Saturday, May 22, 2010

आसान नहीं डगर

तमाम अफवाहों और झंझटों से जूझते हुए अंततः भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तर प्रदेश में सूर्य प्रताप शाही के हाथ में पार्टी की कमान सौंप दी। लगभग मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुकी पार्टी को पुर्नर्जीवित करने की अभिलाषा संजोए संगठन के नये सेनापति सूर्य प्रताप शाही की पहचान न तो राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रदेश के बड़े नेता के तौर पर की जाती है। आज भी उन्हें पूर्वांचल का ही नेता माना जाता है।फिलहाल नयी भूमिका में वे संगठन में कितनी जान फंूक पाते हैं यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि प्रदेश संगठन के अब तक जितने कद्दावर नेता हुए हैं उनका भी बड़ा जनाधार नहीं रहा। हालांकि वे पार्टी में बड़े कद के नेता जरूर माने जाते रहे हैं। चाहे पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हों या फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र अथवा सांसद लालजी टंडन सबका यही हाल है। विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह सबकी सीमायें जगजाहिर हैं। प्रांतीय संगठन में पिछड़ों के नेता होने का दम भरने वाले ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास न कर सके। प्रदेश भाजपा में टांग खींचू राजनीति का यह खेल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका है। ऐसे में नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही धुरंधरों एवं बंटे समर्थकों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं यह एक यक्ष प्रश्न है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रदेश भाजपा का ग्राफ २००२ से लगातार गिरता जा रहा है। इस दौरान पार्टी अपना खोया जनाधार पाने के लिए कई प्रयोग कर चुकी है। विनय कटियार से लेकर रमापति राम त्रिपाठी तक को कमान सौंपी जा चुकी है। अब तक आजमाये गये नुस्खों से पार्टी की सेहत ठीक होना तो दूर की बात उसमें सुधार के लक्षण भी नजर नहीं आ रहे हैं। इन नुस्खों का परिणाम यह जरूर देखने को मिला कि पार्टी प्रदेश में दूसरे नंबर से खिसक कर चौथे नंबर पर पहुंच गई है। अब ऐसी विषम परिस्थिति में सूर्य प्रताप शाही किस हद तक और कैसे सफल हो पाते हैं, यह ज्वलंत प्रश्न है। प्रदेश भाजपा के नये सेनापति की अब तक की राजनैतिक क्षमता, योग्यता एवं उनके अतीत को जानना कम दिलचस्प नहीं होगा। प्रदेश भाजपा में ऊपर से लेकर नीचे तक व्याप्त तमाम तरह की विकृतियों को यदि एक तरफ कर दिया जाए और नवनियुक्त अध्यक्ष से चमत्कार की उम्मीद की जाए तो यह बेमानी होगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ग्राम पकहाँ, थाना पथरदेवाँ (वर्तमान थाना बघऊच घाट) के मूल निवासी सूर्य प्रताप शाही ने १९८० से २००७ नौ चुनावी महासमर में ताल ठोंकी है। जिसमें से मात्र तीन बार ही जीते, ६ बार उन्हें करारी शिकस्त का स्वाद चखना पड़ा। आर.एस.एस. से संबंध रखने वाले सूर्य प्रताप शाही अपने जीवन में पहली बार कसया विधानसभा से १९८० में जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े। तब इन्हें कुल २००० मत ही प्राप्त हो सके। १९८५ के चुनाव में इसी विधानसभा सीट पर उन्होंने अपने निकटतम निर्दल राजनैतिक प्रतिद्वंदी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को २५० मतों से पराजित किया था। जबकि १९८९ के आम चुनाव में इसी सीट पर जनता दल के प्रत्याशी ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग बारह हजार मतों से उन्हें हराया। दो वर्ष बाद हुए चुनाव में राम लहर के कारण शाही ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को पराजित करने में कामयाब हुए। जबकि १९९३ के चुनाव में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने लगभग पंद्रह हजार मतों से शाही को पराजित किया। आखिरी बार १९९६ में उन्हें मिली। २००२ एवं २००७ में ब्रह्माशंकर त्रिपाठी ने उन्हें हराया। १९९१ में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे भाजपा के इस महारथी को प्रदेश सरकार में पहली बार गृह राज्यमंत्री तथा स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। १९९६ में वे आबकारी मंत्री भी बने। शाही के मंत्री पद का दोनों कार्यकाल विवादों से घिरा रहा। बतौर गृह राज्यमंत्री उनका कार्यकाल इत्िाहास के काले पन्नों में दर्ज है। उनके इस कार्यकाल में ही बहुचर्चित पथरदेवाँ बलात्कार कांड की गूंज लोकसभा से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गूंजी। अब ऐसे में यह स्वतः विचारणीय हो जाता है कि सूर्य प्रताप शाही मृत पड़ी प्रदेश भाजपा में जान फूंकने का कार्य कैसे करेंगे। भाजपा की पूर्वांचल की राजनीति भी उनके लिए निष्कंटक नहीं है। यहां उन्हें गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्य नाथ से जूझना होगा। योगी शुरू से ही उन्हें प्रदेश भाजपा की कमान सौंपे जाने के खिलाफ थे। ऐसे में वह सूर्य प्रताप शाही का किस हद तक और कितना साथ देंगे यह देखना दिलचस्प रहेगा। योगी आदित्य नाथ के प्रकोप से पूर्वांचल में भाजपा के वरिष्ठ नेता शिव प्रताप शुक्ल आज तक नहीं उतर सके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वे घटक उनका कितना साथ देंगे जो इस बार अपना प्रतिनिधि बतौर प्रदेश अध्यक्ष चाहते थे। वैसे सूर्य प्रताप शाही ने एक काम अच्छा किया। वे सड़क मार्ग से लोगों से मिलते जुलते हुए लखनऊ पहुंचे। उनकी निगाह ट्विटर जैसे आधुनिक संचार माध्यमों पर भी हैं। वैसे यहां उनकी मौजूदगी पर पार्टी का एक वर्ग नाराज भी है।

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