Wednesday, March 24, 2010
गुम होती गोरैया
गोरैया को बचाने की एक पहल शुरू हुई है। २० मार्च २०१० को पहली बार विश्र्व गोरैया दिवस मानाया गया। अच्छा है कि इस पृथ्वी पर और हमारे जीवन में गोरैया चहकती रहे। दरअसल गोरैया घरेलू चिड़िया है। हमारे घरों में रहती, खिड़की और दरवाजे पर बैठकर चहकती है। आंगन में फुदकती है और चावल का दाना बीनने बड़े अधिकर से रसोई में चली आती है। पर अब नहीं, पहले था जब हम गांवों में थे। अक्सर होता था गौरैया खाना खाने के दौरान हो या फिर कहीं कोई अन्न फैला हो हमारे आसपास ही चहकती नजर आती थी लेकिन गोरैया भी अब लुप्तप्राय है। विरले ही दिखती है जिस तरह के मकानों में अब हम रहने लगे हैं। उसमें गोरैया के लिए कोई जगह ही नहीं बची। गोरैया बड़े पेड़ों पर नहीं रहती जंगलों में भी नहीं। वह कहां घोंसला बनाए। घर के आंगन और छतों की मुंडेर पर चहकने वाली गौरैया की आबादी पर मोबाइल टावरों से घातक असर पड़ा है। इस बात को सरकार ने भी कुछ समय पहले स्वीकार स्वीकार किया था। पर्यावरण और वन राज्यमंत्री जयराम रमेश ने अपने मंत्रालय के पास उपलब्ध सूचना के आधार पर बताया था कि पंजाब यूनिवर्सिटी का पर्यावरण और व्यावसायिक अध्ययन केन्द्र वर्तमान में पक्षियों पर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक विकिरण के प्रभाव पर स्टडी कर रहा है। केरल पर्यावरणीय अनुसंधानकर्त्ता संघ ने भी लगभग एक साल तक स्टडी की, जिससे पता चलता है कि मोबाईल फोन टावरों के अवैज्ञानिक प्रसार ने घरेलू गौरैया की आबादी पर घातक प्रभाव डाला है। एक वक्त था कि हर गांव शहर में अलसुबह या सांझ के झुटपुटे में आसमान में पंछियों की पंक्तियां दिखाई देती थीं। तब हर कहीं तरह-तरह के पंछियों की मीठी आवाजें सुनाई देती थीं। लेकिन अब हर कहीं जिस तरह लोगों के घर बस रहे हैं, उससे पंछियों के बसेरे उजड़ रहे हैं। आज घरेलू चिड़ियां, कबूतर, घुग्घी, तोते, कौवे, चील, बाज, गिद्ध आदि पक्षी नजरों से ओझल होते जा रहे हैं। कभी पेड़ों की टहनियों पर अपनी मजबूत चोंचों से सूराख करते कठफोड़वे की ठुकठुक सुनाई देती थी। मन को खुश कर देने वाली कोयल की कुहूकुहू सुनाई देती थी? पक्षी ही नहीं, रंग बिरंगी तितलियां, कानों में गुंजन करते भौंरे, गिलहरियां और रात में रोशनी के मोती बिखेरने वाले जुगनू भी अब यहां के वातावरण का हिस्सा नहीं रहे हैं। बड़े शहरों में आमतौर पर जंगली या पहाड़ी पक्षियों के बजाय शहरी पक्षी ज्यादा पाए जाते रहे हैं मसलन चार तरह की मैना, घरेलू चिडिय़ा या गौरैया, चोटी वाली चिड़िया, कबूतर, हुदहुद, फाख्ता या घुग्घी, कोयल, रॉबिन चिडिय़ा, बुलबुल, कौवा, चील, बाज, धनेश या हॉर्नबिल, गिद्ध, कई तरह के उल्लू, दजिर्न चिडिय़ा, दोतीन तरह के कठफोड़वा और तोते। लेकिन अब जाने कहां चले गए हैं ये सब? सफेद पीठ वाला गिद्ध तो देश के दूसरे इलाकों से भी गायब हो गया है। इसकी वजह बताई जाती है, मवेशियों के लिए प्रयोग होने वाली डिक्लोफेनिक दवाई। जिन मरे हुए मवेशियों को ये गिद्ध खाते थे, उनसे यह जहर इनमें पहुंचता गया और वे खत्म होते चले गए। इसी तरह चील व बाज भी कम हो गए हैं। अब शहरों के आसपास के खेतों की जगह बिल्डिंगों ने ले ली है तो तीतरबटेर भी गायब हो गए हैं। दुनियाभर में पक्षियों की ९००० प्रजातियां हैं जिनमें से १२०० भारत में हैं। हमारे यहां मोर इसलिए कम हुए हैं क्योंकि वे जमीन पर अंडे देकर उन्हें २७ से २८ दिनों तक सेते हैं। इस काम के लिए उन्हें अब एकांत नहीं मिल पाता। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि पक्षियों का आसपास होना, उनकी आवाजें सुनना आदमी को सुकून देता हो या वे शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाते हों बल्कि पर्यावरण संतुलन के लिहाज से भी उनकी अहम भूमिका है। फलफूल खाने वाले पक्षी, उनके बीज इधर उधर फैला देते हैं जिनसे नए पेड़ों की संख्या बढ़ती है। कुछ पक्षी आदमी को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े मकोड़ों को खा जाते हैं। मरे हुए जानवरों को खाने वाले पक्षी तो सफाई कर्मचारी की भूमिका निभाते हैं। ये पक्षी हमारी फूड चेन का भी अहम हिस्सा हैं। पक्षियों के न रहने से यह पूरी चेन डिस्टर्ब हो रही है जिसका खामियाजा आखिरकार इंसान को भी भुगतना पड़ेगा और भुगतना भी पड़ रहा है। भारत की आदिकालीन अरण्य सभ्यता में वनों, पेड़ पौधों और पशु पक्षियों के साथ मनुष्य के आत्मीय रिश्ते की झलक मिलती है। पशुपक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर भारतीय मनुष्य ने उन्हें पूजा की वस्तु तक बना दिया है। शिव का वाहन नंदी है , विष्णु को गरुड़ प्रिय है , कृष्ण ने गायों और मोरों को प्रतिष्ठा दी है। गणेश अपने वाहन चूहे से , तो लक्ष्मी उल्लू से खुश हैं। दुर्गा शेर की सवारी करती हैं और सरस्वती हंस पर विराजती हैं। शनि देवता कौए को और भैरव कुत्ते को अपना वाहन बनाते हैं। कार्तिकेय मोर को , इन्द्र ऐरावत हाथी को अपने साथ रखते हैं। शिव यदि सांपों को अपने गले में लपेटे रखते हैं , तो विष्णु शेषशायी हैं। हमारी लोककथाओं में तोता और मैना बोलती हैं , तो कौवा काकभुशुण्डि के रूप में आध्यात्मिक विमर्श में शामिल होता है। यह सोचना चाहिए कि हमारे कस्बों और गांवों से गिद्ध क्यों नष्ट हो रहे हैं, जो मरे हुए जानवरों को तत्काल लील जाते थे और इस तरह हमें गंदगी से बचाते थे। क्या आपको नहीं लगता कि अब आपके घर में कोई कौवा, कोई कबूतर या गौरैया झांकने नहीं आती और आती है तो पंखे से कटकर या वहां फंसकर मर जाती है। आकाश में कितने कम पक्षी हैं और जो हैं वे लैंड फिलिंग वाले इलाकों में मंडराते ज्यादा दिखते हैं। आपने कब किसी जगह पिछली बार किसी तितली को देखा था ? जब पानी नहीं तो जंगल नहीं और जंगल नहीं तो पक्षी नहीं।
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