Monday, January 25, 2010

चीनी की बेतहाशा बढ़ती कीमतें

बहुत दिनों बाद ऐसा मौका आया जब चीनी ने गुरु गुड़ को कीमतों के मामले में शिकस्त दे दी। इन दिनों खुदरा बाजार में गुड़ की कीमत ३५ रुपये है, जबकि चीनी ४६-४८ रुपये प्रति किलो बिक रही है। बहुत जल्द यह ५० रुपये प्रति किलो बिकने की तैयारी में है। चीनी के बाद दूध के मूल्य में भी उबाल आना तय है। खासतौर पर उत्तर भारत के राज्यों में। कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार ने दूध की उपलब्धता बढ़ाने के लिए खरीद मूल्य बढ़ाने पर विचार करने जरूरत बताई है। यह वही पवार हैं जिनके एक बयान से ही चीनी के मूल्य सातवें आसमान पर हैं। उनके ऐसे ही एक बयान से चावल के दामों में भी उछाल आया।उनके ताजा बयान से चाय की प्याली से दूध उड़न छू हो सकता है। दूध की जरूरतों को पूरा करने के मामले में अपना पल्ला झाड़ते हुए पवार ने साफ कहा, 'जब तक पशु पालकों से दूध की कीमत पर कोई फैसला नहीं हो जाता, मुझे नहीं मालूम कि विभिन्न राज्य मांग को पूरा करने के लिए दूध की खरीद कर पाएंगे या नहीं।' राज्यों के पशुपालन और डेयरी विकास मंत्रियों के सम्मेलन उन्होंने ऐलान किया कि देश को दूध की कमी का सामना करना पड़ रहा है। उत्तर भारत के राज्यों में इसकी किल्लत लगातार बनी हुई है। ऐसा तब है जब देश दूध उत्पादन में दुनिया में नंबर वन है। भारत में हरित क्रांति के बाद श्वेत क्रांति हो चुकी है। जनवरी माह में बाजार में चीनी की कीमत ४२५० रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गई। लोगों को अब किसी सूरत में ४६ से ४८ रुपए किलो से कम दर पर चीनी नहीं मिल सकेगी। आप अपने दफ्तर से निकल कर जिस किसी गुमटी वाले के पास चाय पीने जाएंगे, वह आप से चार से पांच रुपये प्रति कप की दर से वसूली करेगा। यह महंगाई सिर्फ गरीबों का ही नहीं बल्कि अधिकांश परिवारों का बजट गड़बड़ा रही है। उन्हें चीनी की खपत के बारे में नई रणनीति तैयार करने को विवश कर रही है। चाय कम पी जाए या फिर गुड़ की चाय पी जाए। मगर हमारे केंद्रीय कृषि, उपभोक्ता, खाद्य और जन वितरण मंत्री शरद पवार इससे परेशान नजर नहीं आ रहे। यूपीए की दुबारा बनी सरकार में वे अपने मंत्रालय पर पिछले टर्म के मुकाबले अधिक ध्यान दे रहे हैं और तब यह हाल है। पिछले टर्म में उनका अधिकांश समय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की समस्याओं को निबटाने में बीतता था। शरद पवार का गृह राज्य महाराष्ट्र देश में चीनी के उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे पायदान पर माना जाता है। वहां की शुगर लाबी से उनकी नजदीकियों के चर्चे अक्सर होते रहे हैं। पिछले दशक तक इस राज्य में कोआपरेटिव शुगर मिलों का एकाधिपत्य था। मौजूदा दशक में राज्य में कई प्राइवेट शुगर मिलें अस्तित्व में आईं और चीनी के उत्पादन में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी निभाने लगीं। इसे संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि अधिकांश बड़ी प्राइवेट शुगर मिलें कांग्रेस और राकांपा के शीर्ष नेताओं के संबंधियों के स्वामित्व वाली हैं। उदाहरण के तौर पर लातूर की मांजरा चीनी मिल पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव के स्वामित्व में चीनी उत्पादित करती है। श्रीगोंडा स्थित साईंकृपा शक्कर कारखाना राज्य के आदिवासी कल्याण मंत्री बावनराव पचपुते के स्वामित्व वाला है। प्रतिदिन ४५०० टन गन्ने की चीनी बनाने की क्षमता वाले बारामती एग्रो और ३५०० टन गन्ने की खपत वाली दौंड शुगर लिमिटेड राजेंद्र पवार और अजीत पवार की है। दोनों शरद पवार के भतीजे हैं। ऐसे में पहले गन्ना किसानों के खिलाफ नीति तैयार करना और फिर एकाएक चीनी की कीमतों में भारी उछाल के लिए न सिर्फ शरद पवार बल्कि कांग्रेस नेतृत्व को भी जवाबदेह होना पड़ेगा। कहीं यह शुगर मिल को फायदा पहुंचाने के लिए तो नहीं हो रहा। बहरहाल पहले राज्य सरकारों और अब चीनी मिलों की उत्पादन क्षमता में कमी को मूल्य वृद्धि के लिए जवाबदेह ठहराने वाले शरद पवार ने चीनी के आयात का फैसला कर लिया है। इससे कितना डैमेज कंट्रोल होगा यह आने वाले समय में देखा जाएगा। बहुत पहले जब देश में चीनी मिलें कम थीं और गुड़ उत्पादित करने वाली भट्ठियां अधिक तब चीनी की कीमत अधिक हुआ करती थीं। तब सस्ता गुड़ गरीबों का आहार माना जाता था। हाल के पंद्रह-बीस वर्षों में गुड़ की भट्ठियां कम होती गईं और चीनी मिलें छा गईं, लिहाजा चीनी सस्ती और गुड़ महंगा हो गया। मगर पिछले साल आखिरी महीनों में चीनी ने ऐसी छलांग लगाई कि वह गुड़ से आगे निकल गया। शरद पवार की महिमा से चीनी ने अपनी हैसियत बढ़ा ली। चीनी की कीमतों में हुई इस अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी के पीछे शीतल पेय, बिस्कुट, चाकलेट जैसे उत्पादों के निर्माताओं द्वारा आनन फानन में की जा रही खरीद भी प्रमुख वजह है। ये कंपनियां इस खबर के कारण पैनिक में थीं कि चीनी की कीमतें ५० रुपये के पार जा सकती है। सरकार ने इस पैनिक पर रोक लगाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। अगर सरकार इस मसले पर गंभीर होती तो सबसे पहले मिलों में उत्पादित चीनी के मूल्य और उसके वितरण पर लगाम लगाती। वह वेवरेज कंपनियों की खरीद का कोटा तय करती और चीनी के राशनिंग की व्यवस्था कराती लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया।

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