्रीन हंट को ठेंगा दिखाते हुए ताबड़तोड़ कई बड़ी वारदातें कीं। नक्सलवाद समग्र आर्थिक और सामाजिक समस्या है, जिसकी शुरुआत चालीस साल पहले भारत में हुई थी। पिछले पांच सालों में नक्सलियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को पचास प्रतिशत तक बढ़ा लिया है। इतनी तेजी से नक्सलियों का प्रभाव कैसे बढ़ा यह शोध का विषय हो सकता है। देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ी है। गरीब बढ़ रहे हैं। अमीर भी बढ़ रहे हैं। अब भुखमरी की स्थिति में लोग क्या करें। या तो भीख मांगेंगे या नक्सलियों की शरण में जाएंगे। नक्सली हर गुरिल्ला को तीन हजार रुपये मासिक वेतन दे रहे हैं। साथ ही वसूली का हिस्सा भी। दूसरी तरफ सरकार अगर अपने पुलिस बल में या अन्य नौकरियों में किसी को रखती है तो घूस के तौर पर दो लाख से पांच लाख रुपये तक मांगा जाता है। झारखंड, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों में भर्ती में जो भ्रष्टाचार है, वह किसी से छिपा नहीं है। नक्सलियों की जमीन को विस्तार देने में तो सरकार की खुद की आर्थिक नीतियां दोषी रही हैं। आदिवासी संसाधनों की लूट अगर नहीं रुकी तो नक्सलवादी जमीन कमजोर नहीं होगी बल्कि उसका विस्तार ही होगा। हर राज्य सरकार खाद्यान्नों की लूट में लगी है। इनके माफिया और कारपोरेट मिल जुलकर खादान्नों को लूट रहें है। नक्सलियों से बातचीत करने का अब तक कोई फायदा नहीं निकला। वे बातचीत को भी अपने फायदे में इस्तेमाल करने की सोचते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का नक्सलियों के प्रति साफ्ट कार्नर है। जब केंद्र नक्सलियों पर लगाम कसना चाहता है और पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार का सहयोग करना चाहता है तो ममता बनर्जी नाराज हो जाती हैं। बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार व झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का स्टैण्ड भी इस मुद्दे पर साफ नहीं है। न ही आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व उड़ीसा के मुख्यमंत्रियों का। बुजुर्ग साहित्यकार महाश्र्वेता देवी ने नक्सली समस्या के हल के लिए मध्यस्थता की रजामंदी तो जताई लेकिन किशन पटनायक सरीखे नेताओं ने बातचीत का रास्ता नकारते हुए २०५० तक भारतीय गणतंत्र को ही मटियामेट करने की चेतावनी दे डाली। वे अपनी हिंसक रणनीति को भी जारी रखे हुए हैं। छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में माओवादियों की खूनी कार्रवाई से एक बार फिर सरकार के नक्सल विरोधी अभियान पर सवालिया निशान लग गया है। केंद्र सरकार ने जब से यह अभियान शुरू किया है माओवादियों के हमले और बढ़ गए हैं। एक तरफ खूनी खेल चल रहा है तो दूसरी तरफ सियासी खेल। सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकारें मन से नक्सल विरोधी अभियान में केंद्र सरकार के साथ हैं। केंद्र के रवैये को लेकर उनके भीतर गहरा संशय बना हुआ है। जब केंद्र उनसे कानून व्यवस्था दुरुस्त करने की बात कहता है तो वे उसे आक्षेप की तरह लेती हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके केंद्र आम आदमी के भीतर उनकी गलत छवि बनाकर उसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहता है। मसलन पश्चिम बंगाल को ही लें। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम जब राज्य के कानून व व्यवस्था का मुद्दा उठाते हैं या इस मामले में कोई सलाह देते हैं तो बुद्धदेव भट्टाचार्य को लगता है कि चिदंबरम अपने सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस की भाषा बोल रहे हैं। कई राज्यों की सरकारों ने अपने तरीके से माओवादियों से निपटने की कोशिश तो की लेकिन उन सरकारों ने चुनाव में माओवादियों से लाभ भी लिए। ऐसी सरकारें अभी भी उनसे सीधे टकराव से बचना चाहती हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री ने हाल में कुछ ऐसा ही संकेत दिया था। राज्यों और केंद्र के बीच द्वंद्व का फायदा नक्सलियों ने शुरू से ही उठाया और लगातार अपना विस्तार किया। वे सरकार की दुविधा को समझते हैं। इसलिए बीच-बीच में बातचीत की पेशकश पर सकारात्मक रुख अपनाने का स्वांग रचते हैं। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा के बाद छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस तरह का रक्तपात मचाया, वह बेहद निंदनीय है। दांतेवाड़ा के जंगलों में सीआरपीएफ व राज्य पुलिस के गश्ती दलों पर घात लगाकर नक्सलियों ने हमले किए, जिसमें ७५ जवान शहीद हुए। गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने इसकी कड़ी निंदा करने की औपचारिकता निभा ली है और सुरक्षा बलों की रणनीतिक चूक को इसका कारण बताया है। केंद्रीय गृहमंत्री को रणनीतिक चूक जैसे बयान देने के बजाय वास्तविकता से जनता को अवगत कराना चाहिए। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के दौरे के मौके पर उन्होंने मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को नक्सलवाद से निबटने की नसीहत दी। इस नसीहत से उपजा बवाल अभी शांत नहीं हुआ था कि अब यह रणनीतिक चूक का मसला सामने है। नक्सलवाद को सरकार आतंकवाद की तरह गंभीर मुद्दा मानती है और ऐसा है भी। जाहिर है इसके खिलाफ रणनीति भी उतनी ही गंभीरता से बनाई जाती होगी, जितनी बाहरी दुश्मनों से लड़ने के लिए। तब रणनीतिक चूक की बात बहुत हल्के किस्म की लगती है। देश के कई रक्षा विशेषज्ञ, पुलिस, खुफिया विभाग के श्रेष्ठ अफसर नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बनाते हैं, अगर इसमें कमी रहती है तो यह बेहद गंभीर बात है। राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर पर जरूरत से ज्यादा बयानबाजी भी इस समस्या को उलझा रही है।

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