Wednesday, January 6, 2010

एकल चलो

क्या अजीब इत्तेफाक था। विगत ५ जनवरी को ७७ वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह अपने जन्मदिन के अवसर पर जब एक नई पार्टी के गठन की घोषणा कर रहे थे तो उसी वक्त रेडियो पर एक गीत बज रहा था 'छटे सब संगी साथी...'। ऐसा लगता था कि जैसे रेडियो ने सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री को ही यह गीत समर्पित किया हो।नई पार्टी के गठन के समय कल्याण सिंह के अन्य सहयोगियों में कोई भी नामवर व कद्दावर चेहरा उनके साथ मौजूद नहीं था।कल्याण सिंह के वर्षों पुराने साथी रहे रघुवर दयाल वर्मा, गंगाचरण राजपूत ने तो पहले ही बसपा का दामन थाम लिया। उनकी अनन्य सहयोगी रहीं कुसुम राय भी इस बार उनके साथ नहीं थीं। उन्होंने तो कल्याण सिंह के सपा में शामिल होने के समय से ही 'बाबूजी' से अपना दामन छुड़ा लिया। पूर्व मुख्यमंत्री के सहयोगी रहे भाजपा के कई दिग्गजों ने पहले ही उनसे किनारा कर लिया। सपा से अलग होने की घोषणा के बाद जिन भाजपा नेताओं ने कल्याण का स्वागत किया था वह भी मौजूद नहीं थे। मौजूद रहने की बात तो दूर इन नेताओं ने कल्याण को जन्म दिन की बधाई तक देना उचित नहीं समझा। निवर्तमान भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लखनऊ में मौजूद रहने के बावजूद श्री सिंह के जन्मदिन पर फोन भी करना मुनासिब नहीं समझा।कल्याण की संभवतः आखिरी राजनीतिक पारी की इतनी फीकी होगी इसका अंदाजा शायद ही किसी को रहा हो। ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी विध्वंस के बाद वे हिंदुत्व के एक मात्र नेता बनकर उभरे थे। उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में उन्हें हिंदुत्व का सबसे बड़ा नेता माना जाने लगा था। लेकिन शायद वे यह सफलता पचा नहीं पाए। उनका अहंकार व दंभ उनके सिर चढ़ कर बोलने लगा। उन्होंने अपने आलाकमान को ही चुनौती देना प्रारंभ कर दिया। यही चुनौती उनको महंगी साबित हुई और कुछ दिनों बाद ही उन्हें भाजपा से अलग होना पड़ा। भाजपा से अलग होने के बाद कल्याण सिंह अपनी राजनीतिक दिशा तय नहीं कर सके। कभी उन्होंने हिंदुत्व के बल पर राजनीतिक सफलता पाने का प्रयास किया तो कभी धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में सपा के साथ मिलकर अपने बेटे व सहयोगी कुसुम राय को सत्ता का अंग बनाया। धर्मनिरपेक्ष छवि ओढ़कर वे भले ही सत्ता सुख भोगने में सफल रहे हों लेकिन उनका यह रूप प्रदेश की जनता को पसंद नहीं आया। आम जनता के बीच उनकी छवि न तो हिंदुत्व के प्रखर नेता के रूप में बच सकी और न ही धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में नयी छवि उभर सकी। इसने उन्हें हिंदुत्व मतों से वंचित किया। दूसरी तरफ करके मुस्लिम मतदाताओं ने सपा का दामन छोड़ दिया। सपा नेताओं ने इसका दोषारोपण उन पर किया। परिणाम सामने था। सपा और कल्याण सिंह में दूरियां बढ़ती गयी और ऐसा भी समय आया जब एक दूसरे का आजीवन साथ देने की कसम खाने वाले कल्याण सिंह और मुलायम सिंह के रास्ते अलग-अलग हो गये। परिणामस्वरूप कल्याण सिंह को अपने जन्मदिन के अवसर पर जन कल्याण पार्टी बनाने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने इस पार्टी का अध्यक्ष अपने बेटे राजवीर सिंह को बनाया है।पार्टी की घोषणा और राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने के बाद पत्रकारों से बातचीत में राजवीर ने कहा कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाएगी। भाजपा के बाबत उन्होंने कहा कि वे उसके बारे ज्यादा कुछ नहीं कहेगे लेकिन इतना जरूर है कि वहां काम करने का मौंका नहीं है। उन्होंने कहा कि 'गांव-गरीब, किसान, झुग्गी झोपड़ी का जवान' इनकी लड़ाई के लिए पार्टी संघर्ष करेगी । उन्होंने कहा कि आगामी तीन महीनों में वे पार्टी का सांगठनिक ढांचा भी तैयार कर लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि टिकट वितरण में पचास फीसदी महिलाओं और तैंतीस फीसदी युवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जन क्रांति पार्टी के एजेंडे में रहेगे। इस प्रकार कल्याण सिंह ने दोबारा अपने पुराने रूप में लौटने का संकेत दिया है। मंदिर मुद्दे के बाबत उन्होंने कहा कि इसको लेकर अब राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जन क्रांति पार्टी का गठन कार्यकर्ताओं की मर्जी से किया गया है। इस बारे में लखनऊ और दिल्ली की बैठकों में समर्थको ने सहमति और सुझाव दिया था। उन्होंने कहा कि पार्टी की ओर से चुनाव आयोग से चुनाव चिन्ह के रूप में गिलास, चारपाई, टोकरी, मांगी गई है। इनमें से जो भी चुनाव चिन्ह आयोग द्वारा आवंटित किया जाएगा पार्टी उसी पर अगले चुनाव लड़ेगी।

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