Wednesday, January 6, 2010

महंगाई और गरीबी

मक्खन मलाई नहीं तो कम से कम दालरोटी तो मिल ही जाएगी। जिंदगी इसी से काट लेंगे। गरीब और आम लोगों से ऐसा सुनने को अक्सर मिल जाया करता है। अब शायद सुनना आसान नहीं रहा। क्योंकि महंगाई अपनी पराकाष्ठा पर है। मलाई और मक्खन तो दूर, दो जून की रोटी जुटाने में आम आदमी आज पस्त है। देश के अनगिनत परिवारों की थालियों से ये सब चीजें आज गायब हैं आैर अब यह सुनना आसान हो चला है कि भूखे भजन न होहीं गोपाला। वर्ष २००९ आम आदमी की थाली से दाल रोटी गायब ही रही वर्ष २०१० में महंगाई के आलम देख कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है। तो दूसरी ओर देश का एक तबका है जो इस महंगाई में भी अपनी सुविधाओं से कोई समझौता नहीं करना चाहता। यह तबका है हमारे जनप्रतिनिधियों का। हाल ही में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बड़ी चतुराई से मौका हाथ लगते ही महंगाई का दोष राज्यों के सिर मढ़ दिया। इतना ही नहीं भविष्य में स्थिति गंभीर होने के संकेत यह कहते हुए दे दिए कि राज्य सरकारें इस मामले में सहयोग नहीं करती हैं तो मौजूदा हालात का सामना करना और भी कठिन हो सकता है। हाल ही में हुए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्होंने ये बातें कहीं। जहां तक महंगाई का सवाल है, इसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेने से सभी बच रहे हैं फिर चाहे केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकारें। बीते वर्ष संसद सत्र में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी विपक्ष द्वारा सवाल उठाने पर बुरी तरह झल्ला उठे थे, विपक्ष ने भी हंगामा करने का कोई मौका नहीं छोड़ा था। वस्तुओं के दाम लगातार बढ़ ही रहे हैं और अनाज जैसी आवश्यक वस्तु को वायदा कारोबार से मुक्त रखने सरकार कुछ नहीं कर पा रही। आवश्यक वस्तुओं पर तरह-तरह के कर लगाने और पूरे देश की मंडियों में खरीदार, परिवहन और भंडारण की व्यवस्था अलग-अलग होने से भी कीमतों में फर्क पड़ रहा है। राज्य सरकारें अपनी सुविधा और सत्तारूढ़ पार्टी की नीतियों के मुताबिक कार्य करती हैं और केंद्र सरकार अपने हिसाब से। इनमें सामंजस्य न होने का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। शरद पवार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते कि राज्य सरकारें सहयोग नहीं कर रही हैं। उन्हें जवाब देना ही होगा कि पिछले वर्षों में अनाज के दाम लगातार क्यों बढ़े हैं? कीमतों पर तत्काल काबू पाने के लिए लालफीताशाही से मुक्त व्यावहारिक कदम क्यों नहीं उठाए गए? कालाबाजारी पर पूरी तरह अंकुश क्यों नहीं लगाया जा सका? शायद कृषि मंत्री के लिए इन सवालों के जवाब ढूंढना असुविधाजनक होगा, इसलिए वे महंगाई पर बात करने के आसान रास्ते तलाश रहे हैं पर जनता की कठिनाई इससे दूर नहीं होगी। वर्ष २००९ के नवंबर अंत में जारी थोक सूचकांक के मुताबिक पिछले १० सालों में महंगाई अपने सर्वोच्च स्तर पर है। दालों की कीमत में ४२ प्रतिशत और सब्जियों की कीमत में ३१ प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। ऐसा नहीं है कि अनाज का उत्पादन एकदम ही घट गया है। सरकारी गोदामों में अनाज का पर्याप्त भंडारण है। अगर सही योजना बनाकर इस अनाज को बाजार में लाया जो तो कीमतों में एकदम से रोक लगायी जा सकती है। जनता को इससे तत्काल राहत मिलेगी। अनाज के बड़े व्यापारियों को जरूर इससे तकलीफ होगी, शायद इसलिए सरकार ऐसे विकल्पों पर विचार नहीं कर रही है। वह खुद सस्ता अनाज बेचने को सामने आ रही है, चाहे वह दो तीन रुपए किलो गेहूं चावल बेचने के रूप में हो या मदर डेयरी के बूथों पर सस्ता आटा, दाल और सब्जी बेचने जैसे कार्य हों। इनसे कुछ देर की राहत मिलती है, दीर्घकालिक हल नहीं मिलता। सरकार भी यह अच्छे से समझती है। लेकिन महंगाई का स्थायी हल ढूंढने से अनाज, सब्जी बेचने उतरे बड़े उद्योगपतियों का मुनाफा मारा जाएगा और यदि उन्हें घाटा हुआ तो राजनीतिक दलों का चंदा घट जाएगा। खेतों से सीधे खुदरा बाजार में अनाज सब्जी बेचने का यह व्यापार चंद लोगों के लिए लाटरी खोलता है, लेकिन देश के लिए यह हानिकारक है। कीमतों में अवास्तविक वृध्दि व्यापार में ऐसी चतुराइयों से ही हुई है। महंगाई के इस विस्फोट में भी यदि सरकारें निजी लाभहानि का गणित लगाती रहें तो यह आने वाले समय में भयंकर संकट को न्यौता देने जैसा होगा। मजे की बात यह है कि जब देश के जनप्रतिनिधियों के हित की कोइर् बात उठे तब इनका आपसी लाड प्यार देखिए। संसद के शीतकालीन सत्र को उदाहरणस्वरूप लीजिए। इस सत्र में संसद भले ही कई मुद्दों पर बंटी हुई दिखाई दी हो, लेकिन मंत्रियों के वेतनभत्तों से संबंधित संशोधन विधेयक २००९ संसद में बिना चर्चा के पारित हो गया। इतना ही नहीं इससे एक कदम आगे बढाते हुए दिल्ली सरकार की व्यय वित्त समिति ने नए बंगले के निर्माण की परियोजना को मंजूरी भी दे दी है। इस बात से आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यही दिल्ली सरकार झुग्गियों को बांस के टाट से बाड़बध्द करना चाहती है ताकि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान यहां आने वाले मेहमानों को झूठी चकाचौंध की सच्चाई न दिखे। बिजली इस कदर महंगी हो गई कि लोगों को आज अंधेरे से समझौता करने का शौक हो चला है। परिवहन व्यवस्था सुधार नहीं सके तो इसका सबसे सरल उपाय ढूंढ़ा कि बस किराया को दोगुना कर दो। टिकट महंगाई से लोग खुद साइकिल पर आ जाएंगे या फिर नौकरीपेशा छोड़ अपने-अपने प्रदेश को लौट जाएंगे। दूसरी ओर अगर महंगाई के साथ आज अहम सवाल सामने यह है कि देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की वास्तविक संख्या कितनी है? मौजूदा समय में सरकार के पास चार आंकड़े हैं और चारों भिन्न-भिन्न। इसमें देश की कुल आबादी में गरीबों की तादाद २८.५ प्रतिशत से लेकर ६० प्रतिशत तक बताई गई है। इन दोनों में से कौन सा आंकडा सही है यह सरकार को ही तय करना है। तीन दशक पहले के आर्थिक मापदंड के अनुसार देश में गरीबी रेखा से नीचे आने वाली आबादी कुल जनसंख्या की २८.५ प्रतशित है। अभी तक यही आंकडा सरकार दिखाती आई थी, जिसमें गरीबी पिछली गणना से कम दिखती है। आर्थिक पंडितों का मानना है कि राष्ट्रीय आय में वृध्दि जिस दर से होती है कोई जरूरी नहीं कि उसी दर से देश की गरीबी घटे। गरीबी की समस्या भारत के सामने ही नहीं बल्कि उन सारे देशों के सामने है जो आज विकास की दौड में हैं। भारत के सामने यह समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल भले ही हो। गरीबी पर सुरेश तेंदुलकर की आई रिपोर्ट कुछ ऐसी ही कहती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत का प्रत्येक तीसरा व्यक्ति गरीब है। आर्थिक क्षेत्र में छलांग लगाते भारत के लिए यह रिपोर्ट किसी शर्म से कम नहीं। योजना आयोग द्वारा गठित एसडी तेंदुलकर की रिपोर्ट ने बताया कि वर्ष २००४-०५ में गरीबी ४१.८ प्रतिशत थी। जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित एनसी सक्सेना समिति के अनुसार देश में ५० प्रतिशत यानी आधी आबादी निर्धन है। समस्या सिर्फ इन आंकड़ों के साथ ही नहीं है। गरीबी की प्रतिशत और गरीबी रेखा का निर्धारण इतना पेंचीदा काम है कि सरकार की विभिन्न समितियां भी इसे साफ नहीं कर पातीं। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो सरकार इसे जानबूझ कर पेंचीदा बनाए रखना चाहती है जिसका सरल उदाहरण विभिन्न समितियों का विभिन्न आंकडे पेश करना है। तेन्दुलकर की रिपोर्ट भले ही इसे गरीबी रेखा कहे लेकिन असल में यह दरिद्र रेखा है। गरीबी से भी एक कदम नीचे। सुरेश तेन्दुलकर ने अपनी रिपोर्ट में काम भी यही किया है। उन्होंने जम्मू कश्मीर, दिल्ली और उत्तर पूर्व के राज्यों को गरीब तो माना है लेकिन बिहार तथा उड़ीसा को उनसे अधिक दयनीय माना है। आश्चर्यजनक रूप से तेन्दुलकर की यह रिपोर्ट सेनगुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट को भी झूठा साबित कर रही है जिसमें उन्होंने देश की अस्सी फीसदी आबादी को २० रुपये प्रतिदिन पर गुजारा करने की बात कही थी। यानी महीने में ६०० रुपये पर। तेन्दुलकर रिपोर्ट का कहना है कि असल में भारत में ४१ प्रतिशत से अधिक आबादी ४४७ रुपये मासिक पर गुजारा कर रही है जो कि सेनगुप्ता के बीस रुपये प्रतिदिन से काफी कम है। इनसे यही बात साफ होती है कि गरीबी रेखा को लेकर ही जब इतनी दुविधा है तो फिर उसके उन्मूलन पर कार्यान्वयन की स्थिति कैसी होगी। सरकार गरीबों के लिए अनेक राहत योजनाएं बन्ााती है। इसके लिए उसे गरीबों की पहचान करनी होती है। देश का ग्रामीण विकास मंत्रालय यह काम प्रत्येक पांच वर्ष पर करता है। देश में गरीबी निर्धारण का पहला प्रयास १९९२ में किया गया। इसमें उन परिवारों को गरीब माना गया जिनकी सालाना आय ११,००० रु थी। लेकिन समस्या तब खडी हो गई जब ऐसे परिवारों की संख्या योजना आयोग की अनुमानित संख्या से ज्यादा हो गई। इसमें गरीबी के पहचान का आधार प्रति परिवार आमदनी था जबकि इसे प्रति व्यक्ति आमदनी या उपभोग होना चाहिए था। इसलिए १९९७ के दूसरे गरीबी पहचान की प्रक्रिया में योजना आयोग द्वारा तय उपभोग को आधार बनाया गया। और उन परिवारों को गरीबी से बाहर माना गया जिनके पास २ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन या पक्का मकान या घर में महंगे उपकरण हों या उस परिवार का कोई सदस्य प्रति वर्ष २०,००० रुपए से ज्यादा कमाई करता हो। इस पहचान में समस्या यह आ गई कि गरीब परिवारों की संख्या योजना आयोग के अनुमान से नीचे चली गई। यह संख्या मंत्रालय के हिसाब से काफी कम थी। इसलिए २००२ में गरीबी पहचाने के लिए परिवार से संबंधित ११ मापदंड तय किए गए। इसमें जमीन, घर का प्रकार, प्रति परिवार कपडे, प्रतिदिन लिए जाने वाले भोजन, शौचालय आदि को आधार बनाया गया। इस आधार पर प्रति परिवार को एक निश्चित स्कोर देने की प्रक्रिया अपनाई गई। इसमें परेशानी यह आई कि कई प्रदेशों में गरीब परिवारों की संख्या अनुमानित संख्या से पार हो गई। इसे देख २००७ में गरीबी का मापदंड तय करने के लिए एनसी सक्सेना समिति का गठन हुआ। इसके मापदंड कुछ इस प्रकार रहे कि देश की आधी आबादी निर्धनता की सूची में आ गई। सब्सिडी के आधार पर गरीबी उन्मूलन का ख्वाब महज ख्वाब बन कर ही रह गया क्योंकि उत्तरदान से समृध्दि कभी नहीं आ सकती। कोई आर्थिक नीति इसे सही नहीं ठहरा सकती। सब्सिडी गरीबी उन्मूलन तो नहीं कर सकती लेकिन भ्रष्टाचार अवश्य बढा सकती है। नरेगा इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है। वैसे विश्व बैंक भी हाल में ही जारी अपने एक अध्ययन में कह चुका है कि २०१५ तक भारत में गरीबी घटने की बजाए और बढ़ेगी। जो गरीब हैं वे और गरीब होंगे। विश्व बैंक का आंकलन है कि २०१५ तक भारत की एक चौथाई आबादी भीषण गरीबी में चली जाएगी। बाक्सभारत में गरीबों की वास्तविक संख्या क्या है? योजना आयोग द्वारा गठित तेन्दुलकर कमेटी कहती है कि कुल आबादी के ३७ फीसदी. अब जिस सरकार के लिए योजना आयोग योजनाएं बनाती है उसी सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि देश में गरीबी के ताजे आंकड़े जारी होंगे। योजना आयोग ने गरीबों के हिस्से का नया अनुमान पेश करने के लिए तेंडुलकर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी थी। कमेटी की सिफारिश के हिसाब से गरीबी का सही अनुमान ३७ फीसद बैठता है। यह अब तक चले आ रहे २७.५ फीसद जनता के गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे होने के अनुमान से करीब १० फीसद ज्यादा है। यानी २००९ तक सरकार देश में जितनी आबादी को गरीब मानने के लिए तैयार थी, २०१० में उससे करीब डेढ़ गुने लोगों को गरीब मानने के लिए तैयार होगी। बेशक, तेंडुलकर कमेटी की सिफारिशों पर अभी सरकारी अनुमोदन की मोहर लगनी बाकी है। लेकिन, यह सिर्फ एक औपचारिकता का मामला है, जिसे जल्द ही और हर सूरत में अगले बजट से पहले ही पूरा कर लिया जाएगा।

5 comments:

  1. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें

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  2. नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ द्वीपांतर परिवार आपका ब्लाग जगत में स्वागत करता है।
    pls visit...
    www.dweepanter.blogspot.com

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  3. Eeshwar kare,is saal aam aadmee ke naseeb khul jayen..aur kya kah sakti hun?

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  4. Naye saal me kaash ham bhi un karodon logon ke liye kuchh kar payen!

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