Wednesday, January 6, 2010

विचारधारा से दूर होती राजनीति

नये साल में भारतीय जनता पार्टी ने संकल्प लिया है पहरेदारी का। संकल्प यह है कि वह केंद्र सरकार की कारगुजारियों पर वॉचडॉग की भूमिका निभाएगी। इतना ही नहीं नए साल में सरकार पर निगाह रखने को बीजेपी ने दस मुद्दे तय कर लिए हैं। तो दूसरी तरफ देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने स्थापना के सवा सौ साल पूरे किए हैं। भाजपा दावा करती है कि वह कांग्रेस का विकल्प है पर जब हम गैर कांग्रेसवाद की बात करते हैं तो उसका अर्थ होना चाहिए कांग्रेस का विकल्प। पर देश के दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल इस कसौटी पर खरा उतरता दिखाई नहीं देता। खुद भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने की बजाय कांग्रेस की हमशक्ल बनना चाहती है। अगर हम पहले भाजपा के संकल्पों के उन दस मुद्दों की बात करें तो पहला महंगाई, जो कांग्रेस राज में खूब तेजी से बढ़ी। पर सरकार रोकने में नाकाम रही और भाजपा कांग्रस को घेरने में पीछे रही। संसद में बहस हुई। तो गिनगिनाकर बहस के वक्त सदन में १७ सांसद दिखे। दूसरा आतंकवाद और नक्सलवाद। तीसरा पाकिस्तान से संबंध की नीति। चौथा रंगनाथ मिश्र रपट। जिस पर सरकार ढाई साल बाद भी एटीआर पेश करने की हिमाकत नहीं दिखा सकी। पर खुद एनडीए में रंगनाथ रपट पर एक राय नहीं। सो बीजेपी अपने एजंडे पर खेलेगी। यानी बीजेपी की दलील, अगर रपट पर अमल हुआ। तो एससी, एसटी, ओबीसी के आरक्षण अधिकार कम होंगे। पांचवां महिला आरक्षण बिल। जिस पर संसद का बहुमत तो साथ, पर आम सहमति नहीं। सो गेंद सरकार के पाले में। पर बीजेपी भला अकेली कांग्रेस को क्रेडिट क्यों लेने दे। सो गाहे बगाहे मुद्दा उठाएगी। छठा सिख विरोधी दंगों के आरोपियों पर कार्रवाई। बीते साल के आखिरी दिन सरकार ने सज्जन कुमार के खिलाफ केस चलाने की हरी झंडी दे दी। पर जगदीश टाइटलर की तकदीर का फैसला नहीं। वैसे भी टाइटलर अब बिहार कांग्रेस के प्रभारी हैं। इसी साल बिहार विधानसभा का चुनाव होगा। तो नीतिश की अग्रि परीक्षा होगी। सातवां कश्मीर की स्वायत्तता की फिर से उठ रही मांग। यों स्वायत्तता की मांग कोई नई बात नहीं। नेशनल कांफ्रेंस ने १९९६ के विधानसभा चुनाव में स्वायत्तता को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया। आठवां किसान समस्या। नौवां तेलंगाना। जिसकी आग नहीं बुझ रही। और आखिरी सरकार के कामकाज के तौर तरीकों पर निगरानी। ताकि कहीं चूक हो, तो सरकार को बेनकाब कर सकें। यों बीजेपी ने जिम्मेदार विपक्ष के नाते संसद में इन मुद्दों पर सरकार को सुझाव देने का भी एलान किया। अब आपने भाजपा के दस का दम देख लिया होगा। ऐसे में सवाल उठते हैं कि बीते सालों में इनमें से ऐसा कौन सा मुद्दा था जो बीजेपी ने नहीं उठाए और अब वह इन दस मुद्दों के सहारे नय साल में क्या कर लेगी?दूसरी तरफ अगर कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल पर एक नजर डालें तो अब तक के केंद्रीय राजनीतिक परिदृश्य से साफ नजर आता है कि आज भी कांग्रेस का विकल्प कोई अन्य दल पूरी तरह नहीं बन पाया। दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल इस कसौटी पर खरा उतरता दूर तक दिखाई नहीं देता। आज कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल बाद एक बार फिर यह अहम सवाल सामने है कि क्या देश में गैर कांग्रेसवाद है? कांग्रेस की आज जो राजनीति दिख रही है वह केन्द्र में अगली दो सरकारों तक डटे रहने की राजनीति है। कोई चमत्कार न हो तो फिलहाल अगले दो आमचुनाव में कांग्रेस को टक्कर देता कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है। विपक्ष के नाम पर जो भी राजनीतिक दल हैं वे सत्ता से ज्यादा कोई राजनीतिक सोच नहीं रखते हैं। वामपंथी दलों की अपनी कोई खास निष्ठा नहीं है। वे कांग्रेस के साथ यथास्थितिवाद में ज्यादा विश्वास करते हैं। और खुद भाजपा कांग्रेस का राजनीतिक िवकल्प बनने की बजाय कांग्रेस का राजनीतिक हमशक्ल बनने में ज्यादा दिलचस्पी रखती है। गौरतलब है कि १९१५ में कांग्रेस में गांधी युग शुरू होने से पहले बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस के कर्णधार बने रहे, लेकिन १९१५ में कांग्रेस में गांधी के पदार्पण के साथ ही कांग्रेस से ए ओ ह्यूम की आत्मा सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी। १९१५ से १९४७ तक कांग्रेस का इतिहास आजादी के आंदोलन के एकमात्र राजनीतिक दल का इतिहास है लेकिन १९४७ के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस का इतिहास मात्र एक राजनीतिक दल का इतिहास हो जानेवाला था। संभवत महात्मा गांधी ने इसीलिए कांग्रेस को विसर्जित करने का भी सुझाव दिया था। ऐसा नहीं है कि १९०७ से कांग्रेस में अलग-अलग विचारधाराओं का जो टकराव शुरू हुआ वह १९१५ के बाद बंद हो गया। फिर भी कांग्रेस बिना किसी संदेह के सबके लिए एक प्रतिनिधि दल था। जो आज भी बना हुआ है। ब्रिटिश साम्राज्य ने जिस राजनीतिक चेतना को डिफ्यूज करने के लिए कांग्रेस को औजार की तरह चलाया था वही अपनी पूरी मारक क्षमता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य पर ही प्रहार कर रहा था। १९४७ में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से छुटकारा मिलने के बाद कांग्रेस एक राजनीतिक दल के रूप में देश के सामने था। उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद भारत को विरासत में जो कांग्रेस मिली लंबे समय तक लोगों का उसके प्रति जुड़ाव पूरी तरह से भावनात्मक बना रहा। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक गांव घर के बड़े बुजुर्ग कांग्रेस को महात्मा गांधी की कांग्रेस ही समझते रहे और दुहाई देते रहे कि जिस पार्टी ने देश को आजाद करवाया आज उसे ही लोग सम्मान नहीं दे रहे हैं। लेकिन इक्कीसवी सदी में अब न वे लोग बचे हैं जो आजादी के आंदोलन से कांग्रेस को जोड़कर खुद भावनात्मक रूप से जुड़े रह सकें। उपनिवेशवाद के खात्मे के साथ ही देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति ने भी आकार लेना शुरू कर दिया था। देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति पर सोचेंगे तो दो नाम सबसे अहम दिखाई देंगे. एक, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दो, डॉ राममनोहर लोहिया. ये दो नाम ऐसे हैं जो कांग्रेस के धरातल से पूरी तरह दूर जाकर देश में विपक्ष की स्थापना करना चाहते थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धारा आगे चलकर लगातार मजबूत होती गयी और आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में उस धारा का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल देश में मौजूद है जबकि राममनोहर लोहिया की धारा लगातार बिखरती चली गयी। आज जो अपने आप को लोहिया के लोग कहने वाले भी कांग्रेस के अहाते में ही शरण पाना चाहते हैं। साठ सालों में राजनीति भी विचार और व्यवहार से हटकर सत्ता और सौदेबाजी का बिषय हो गया है इसलिए अब गैर कांग्रेसवाद जैसा शब्द उतना आकर्षित नहीं करता जैसा सत्तर और अस्सी के दशक में करता था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसा धैर्य भी किसी राजनीतिज्ञ में नहीं दिखता जो लंबे समय तक इस बात की प्रतीक्षा करता है कि उसे देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार देनी है। सच्चे अर्थों में अटल बिहारी वाजपेयी ने यह काम किया और देश को छह साल तक विशुद्ध गैर कांग्रेसी सरकार दिया। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के युग के अवसान के साथ ही एक बार फिर गैर कांग्रेसवाद किनारे कर दिया गया।

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