Tuesday, April 13, 2010
नई सुबह का सपना
देश के छः से चौदह साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिये जाने को मौलिक अधिकार बनाया जाना सचमुच नई सुबह का सपना है। यह फैसला तो देश की आजादी के साथ ही ले लिये जाने की जरूरत थी लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने में तकरीबन छः दशक का वक्त लग गया। मनमोहन सिंह सरकार और संप्रग अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने यह महत्वपूर्ण पहल की। इस अभियान की महत्ता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इसकी शुरुआत करते हुए राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों से इस दिशा में समुचित योगदान देने का आह्वन किया। मनमोहन सिंह ने संबोधन के दौरान उन कठिनाइयों का जिक्र किया जो उन्होंने अपने बचपन में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान उठाई थीं। वे यह बात बताना भी नहीं भूले कि आज वे जो भी हैं शिक्षा की बदौलत हैं। शिक्षा के महत्व को भारतीय समाज ने शुरू से ही स्वीकार किया है। एक मोटे आंकलन के अनुसार देश में छः से चौदह वर्ष की आयु वर्ग के एक करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं। यह एक बड़ी संख्या है और महत्वपूर्ण चुनौती भी। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि स्कूल न जाने वालों अथवा बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की भारी तादाद है। इतनी बड़ी तादाद में बच्चों को शिक्षित करने के लिए तकरीबन १.७१ लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। इसमें ५५ प्रतिशत धनराशि केंद्र सरकार और ४५ प्रतिशत धनराशि राज्य सरकारों को खर्च करनी होगी। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय का दावा है कि देश में छः से चौदह साल की आयु के बच्चों की तादाद २२ करोड़ के आस-पास है, जिनमें करीब एक करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अपनी सामाजिक आर्थिक स्थितियों के चलते स्कूल नहीं जा पाते। बहरहाल प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के इस आश्र्वासन पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं है कि सभी बच्चों को शिक्षित करने में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जायेगी, इसमें पर्याप्त संदेह है कि राज्य सरकारें अपने हिस्से के धन का प्रबंधन कर पायेंगी। यदि किसी तरह धन का प्रबंध हो भी जाए तो भी यह आवश्यक नहीं कि राज्य सरकारें स्कूलों,शिक्षकों और अन्य संसाधनों की कमी दूर करने में भी तत्परता दिखायेंगी। वैसे भी धन की कमी अथवा उपलब्धता किसी कार्य के संपन्न होने की गारंटी नहीं है। इसका एक बड़ा प्रमाण सर्व शिक्षा अभियान है, जो दस्तावेजों में जितना सफल है यथार्थ के धरातल पर उतना ही असफल। सर्व शिक्षा अभियान और इससे पूर्व माध्याहृ भोजन योजना (मिड डे मील), आपेरशन ब्लैक बोर्ड व नयी शिक्षा नीति (१९८५) समय से व प्रभावी ढंग से लागू हो गयी होती तो आज शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ को लागू करने के लिए इतनी अधिक चिंता करने की जरूरत न पड़ती। शिक्षा पर आज भी न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें दस प्रतिशत बजट राशि का व्यय नहीं करती हैं। प्राथमिक शिक्षा हो, माध्यमिक शिक्षा अथवा उच्च शिक्षा सबका बुरा हाल है। एक ओर सुविधाओं से वंचित हजारों प्राथमिक विद्यालय हैं जिनमें न तो अध्यापक आते हैं और न ही मिड डे मिल दिये जाने के बावजूद छात्र पढ़ाई के लिए टिकते हैं तो दूसरी ओर पंच सितारा होटलों की शानो शौकत और भव्यता को मात देते इंटरनेशनल स्कूल व पब्लिक स्कूल हैं, जिनमें दाखले के लिए अभिभावक कुछ भी करने को तैयार हैं। इतनी विसंगतियों, अलग-अलग पाठ्यक्रमों, नित नये बदलावों के बीच सबको शिक्षा जहां समाज का आदर्श सपना है, वहीं राज्य सरकारों के लिए बोझ भी। देश के सभी राज्यों में स्वास्थ्य की तरह शिक्ष्ाा का भी भरपूर निजीकरण हो चुका है और जो जितना निवेश कर सकने की स्थिति में है उसे उतनी ही बेहतर शिक्षा मिल पा रही है। ऐसे में यदि मनमोहन सरकार ने जरूरतमंद वंचित तबकों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा को संवैधानिक दायरे में बांधते हुए इसे मौलिक अधिकार का दर्जा दिये जाने की पहल की है तो यह स्वागतयोग्य कदम है।यह सही है कि केंद्र सरकार को शिक्षा का अधिकार कानून २००९ के अमल में बाधा बनने वाली चुनौतियों का आभास है लेकिन राज्य सरकारों का रवैय्या निराश करने वाला है। पश्चिम बंगाल सरकार इसका विरोध कर रही है। उत्तर प्रदेश में यह कानून बीते एक अप्रैल से राज्य भर में लागू तो हो गया लेकिन अभी तक राज्य सरकार ने इस संबंध में कोई महत्वपूर्ण घोषणा नहीं की है। एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश में इस कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए पांच लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की जरूरत होगी, जबकि प्रदेश भर में कुल दो लाख शिक्षक ही हैं। केंद्र सरकार ने इस मद में अपने अंश की घोषणा नहीं की है, न ही राज्य सरकार ने कोई धनराशि मुहैया करायी है। बगैर आर्थिक संसाधनों के यह योजना कैसे प्रदेश भर में लागू की जायेगी यह बात अभी भी समझ से परे है। बहरहाल केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का दावा है कि छः से चौदह वर्ष के बीच की उम्र के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाने से इस वर्ग को शिक्षा हासिल करके अपनी और अपने परिवार की गरीबी दूर करने तथा विकास की मुख्य धारा में शामिल हो पाने का नया अवसर मिलेगा। सिब्बल के इस दावे को सच करके दिखाने की दिशा में उनका विभाग और विभिन्न राज्य सरकारें किस प्रकार रणनीति तय करेंगी और उसे अमल में लायेंगी यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। इस बीच उन तल्ख सच्चाइयों पर भी ध्यान देना जरूरी है जिनका जिक्र स्वाद कसैला कर सकता है। बच्चों को गांव की दहलीज पर और कस्बों-शहरों व महानगरों में अपनी पहुंच के भीतर गुणवत्तायुक्त व बेहतर शिक्षा मिल जाये इससे बेहतर और क्या हो सकता है। यह काम तभी संभव है जब केंद्र व राज्य सरकारों के साथ-साथ त्रिस्तरीय पंचायतें, स्वयंसेवी संगठन तथा अन्य सभी वर्ग भी अपनी भूमिका जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ निभायें। सच तो यह है कि उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों के दूर दराज और दुर्गम इलाकों में जहां पीने के पानी का इंतजाम नहीं हो सका है और लोग दो जून की रोटी के लिए बच्चों से भी मजदूरी कराने को विवश हैं वहां हर बच्चा शिक्षा के अधिकार को हासिल कर लेने के बावजूद कैसे साक्षर हो सकेगा। भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी व अज्ञानता का अभिशाप तो बना ही रहेगा न। यह दशा तो तभी बदलेगी जब समाज का प्रत्येक वर्ग इसे पूरा करने के लिए ललक के साथ आगे बढ़े। यह एक रुमानी और आदर्श अपना नहीं है बल्कि इक्कीसवीं शताब्दी में देश की सबसे बड़ी जरूरत भी है। बीते साल मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को जब संसद के पटल पर रखा था तो उसकी कुछ खासियतों का खूब जोर शोर से प्रचार प्रसार किया था। अब जबकि संसद की हरी झंडी मिलने के बाद एक अप्रैल से आम जनता के हाथों में यह कानून आ गया तो सवाल यह है कि आम जनता द्वारा इस कानून का फायदा उठाया भी जा सकेगा या नहीं। जो परिवार गरीबी रेखा के नीचे बैठे हैं, उनके भविष्य की उम्मीद शिक्षा पर टिकी है। यह उन्हें स्थायी तौर पर सशक्त भी बना सकती है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में २७.५ प्रतिशत लोग्ा गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसी तबके के तकरीबन २० करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। इसलिए भारत में गरीबी और शिक्षा की बिगड़ती स्थितियों को देखते हुए, २००१ में एक संविधान संशोधन हुआ। इसमें यह भी स्पष्ट हुआ कि सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए राज्य सरकारें और अधिक पैसा खर्च करेगी। मगर हुआ इसके ठीक उल्टा, राज्य सरकारों ने गरीब बच्चों की जवाबदेही से बचने का रास्ता ढ़ूढ़ निकाला और सरकारी स्कूलों को सुधारने की बजाय गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में २५ आरक्षण देकर नया रास्ता दिखाया। फिलहाल, राज्य सरकारें एक बच्चे पर साल भर में करीब २,५०० रुपए खर्च करती हैं। अब खर्च की यह रकम राज्य सरकार प्राइवेट स्कूलों को देंगी। प्राइवेट स्कूलों की फीस तो साल भर में २,५०० रूपए से बहुत ज्यादा होती है। ऐसे में यह आशंका पनपती है कि प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए अलग से नियम कानून बनाए जा सकते हैं और उनके लिए सस्ते पैकेज वाली व्यवस्थाएं लागू हो सकती हैं। शिक्षा का यह अधिकार केवल छः से चौदह साल तक के बच्चों के लिए है। जबकि हमारा संविधान ६ साल के नीचे के १७ करोड़ बच्चों को भी प्राथमिक शिक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य और पोषित भोजन का अधिकार देता चला आ रहा है। ऐसे में कह सकते हैं कि यह कानून शिक्षा के अधिकार के नाम पर संविधान में पहले से दर्ज अधिकारों को काट रहा है। दूसरी तरफ, १५ से १८ साल तक के बच्चों को भी यह कानून जगह नहीं दे रहा है। वैश्विक स्तर पर बचपन की सीमा १८ साल तक रखी गई है, जबकि केंद्र सरकार बचपन को लेकर अलग-अलग परिभाषाओं और आयु वर्गों में विभाजित है। इन सबके बावजूद वह १८ साल तक के बच्चों से काम नहीं करवाने के सिद्धांत पर चलने का दावा करती है मगर जब उस सिद्धांत को कानून या नीति में शामिल करने की बारी आती है तो वह पीछे हट जाती है। अगर कक्षाओं के हिसाब से देखें तो यह अधिकार कम से कम पहली और ज्यादा से ज्यादा आठवीं तक के बच्चों के लिए है। अर्थात जहां यह आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों को छोड़ रहा है, वहीं तमाम बच्चों को तकनीकी और उच्च शिक्षा का मौका भी नहीं दे रहा है। आमतौर से तकनीकी पाठयक्रम बारहवीं के बाद ही शुरू होते हैं मगर यह कानून तो उन्हें केवल साक्षर बनाकर छोड़ देने भर के लिए है। कुल मिला कर शिक्षा के अधिकार का यह कानून न तो सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देता है, न ही। पूर्ण शिक्षा की गांरटी ही दुनिया का कोई भी देश सरकारी स्कूलों को सहायता दिए बगैर सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य नहीं पा सकता है। विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस अपने राष्ट्रीय बजट का ६७ प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं। अपने देश में ४० करोड़ बच्चों की शिक्षा पर राष्ट्रीय बजट का केवल ३ प्रतिशत ही खर्च किया जाता है। देश की करीब ४० लाख बस्तियों में प्राथमिक स्कूल नहीं हैं। देश के आधे बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं। देश भर में १.७ करोड़ बाल मजदूर हैं। हम २०१५ तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने की हालत में नहीं हैं। ऐसे में तो हमारी सरकार को बच्चों की शिक्षा पर और ज्यादा खर्च करना चाहिए मगर वह तो केंद्रीय बजट (२००९-१०) से सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील जैसी योजनाओं को दरकिनार करने पर तुली है।जब भारत में शिक्षा का आधारभूत ढांचा कमजोर था तब उसने कहीं ज्यादा बड़े वैज्ञानिक पैदा किए। वैसे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उनकी सक्रियता ने बुरी तरह से उपेक्षित शिक्षा के एजेंडे को राष्ट्रव्यापी बहस के केंद्र में ला दिया है। उनके कई ताजा प्रस्तावों में शिक्षा को लेकर आधुनिक दृष्टि और समझ भी दिखती है। स्कूली बच्चों की पढ़ाई को अंकों के दबाव से मुक्त रखने की बात हो या नर्सरी में दाखले की न्यूनतम उम्र तीन वर्ष से बढ़ाकर चार वर्ष करने का सुझाव, या फिर दसवीं और बारहवीं में गणित और विज्ञान की पढ़ाई एक करने का इरादा इन सबमें वह जरूरी संवेदनशीलता है जिसकी कमी अरसे से महसूस की जा रही थी। यद्यपि चुनौतियां कहीं ज्यादा गहरी हैं। उसके सवाल कहीं ज्यादा नुकीले हैं। चाहे प्राथमिक स्तर की शिक्षा हो या उच्च शिक्षा एक बहु परतीय गैर बराबरी के अलावा डरावनी अराजकता से लेकर भ्रष्टाचार तक हमारी शिक्षा व्यवस्था के लगभग स्वीकार्य अंग बन चुके हैं। आलम यह है कि बच्चे का स्कूल तय होते ही तय हो जाता है कि वह भविष्य में क्या बनेगा। अगर वह ठेठ सरकारी स्कूलों में जा रहा है तो उसकी पढ़ाई बीच में छूट जाएगी या किसी तरह दसवीं बारहवीं पास करके वह चपरासी या इसके आसपास के कुछ पदों की शोभा बढ़ाएगा। अगर वह साधारण स्कूलों में पढ़ता है तो क्लर्क से लेकर अफसर तक की नौकरी में कहीं खप जाएगा। अगर वह महंगे पब्लिक स्कूलों का छात्र है तो अभिजात्य संस्थानों का महत्वाकांक्षी छात्र और भविष्य का आला अफसर या मैनेजर होगा। अगर वह सबसे ऊंचे स्कूलों में पढ़ता है या विदेश में पढ़ाई करके लौटता है तो इस देश पर राज करेगा। वैसे इस नियम के अपवाद भी हैं। कहा जाता है कि इस देश ने असंख्या गुदड़ी के लाल भी पैदा किये हैं जिन्होंने अभावों से लड़ कर बेशुमार उपलब्धि हासिल की है। जब कपिल सिब्बल दसवीं और बारहवीं के पाठ्यक्रम को एक करके सबको बराबरी के मौके देने की बात करते हैं तो लगता है कि यह चांद पर जाने के लिए सीढ़ी बनाने का काम है। शिक्षा की असमानताएं पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं हैं बल्कि पाठ्यक्रम में वे सबसे कम और सबसे देर से दिखती हैं। सबसे ज्यादा वे उस बुनियादी ढांचे में हैं, जो इस देश में शिक्षा के तंत्र को नियंत्रित करता है। कहा जा सकता है कि जो सामाजिक गैर बराबरी है, वही स्कूली गैर बराबरी में भी झांकती है। शिक्षा को लेकर बढ़ते उपयोगितावादी नजरिये ने अनजाने में इसे उसी जड़ता के कुएं में धकेल दिया है जिससे बाहर आने की कोशिश में न जाने कितने वर्ष खर्च किये गये। हालत यह है कि जो सबसे अच्छे छात्र हैं, जिन्हें सबसे अच्छी पढ़ाई हासिल हुई है, वे अपने अध्ययन का सबसे कम इस्तेमाल कर पाते हैं। अकसर हम पाते हैं कि किसी खास अनुशासन में आईआईटी करने के बाद लड़के आईआईएम कर लेते हैं और वहां से टाप करके सबसे ऊंची सैलरी देने वाली किसी फर्म में साबुन से लेकर शीतल पेय तक बेचने के काम में जुट जाते हैं। हाल के दिनों में सूचना प्रौद्योगिकी का जो हल्ला मचा, उसमें कई भारतीय युवकों ने अमेरिका जाकर अच्छा काम किया लेकिन वह काम भी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ उपयोगी सॉफ्टवेयर बनाने से आगे जाता नजर नहीं आ रहा। जैसे-जैसे शिक्षा का ढांचा मजबूत और बड़ा होता गया, कुछ कुशल पेशेवर इंजीनियर और रट्टामार अफसर निकालने तक सीमित रह गई। आमिर खान की फिल्म 'थ्री इडियट्स' इसी प्रवृत्ति पर अपने अंदाज में चोट करती है।
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