Wednesday, March 3, 2010

विवादों के हीरो

एम.एफ.हुसैन और तस्लीमा नसरीन दो ऐसे नाम हैं, जो अपनी अभिव्यक्तियों के कारण लंबे समय से विवादों में हैं। एम.एफ.हुसैन हिंदू कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं तो तस्लीमा नसरीन मुस्लिम कट्टरपंथियों के। मकबूल फिदा हुसैन इस बार न तो माधुरी के पीछे पागलपन के कारण चर्चा में हैं और न ही किसी ऐसे चित्र को लेकर जिस पर हिन्दु समाज ने आपत्ति दर्ज करवाई हो। दरअसल अब वे कतर की नागरिकता ग्रहण कर चुके हैं और इसी वजह से वह चर्चा में हैं। ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि श्री हुसैन को भारत वापस आना चाहिए। यघपि इस मुद्दे पर सरकार आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे रही। हाल ही में संघ परिवार ने भी एक बयान दिया था कि उसे हुसैन के भरत वापस आने पर कोई आपत्ति नहीं है। हालांकि हुसैन तब तक कतर की नागरिकता ग्रहण कर चुके थे। राजा रवि वर्मा, अमृता शेरगिल की तरह हुसैन पूरे भारत के लोकप्रिय चित्रकार थे। उनकी बनाई एकएक तस्वीर लाखों में बिकती थी, तो उसके पीछे कुछ बात होगी ही। लेकिन ९० के दशक में ७० के दशक में बनाई गई उनकी कुछ तस्वीरों पर विवाद शुरू हो गए थे। यह वह समय था जब देश में राजनीति पर धार्मिक मुद्दे तेजी से हावी हो रहे थे, धार्मिक पहचान के नाम पर मतदाताओं का धुवीकरण हो रहा था। और उन्हीं विवादों के चलते हुसैन को निर्वासन पर मजबूर होना पड़ा था। इतना ही नहीं, उनकी कला प्रदर्शनियों में भी व्यवधान डाला जाता रहा। निर्वासन का यही दंश तस्लीमा नसरीन भी भुगत रही हैं। ला उपन्यास पर जान की धमकी मिलने के बाद उन्होंने बांग्लादेश छोड़ दिया। यूरोप, अमरीका में रहने के बाद २००४ में भारत की अस्थायी नागरिकता उन्हें ंमिली। प.बंगाल में रहते हुए उन्होंने अपना लेखन जारी रखा, उस पर विवाद भी हुए। बाद में तस्लीमा को कोलकाता छोड़ना पड़ा और अंततः भारत भी। हुसैन ने हाल ही में कतर की नागरिकता स्वीकार कर ली, जिस पर तथाकथित बौध्दिक समाज में विमर्श जारी है कि उनका यह निर्णय सही है या नहीं और इसके लिए जिम्मेदार कौन है। विमर्श का नतीजा चाहे जो सामने आए, एक बात तो तय रही कि अपने एक अनूठे कलाकार को भारत ने खो दिया, उसकी बहुलतावादी संस्कृति उसे संरक्षण देने में असफल साबित हुई।लगातार विवादों को जन्म देने वाली तस्लीमा नसरीन के एक लेख पर कर्नाटक में ऐसा विवाद खड़ा हो गया कि बात दंगों तक पहुंच गई और इसमें दो लोगों की मौत भी हो गई। हालांकि बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन ने कहा कि उन्होंने कभी किसी कन्नड़ अखबार के लिए कोई लेख नहीं लिखा। यह उनकी छवि धूमिल करने का प्रयास है। तस्लीमा ने एक वक्तव्य (जो प्रेट्र को उपलब्ध हुआ है) में कहा कि उन्होंने कर्नाटक के किसी अखबार के लिए कभी कोई लेख नहीं लिखा। तस्लीमा ने कहा कर्नाटक में एक मार्च को जो भी हुआ, उससे मुझे आघात पहुंचा है। मुझे पता चला कि यह संघर्ष एक कन्नड़ अखबार में मेरे द्वारा लिखे लेख द्वारा फैला, लेकिन मैंने अपनी जिंदगी में किसी कन्नड़ अखबार के लिए कोई लेख नहीं लिखा। तस्लीमा ने कहा लेख का प्रकाशन घटिया हरकत है। मैंने अपने किसी लेख में यह नहीं लिखा कि मोहम्मद साहब बुर्के के खिलाफ थे। इसलिए यह बिगाड़ कर पेश किया लेख है।

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