Monday, June 14, 2010

कूटनीतिक रिश्तों के ६०साल

भारतीय राष्ट्रपति का एक दशक बाद चीन दौरा भारत व चीन के रिश्तों में विशेष महत्व रखता है। भारत की तुलना में चीन का राष्ट्रपति अपने देश की एक शक्तिशाली हस्ती है। इसलिए यह बात कम करके नहीं आंकी जा सकती कि चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने भारतीय राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल को चीन आमंत्रित कर भारत के साथ रिश्ते मजबूत करने की बात की।इस यात्रा के दौरान चीन के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जिस तरह भारतीय राष्ट्रपति को समय दिया, उससे पता चलता है कि भारत के साथ रिश्तों को मजबूत करने के लिए वह कितना गंभीर है।
चीन भारत के साथ अपने रिश्तों के महत्व को समझता है। भारत और चीन के बीच कूटनीतिक रिश्तों की स्थापना की ६०वीं सालगिरह मनाने के लिए प्रतिभा पाटिल को चीन सरकार द्वारा आमंत्रित किया जाना और पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ ग्रेट हाल ऑफ द पीपल में उनकी अगवानी करना इस बात का सूचक है कि भारत के साथ रिश्तों को चीन आगे बढ़ाना चाहता है। दो पड़ोसियों का एक दूसरे के यहां आना जाना हो तो मतभेदों के बावजूद रिश्ते आगे बढ़ते रहते हैं। इस नजरिए से प्रतिभा पाटिल का चीन दौरा दोनो देशों रिश्तों के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है। चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ २००६ में भारत दौरे पर आए थे। तब उनके दौरे में सीमा मसले पर दूरगामी महत्व का एक समझौता हुआ था। उसी समझौते के आधार पर आज भी दोनों देश सीमा विवाद पर बातचीत कर रहे हैं, हालांकि अब इसमें ठहराव सा आ गया है। भारत और चीन के बीच करीब दो सालों में तनाव बढ़ा है। इसकी वजह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सेना के अतिक्रमण और घुसपैठ की घटनाओं का बढ़ना है, साथ ही चीन ने अनावश्यक तौर पर जम्मू कश्मीर के नागरिकों को स्टेपल वीजा देने की प्रथा शुरू करके भारत को चिढ़ाने की बात की है। न चीन ने भारत की चिंताओं को दूर करने की बात की और न ही राष्ट्रपति ने इन मसलों को सीधे तौर पर उठाया। राष्ट्रपति ने इशारे में यही कहा कि एक दूसरे की भावनाओं की परस्पर समझ से ही आपसी रिश्तों में गहराई आ सकती है। इशारा साफ था कि चीन भारत की शिकायतों को दूर करे और सीमा विवाद का जल्द से जल्द हल खोजे, ताकि दोनों देशों के बीच जारी विवाद दूर हो और वे बेहतर साझेदारी के साथ आगे बढ़ें। मौजूदा दशक में दोनों देशों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बहुपक्षीय गठजोड़ स्थापित किए हैं। भारत, चीन और रूस का त्रिकोणीय गठजोड़ तो चल ही रहा है भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का गठजोड़ भी कायम हुआ है। इन दोनों गठजोड़ों की अब सालाना बैठकें होने लगी हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत और चीन किस तरह कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं।
पिछले साल कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति हू जिन्ताओ की साझेदारी रंग लाई और उन्होंने अमेरिका जैसी ताकतों की नहीं चलने दी, उससे साफ है कि दोनों देश यदि परस्पर तालमेल से चलें तो कोई भी ताकत इनके हितों को चोट नहीं पहुंचा सकती। भारत तो यही उम्मीद करता है कि बड़ी ताकतों की दादागिरी को चुनौती देने के लिए चीन और वह हमेशा साथ रहेंगे। वैसे जिस तरह ये दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ सीमाओं पर सैन्य तैनाती में लगे हैं, उससे साफ है कि इन दोनों के बीच परस्पर विश्वास की भारी कमी है। जब बात आपसी रिश्तों की आती है तो दोनों देशों के सुरक्षा अधिकारी एक दूसरे के खिलाफ बांहें चढ़ाने लगते हैं और जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समान हितों की बात आती है तो दोनों कंधे से कंधा मिला कर चलने लगते हैं।यह विरोधाभास दोनों को ही मिल कर खत्म करना होगा। हालांकि इसे दूर करने की ज्यादा जिम्मेदारी चीन की ही है। उसके लिए स्टेपल वीजा का मसला हल करना कोई बड़ी बात नहीं है। उसे यह भी समझना होगा कि जम्मू कश्मीर के पाक अधिकृत इलाके में सिंचाई व बिजली परियोजनाओं का ठेका लेने का मतलब भारत को परेशन करना है। इधर भारत भी चीन की दूरसंचार कंपनियों के साथ भेदभाव की नीति त्याग सकता है और चीनी कामगारों के लिए उदार वीजा नीति अपना सकता है। सीमा मसले का जो हल ६० के दशक में चीनी नेतृत्व ने अप्रत्यक्ष तौर पर सुझाया था, भारत आज उसे मानने को तैयार हो सकता है। ८० के दशक में भी तंग श्याओ फिंग ने एकमुश्त सीमा समझौते की पेशकश की थी। आज यदि वास्तविक नियंत्रण रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा में बदल दिया जाए तो काफी हद तक इस मसले का हल निकल सकता है, लेकिन चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके पर दावा ठोंक कर इसे जटिल बना दिया है। चीन यदि चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत उसके साथ साझेदारी से चले तो उसे भारत की दिक्कतों को भी ध्यान में रखना होगा। राष्ट्रपति पाटिल के मौजूदा चीन दौरे की यही उपलब्धि कही जा सकती है कि भारत सौहार्दपूर्ण माहौल में चीन को अपनी भावनाओं से अवगत करा सका है।

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