Saturday, April 24, 2010
आईपीएल यानि इंडियन पंगा लीग
आईपीएल थ्री इस बार ढेर सारे विवाद भी छोड़ गया। इसकी शुरूआत हुई मोदी व थरूर के विवाद के साथ। कोच्चि टीम की खरीदारी को लेकर ललित मोदी और शशि थरूर के बीच उठे विवाद ने आईपीएल की जडे़ं हिला दी। रही सही कसर शशि थरूर की दोस्त सुनंदा पुष्कर ने पूरी कर दी। इन्हें ७० करोड़ रुपये की फ्री इक्विटी दी गयी थी। इस मामले को ललित मोदी ने मीडिया में लीक कर दिया। थरूर पर आरोप है कि इस सौदे को पटाने के लिए उन्होंने अपने पद का इस्तेमाल किया। ललित मोदी, शशि थरूर व उनकी महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के बीच उभरे विवाद ने देश की राजनीति को ही नया मोड़ दे दिया। इस मुद्दे पर देश के राजनीतिक दल आपस में बंट गए। थरूर को जहां अपना पद छोड़ना पड़ा वहीं भाजपा नेता अरुण जेटली ने आईपीएल चेयरमैन ललित मोदी को कटघरे में खड़ा कर दिया। थरूर की विदाई के बाद जब मोदी पर शिंकजा कसना शुरू हुआ तो एक के बाद एक भयानक राज खुलते नजर आये। मसलन आईपीएल के सारे मैच फिक्स होते हैं। इसके मार्फत बड़े पैमाने पर काला धन सफेद किया जा रहा है। स्विस बैंकों, सिंगापुर, मलेशिया व दुबई का काला धन सफेद हो रहा है। मैच फिक्सिंग में कई बड़े खिलाड़ी शामिल हैं। मैच फिक्स कराने में एक विदेशी कप्तान व कई नामचीन भारतीय खिलाड़ी शामिल हैं। यह सन २००० के मैच फिक्सिंग विवाद से ज्यादा गहरा है। इसमें न सिर्फ सत्ता पक्ष बल्कि उसकी सहयोगी पार्टियों के कई नेता फंसते नजर आ रहे हैं । कांग्रेस सांसद व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर के अलावा अब प्रफुल्ल पटेल व शरद पवार भी फंसते नजर आ रहे हैं। पवार की बेटी सुप्रिया सुले व प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल का नाम सामने आने से राकांपा में जबर्दस्त हड़कंप मचा है। मैचो ंके प्रसारण अधिकार खरीदने को लेकर विवादों के घेरे में आयी कंपनी मल्टी स्क्रीन मीडिया में सुप्रिया सुले के पति सदानंद सुले की हिस्सेदारी है। आईपीएल में बतौर हास्पिटैलिटी मैनेजर पूर्णा पटेल की हिस्सेदारी को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।आईपीएल से जुड़ा विवाद इतना गहराया कि प्रधानमंत्री को दो बार अपने संकटमोचक व वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को चर्चा के लिए बुलाना पड़ा। विपक्ष समूचे मामले की संयुक्त संसदीय समिति गठित करके जांच कराने पर तुला हुआ है। राजद नेता लालू प्रसाद यादव, सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, माकपा नेता सीताराम येचुरी सभी इसके खिलाफ हैं। बसपा अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती इस मामले की सीबीआई से जांच कराये जाने की मांग कर रहीं हैं। विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर के अलावा अब प्रफुल्ल पटेल व शरद पवार के भी इस्तीफे की वह मांग कर रहा है। उधर पवार का साफ कहना है कि आईपीएल विवाद से उनका कोई लेना देना नहीं है। वैसे कहा यह भी जाता है कि ललित मोदी उन्हीं की छत्र छाया में पल बढ़ रहे हैं। रहा सवाल मोदी का तो पहले तो उन्होने अपने तेवर दिखाये लेकिन जब बीसीसीआई ने सख्त लहजा अपनाया तो उन्होंने घुटने टेक दिए। अब मोदी खुद पर लगे आरोपों की जांच के लिए वक्त मांग रहे हैं। मोदी का जाना तय है। इसका असर आयोजन के अंतिम चरण में साफ दिखा। सभी फ्रेंचाइजी के खिलाफ अचानक आयकर जांच शुरू हो गयी। फ्रेंचाइजी के मालिकों ने खेमेबंदी शुरू कर दी। मोदी के पक्ष में शिल्पा शेटटी, फारूख अब्दुल्ला व विजय माल्या खड़े नजर आये। बीसीसीइाई व मोदी के बीच में जम करके बयानबाजी हुई। बीसीसीइाई ने आईपीएल अवार्ड का बहिष्कार किया। कई खिलाड़ी भी इस समारोह में नहीं गये। यह ठीक है कि आईपीएल ने अपना नया बाजार बनाया है। उसने क्रिकेट के लाखों नये दर्शक बनाए हैं। एक नये प्रारूप को स्थापित किया है। आईपीएल मैचों को ऊंची टीआरपी मिल रही है। प्रसारक टीवी चैनल को ऊंची दरों पर विज्ञापन मिल रहे हैं। विज्ञापन का पैसा इलेक्ट्रानिक और प्रिंट समाचार माध्यमों में भी बह रहा है। जिनके बड़े दांव हैं, उन सबको फायदा है। यह फायदा इसी तरह चलता रहता अगर ललित मोदी इसे मिल बांटकर खाने में यकीन करते लेकिन उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि उनकी मांद में दूसरे लोग डेरा बना लें। मोदी नयी टीम अहमदाबाद की बनवाना चाहते थे लेकिन बाजी कोच्चि ने मार ली। बतौर केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने कोच्चि की तरफ पलड़ा झुकाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया तो मोदी ने कीचड़ का डिब्बा उलट दिया। तब शायद उन्हें यह अंदाजा नहीं रहा था कि उसके भीतर से इतनी गंदगी निकलेगी कि कई चेहरे बदरंग हो जायेंगे। आज हमाम में कई लोग नंगे नजर आ रहे हैं।इस गोरखधंधे के चलते रहने में बड़े-बड़े रसूखदार लोगों के हित सधते थे। खिलाड़ियों को भी इस धंधे की वजह से उतना पैसा मिल रहा है, जो पहले वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उनकी आदतें व प्रतिबद्धतायें बदलीं। कई देशों की टीमों के खिलाड़ियों के लिए आईपीएल की जो अहमियत है , वह अपने देश की टीम के साथ खेलने को लेकर नहीं है। कई रिटायर्ड खिलाड़ियों के लिए कमाई का नया जरिया बना आईपीएल। इनमें गांगुली, शेन वार्न, कुंबले, एडम गिलक्रिस्ट, एण्ड्रयूज सायमण्ड्स, मुथैया मुरंलीधरन, सनथ जयसूर्या आदि प्रमुख हैं। बीते दिनों आयकर विभाग भी आईपीएल को लेकर हरकत में दिखाई दिया। आईपीएल कार्यालय में आयकर विभाग के छापे के बाद से यह कहना मुश्किल है कि इससे देश को हो रहे मनोरंजन का ज्यादा हिस्सा खेल से आ रहा है या फिर रंगीन चटपटी चर्चाओं से। किसके पर कतरे जाने वाले हैं। कौन अपने दफ्तर में आखिरी दिन गिन रहा है, किसका कौन सा राज अब बस खुलने ही वाला है, इस तरह की बातें लगातार सुर्खियां बनी रहीं। कई फ्रेंचाइजी मालिकों के होश फाख्ता हो गये। मुंबई हाई कोर्ट ने भी अपनी राय पेश की। यदि हम बीते दिनों की बात करें तो क्रिकेट में कुछ ऐसा ही नजारा १९८० के दशक में शारजाह में देखने को मिला था , जहां अब्दुल रहमान बुखातिर ने दाऊद इब्राहिम समेत दूसरे अंडर वर्ल्ड डान, फिल्मी सितारों, सट्टेबाजों और मैच फिक्सिंग का ऐसा तालमेल रचा, कि क्रिकेट की पूरी दुनिया कलंकित हो गई। उस दौर में केसी सिंह संयुक्त अरब अमीरात में भारत के राजदूत थे। थरूर-मोदी विवाद के बाद उन्होंने एक टीवी चैनल पर कहा कि उस दौर में जो शारजाह में हो रहा था, वह अब उससे भी बड़े स्तर पर आईपीएल में देखने को मिल रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या कितनी गंभीर रही होगी। ललित मोदी ने कोच्चि टीम में निवेश के स्वरूप को बेनकाब किया तो दूसरी टीमों के स्वामित्व पर भी सवाल उठ खडे़ हुए। अब यह सामने आया है कि कम से कम दो टीमों में मोदी के तीन रिश्तेदारों का हिस्सा है। मोदी पर आरोप लगा है कि टीमों के लिए निविदा के दौरान वे गोपनीय सूचनाएं लीक करते रहे हैं और कोच्चि की टीम मैदान से हट जाए इसके लिए उन्होंने सवा दो अरब रुपये घूस देने की पेशकश की थी।टीमों में निवेश के लिए धन कैसे जुटाया गया इस पर इससे भी गंभीर सवाल हैं। क्या मारीशस रूट से पैसा लाकर मनी लांड्रिंग के जरिये काले धन को गैर कानूनी रूप से सफेद करने के मकसद से उनका कई टीमों में निवेश हुआ? शशि थरूर से सुनंदा पुष्कर का नाम जुड़ा तो यह सवाल भी है कि दक्षिण अफ्रीका की माडल गैब्रिएला दिमित्रिएदस के साथ मोदी के क्या संबंध रहे हैं। आखिर मोदी क्यों चाहते थे कि ग्रैबिएला भारत न आएं। यानी आईपीएल हर तरह के भ्रष्ट आचरण, मर्यादा की अनदेखी और संभवत कानून के उल्लंघन का अखाड़ा बन हुआ है। सब कुछ ठीक ठाक नहीं है, इसके संकेत तो लगातार मिल रहे थे। मगर आईपीएल की सफलता का मीडिया में महिमामंडन इस कदर होता रहा कि सामने दिख रही गड़बड़ियों पर सवाल उठाना मुश्किल लगता था। आईपीएल मैच के दौरान शबाब और शराब में डूबे धनाढ्य दर्शक नाइट क्लब जैसा नजारा पेश करते हैं। आईपीएल मैचों में कैसिनो का अंदाज दिखा। तमाम मुद्दे जो इस बार उठे आईपीएल नाम से चल रहे बड़े तमाशे पर अपनी अप्रिय छाया छोड़ गये । कल तक जिसे क्रिकेट की नई लोकप्रियता और कारोबार में कामयाबी का प्रतीक माना जा रहा था वह आज संदेह के गहरे घेरे में है। आशंकाओं का दायरा इतना बड़ा है कि अब इसकी तुलना अमेरिकी बेसबाल के ब्लैक साक्स घोटाले से की जा रही है। एक दौर में उस टूर्नामेंट में काले धन, अंडर वर्ल्ड, सट्टेबाजों और मैच फिक्सिंग करने वाले खिलाड़ियों का ऐसा जमावड़ा हो गया था कि उसकी सफाई के लिए तत्कालीन अमरीकी प्रशासन को कड़े कदम उठाने पड़े थे। खेल के पीछे छिपा शबाब भी सतह पर आ गया ।पहले सीजन में कम वस्त्रधारी लड़कियों के कारण नैतिक आलोचना का शिकार बना आईपीएल तीसरे सीजन के आते आते बड़े खिलाड़ियों के चंगुल में चला गया। ललित मोदी ने जिस क्रिकेट को कारोबार बनाकर परोसा था, वही उनके गले की हड्डी बन गया। अति सब जगह वर्जित है। ललित मोदी शायद यह भूल गये कि चोरी से कोकीन रखने के आरोप में दो साल जेल काट लेना आसान है, लेकिन एक अरब लोगों के साथ धोखाधड़ी करके साफ बच निकलना मुश्किल है। वे अपने किये की सजा भुगतने की कगार पर हैं।आईपीएल के गठन की सबसे पहली और बड़ी भूल यह रही कि इसमें टीमों के गठन के लिए सात चार की व्यवस्था की गयी है। सात खिलाड़ी भारत के होंगे व चार विदेशों से लाए जाएंगे। यानी एक ही देश का एक खिलाड़ी अगर बैटिंग कर रहा है तो दूसरा उसका प्रतिद्वंदी है। किसी प्रदेश का एक खिलाड़ी यदि इस टीम से खेल रहा है तो दूसरा उस ओर से। भारतीय टीम के खिलाड़ी चूरन की तरह सभी टीमों में बंट गये। अब तक दर्शक जिस टीम भावना के वशीभूत होकर क्रिकेट देखते थे वह काट पीट कर फेंक दी गयी। मुनाफे के शोर में इस फारमेट की सभी खामियां दब गयीं लेकिन विवादों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया। आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की योजनाएं कहीं से कमजोर नहीं ठहर रही थीं। छह से आठ और भविष्य में दस टीमों का भरा पुरा क्रिकेट परिवार बन गया। ललित मोदी ने सगर्व घोषणा की थी इस साल आईपीएल में २२ हजार करोड़ रुपये का कारोबार हो चुका है। टीमों की कमाई के इतर बीसीसीआई को अकेले वर्तमान साल में ही कोई साढ़े चार से पांच हजार करोड़ कमाई की उम्मीद थी। यह कमाई सिर्फ खेलों से है। टीमों की खरीद-बिक्री से नहीं लेकिन इसी बीच अति मुनाफे की मानसिकता आड़े आ गयी। कोच्चि टीम में रुचि रखने के आरोपी थरूर आईपीएल के लपेटे में आ गये। अपने उच्च संपर्कों और अति महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के शिकार मोदी ने शशि थरूर से अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए खबर लीक करवाई। यह खबर न बनती अगर सुनंदा का नाम शशि थरूर से न जुड़ा होता।
Tuesday, April 20, 2010
ट्विटर-ट्विटर मतलब किचकिच-किचकिच
आजकल बालीवुड, राजनीति और क्रिकेट की दुनिया के लोग ट्विटर पर छाए हुए हैं। बिग बी, किंग खान, अमर सिंह से लेकर शशि थरूर और ललित मोदी तक। ऐ लोग अक्सर अपने टिवटर के माध्यम से किसी न किसी विवाद में देखे जा सकते हैं। हाल ही में एक नेता ने एक ट्विटर लिखा और पूरे देश की राजनीति ही ट्विटराने लगी। केंद्र सरकार से लेकर विपक्ष तक ट्विटरा रहा है। अगर, आप सोच रहे है कि ये ट्विटर क्या बला है, तो हम बता दें आपको कि ये नवीनतम टेक्नोलॉजी का नवीनतम शौक है। इंटरनेट पर पहले ब्लॉग बहुत पॉप्युलर हुआ था, अब ट्विटर कुछ ज्यादा ही पापुलर हो रहा है। वैसे, ट्विटर इंग्लिश का शब्द है, जिसका एक मतलब किचकिच पन भी कहा जा सकता है। भारतीय भाषा में यह किचकिच पन बिलकुल सटीक बैठ रहा है। फिलहाल आईपीएल को लेकर देश की सरकार सें लेकर सफेदपोश, नौकरशाह सहित दुनिया भर में किचकिच चल रहा है। देश में जो किचकिच यानि कि टविट टिवट चल रहा है, वो एक नेता का लिखे एक ट्विटर से चालू हआ है। ये कोई और नेता नहीं बल्कि शशि थरूर हैं जिन्हें ट्विटराने का बड़ा शौक है। वो पहले भी ट्विटरा चुके हैं। ट्विटराने का कारण, वो कई बार चर्चा में आ चुके हैं। अब इसी टिवटराने के चक्कर में उनकी विदेश राज्य मंत्री की कुर्सी भी चली गयी। अब टिवटर के साथ-साथ ही इनका महिला प्रेम भी जगजाहिर हो चुका है। शशि थरूर आजकल इतने चर्चित हैं जितने कि अपने सीधे व शांतप्रिय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी भी नहीं रहते। आखिर हमारे प्रधानमंत्री जी किचकिच जो नहीं करते। देखा जाए तो यह टिवट टिवट सिर्फ हजारों करोड़ों रुपए के मुनाफे के लिए ही हुई। जिसके चलते मोदी और थरूर की किचकिच हुई और नुकसान उन सफेदपोशों का जिनकी ब्लैकमनी लगी हुई है। उन्हें चिता सताए जा रही है कि अब इसमें सफेदी कैसे आएगी। कमाई यह स्रोत कहीं बंद न हो जाए। क्रिकेट एक खेल है और आईपीएल एक धंधा है। धंधा भी हजारों करोड़ का। जिधर इतना पैसा होता है, उधर सभी टांग अड़ाना चाहते हैं। अभी आगे कई सपैदपोशों के नाम खुलेंगे अगर मोदी सिर्फ बलि का बकरा बनके न रह गए। वैसे आपको याद दिला दें कि ये कोई पहली बार नहीं है, जब देश में ट्विटर ट्विटर, ट्विट ट्विट हुआ है। सनद रहे कि एक बार तोप खरीद को लेकर ट्विटर ट्विटर, ट्विट ट्विट हुआ था। करोड़ों का कमीशन का आरोप था। और याद है, एक बार विदेश से करोड़ों का शक्कर खरीदा गया था। पैसे पहुंच गया, पर शक्कर नहीं आयी और, वो इराक और तेल का कूपन का मामला, जिसमें बलि का बकरा बने नेता ने सबकी पोल खोल देने का धमकी दी थी। वो पोल आज तक नहीं खुली। हमारे देश में कोई पोल खुलती ही कहां है। ट्विटर ट्विटर, ट्विट ट्विट तो ख़ूब होता है, पर असली सच क्या है, ये कभी पता नहीं चलता। कुछ ऐसा ही हाल आईपीएल के मामले भी होगा। निश्चत मानिए किमोदी जैसे लोगों को बलि का बकरा बनाया जाएगा और सभी सफदपोश अपना मुंह पोंछते हुए सफेदी चमका के साफ निकल लेंगे।
Tuesday, April 13, 2010
...चुनौती
आतंकवाद के साथ-साथ नक्सलवाद ने भी देश को पूरी तरह से जकड़ लिया है। देश में नक्सलवाद इस कदर हावी हो गया है कि देश में गृहयुद्ध का खतरा बन गया है। नक्सलवादियों के बढ़ते आधार का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय ग्रहमंत्री पी. चिदंबरम की चुनौतियों को नजरदाज करते हुए नक्सलवादियों ने दंतंवाड़ा में ७६ जवानों को मौत की नींद सुला दिया। इस घटना से नक्सलियों ने सीधे-सीधे देश की सुरक्षा को चुनौती दी है। देश में बढ़ता नक्सलवाद आंतरिक लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गया है।दंतेवाड़ा संहार के बाद इस्तीफे की पेशकश करके केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम भले ही सत्ता पक्ष और विपक्ष की सहानुभूति बटोरने में कामयाब हो गये हों, लेकिन इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि नक्सली गतिविधियों को रोकने में सरकार पूरी तरह विफल रही है। इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सलवाद का खतरा पिछले कुछ महीनों के भीतर काफी तेजी से बढ़ा है। इसके पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि जहां गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने लालगढ़ जाकर लोगों की समस्याओं को समझने की कोशिश की, वहीं माओवादियों ने दांतेवाड़ा में बर्बर हमला करके सीआरपीएफ के ७६ जवानों को मौत की नींद सुला दिया। केंद्र सरकार के आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ नक्सलियों द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा हमला है। इस हमले से एक बात तो साफ हो जाती है कि न सिर्फ राज्य सरकारें बल्कि केंद्र सरकार भी जिस हल्के तरीके से आतंकवाद की समस्या से निपटने की कोशिश कर रही हैं वह उसकी बहुत बड़ी भूल है। आंतरिक लोकतंत्र के लिए बढ़ता नक्सलवाद गंभीर खतरा है। यह बात केंद्रीय गृह मंत्री कई बार विभिन्न मंचों से उठा चुके हैं। उन्होंने इससे निपटने के लिए विस्तारित रणनीति भी बनाई है, जिसे आपरेशन ग्रीन हंट के नाम से जाना जाता है। केंद्र सरकार की इस रणनीति को नक्सल प्रभावित राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखंड, महाराष्ट्र तथा बिहार की सरकारों ने ही कभी गंभीरता के साथ नहीं लिया। इसका नतीजा यह निकला कि नक्सलवादियों के मंसूबे बढ़ते चले गये। वे कभी झारखंड में रेल की पटरी उड़ा देते हैं तो कभी पश्चिम बंगाल में नृशंस कार्रवाई में संलग्न नजर आते हैं। हाल ही में उन्होंने छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में बड़ा हमला किया।नक्सल प्रभावित सभी राज्यों में अत्याधुनिक हथियारों से नक्सली गुट लैस हैं। इनकी अच्छी खासी तादाद है। इसे छोटी मोटी लाल सेना भी माना जा सकता है। यह सेना बाकायदा चीन एवं पाकिस्तान द्वारा मुहैया कराये गये हथियारों से लैस हो चुकी है। चूंकि नक्सली गुटों को स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त है, इसलिए संबंधित राज्य सरकारें एवं जिला प्रशासन उनके खिलाफ कार्रवाई करने में विफल हैं। खास किस्म की जुझारू वामपंथी राजनीति का पैरोकार होने के चलते मानवतावादी संगठनों, साहित्यकारों, लेखकों व बुद्धिजीवियों का भी इन्हें समर्थन प्राप्त है। ये केंद्रीय सुरक्षा बलों को हमेशा बाहरी समझते हैं और उनके साथ शत्रुवत बर्ताव करते हैं। घने जंगल, नदी, नाले तथा प्रतिकूल भौगोलिक पृष्ठभूमि इनकी रणनीतिक ताकत माने जाते हैं। गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सली अक्सर बड़ी वारदातें कर जाते हैं। केंद्र व संबद्ध राज्य सरकारों के बीच तालमेल व संवाद की कमी का ये अक्सर फायदा उठाते नजर आते हैं।अब इस चुनौती से जूझने का शायद सही वक्त आ गया है। केंद्र व तमाम राज्य सरकारों को आपसी मतभेद भुला करके आपरेशन ग्रीन हंट को सफल बनाने की रणनीति बनानी होगी। नक्सलियों पर दोहरा वार करने की जरूरत है। इनके विदेशी सम्पर्कों एवं स्थानीय मददगारों की शिनाख्त होनी चाहिए व इसे कमजोर किया जाना चाहिए। दूसरे भ्रष्टाचार, गैर बराबरी, ऊंच-नीच, जातीय दमन, गरीबी व बेरोजगारी आदि जिन कारणों से नक्सलवाद जड़ें जमाता है उनको भी दूर किये जाने की जरूरत है। नक्सलवादी यदि बातचीत की पेशकश लगातार ठुकरा करके एक पर एक बड़े हमले कर रहे हैं तो यह जानना जरूरी है कि आखिरी वे ऐसा किसकी शह पर कर रहे हैं। माओवादी हिंसा का रास्ता नहीं त्याग रहे हैं। इसका मतलब है कि सरकार मानती है कि नक्सलियों पर लगाम कसना उसके लिए कठिन चुनौती है। हालांकि गृहमंत्री पी. चिदंबरम सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि अगर नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़ दें तो माओवादियों से सरकार बातचीत कर सकती है। गृहमंत्री की अपील का जवाब माओवादियों ने सुरक्षाबलों के ७६ जवानों को दांतेवाड़ा में शहीद करके दिया। नक्सली समस्या पर चिंतित सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है कि यह समस्या विशुद्ध रूप से सामाजिक सरोकार से जुड़ी हुई है। इसका समाधान सामाजिक असामानता दूर करके ही किया जा सकता है। बहरहाल बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल तक की पूरी पट्टी नक्सलवाद के जाल में बुरी तरह फंसी हुई है, जहां निरंतर निर्मम हत्याएं व सरकारी संपत्तियों की लूटपाट चल रही है। माओवादी निर्भीकता और स्वतंत्रता के साथ अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं और देश के अधिकांश राज्य इसकी चपेट में आ चुके हैं। वे सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को अगवा करते हैं। बदले में अपनी मांगे मनवाते हैं अन्यथा समय सीमा समाप्त होने पर अपहृत व्यक्ति की हत्या करके फेंक देते हैं। वे सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं। जवानों को मारते हैं। उनके हथियार छीन लेते हैं। वे ग्रामीणों की सामूहिक व निर्मम हत्या करते है। उनके घरों में आग लगा देते हैं। हत्याओं के लिए जघन्य तरीके अपनाते है। पुलिस जवानों की निर्मम हत्याओं के बावजूद सरकार अब तक कुछ खास कार्रवाई नहीं कर पाई। नक्सलवादियों के ऐसे कृत्यों से सुरक्षाबलों का मनोबल गिर रहा है और समाज में अशांति उत्पन्न हो रही है। चिदंबरम के आपरेशन ग्रीन हंट के सामने नक्सलियों का रेड हंट भारी है। चिदंबरम की समूची रणनीति को नक्सलियों ने विफल कर दिया है। नक्सलियों ने उनके ग्रीन हंट को ठेंगा दिखाते हुए ताबड़तोड़ कई बड़ी वारदातें कीं। नक्सलवाद समग्र आर्थिक और सामाजिक समस्या है, जिसकी शुरुआत चालीस साल पहले भारत में हुई थी। पिछले पांच सालों में नक्सलियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को पचास प्रतिशत तक बढ़ा लिया है। इतनी तेजी से नक्सलियों का प्रभाव कैसे बढ़ा यह शोध का विषय हो सकता है। देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ी है। गरीब बढ़ रहे हैं। अमीर भी बढ़ रहे हैं। अब भुखमरी की स्थिति में लोग क्या करें। या तो भीख मांगेंगे या नक्सलियों की शरण में जाएंगे। नक्सली हर गुरिल्ला को तीन हजार रुपये मासिक वेतन दे रहे हैं। साथ ही वसूली का हिस्सा भी। दूसरी तरफ सरकार अगर अपने पुलिस बल में या अन्य नौकरियों में किसी को रखती है तो घूस के तौर पर दो लाख से पांच लाख रुपये तक मांगा जाता है। झारखंड, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों में भर्ती में जो भ्रष्टाचार है, वह किसी से छिपा नहीं है। नक्सलियों की जमीन को विस्तार देने में तो सरकार की खुद की आर्थिक नीतियां दोषी रही हैं। आदिवासी संसाधनों की लूट अगर नहीं रुकी तो नक्सलवादी जमीन कमजोर नहीं होगी बल्कि उसका विस्तार ही होगा। हर राज्य सरकार खाद्यान्नों की लूट में लगी है। इनके माफिया और कारपोरेट मिल जुलकर खादान्नों को लूट रहें है। नक्सलियों से बातचीत करने का अब तक कोई फायदा नहीं निकला। वे बातचीत को भी अपने फायदे में इस्तेमाल करने की सोचते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का नक्सलियों के प्रति साफ्ट कार्नर है। जब केंद्र नक्सलियों पर लगाम कसना चाहता है और पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार का सहयोग करना चाहता है तो ममता बनर्जी नाराज हो जाती हैं। बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार व झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का स्टैण्ड भी इस मुद्दे पर साफ नहीं है। न ही आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व उड़ीसा के मुख्यमंत्रियों का। बुजुर्ग साहित्यकार महाश्र्वेता देवी ने नक्सली समस्या के हल के लिए मध्यस्थता की रजामंदी तो जताई लेकिन किशन पटनायक सरीखे नेताओं ने बातचीत का रास्ता नकारते हुए २०५० तक भारतीय गणतंत्र को ही मटियामेट करने की चेतावनी दे डाली। वे अपनी हिंसक रणनीति को भी जारी रखे हुए हैं। छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में माओवादियों की खूनी कार्रवाई से एक बार फिर सरकार के नक्सल विरोधी अभियान पर सवालिया निशान लग गया है। केंद्र सरकार ने जब से यह अभियान शुरू किया है माओवादियों के हमले और बढ़ गए हैं। एक तरफ खूनी खेल चल रहा है तो दूसरी तरफ सियासी खेल। सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकारें मन से नक्सल विरोधी अभियान में केंद्र सरकार के साथ हैं। केंद्र के रवैये को लेकर उनके भीतर गहरा संशय बना हुआ है। जब केंद्र उनसे कानून व्यवस्था दुरुस्त करने की बात कहता है तो वे उसे आक्षेप की तरह लेती हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके केंद्र आम आदमी के भीतर उनकी गलत छवि बनाकर उसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहता है। मसलन पश्चिम बंगाल को ही लें। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम जब राज्य के कानून व व्यवस्था का मुद्दा उठाते हैं या इस मामले में कोई सलाह देते हैं तो बुद्धदेव भट्टाचार्य को लगता है कि चिदंबरम अपने सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस की भाषा बोल रहे हैं। कई राज्यों की सरकारों ने अपने तरीके से माओवादियों से निपटने की कोशिश तो की लेकिन उन सरकारों ने चुनाव में माओवादियों से लाभ भी लिए। ऐसी सरकारें अभी भी उनसे सीधे टकराव से बचना चाहती हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री ने हाल में कुछ ऐसा ही संकेत दिया था। राज्यों और केंद्र के बीच द्वंद्व का फायदा नक्सलियों ने शुरू से ही उठाया और लगातार अपना विस्तार किया। वे सरकार की दुविधा को समझते हैं। इसलिए बीच-बीच में बातचीत की पेशकश पर सकारात्मक रुख अपनाने का स्वांग रचते हैं। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा के बाद छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस तरह का रक्तपात मचाया, वह बेहद निंदनीय है। दांतेवाड़ा के जंगलों में सीआरपीएफ व राज्य पुलिस के गश्ती दलों पर घात लगाकर नक्सलियों ने हमले किए, जिसमें ७५ जवान शहीद हुए। गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने इसकी कड़ी निंदा करने की औपचारिकता निभा ली है और सुरक्षा बलों की रणनीतिक चूक को इसका कारण बताया है। केंद्रीय गृहमंत्री को रणनीतिक चूक जैसे बयान देने के बजाय वास्तविकता से जनता को अवगत कराना चाहिए। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के दौरे के मौके पर उन्होंने मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य को नक्सलवाद से निबटने की नसीहत दी। इस नसीहत से उपजा बवाल अभी शांत नहीं हुआ था कि अब यह रणनीतिक चूक का मसला सामने है। नक्सलवाद को सरकार आतंकवाद की तरह गंभीर मुद्दा मानती है और ऐसा है भी। जाहिर है इसके खिलाफ रणनीति भी उतनी ही गंभीरता से बनाई जाती होगी, जितनी बाहरी दुश्मनों से लड़ने के लिए। तब रणनीतिक चूक की बात बहुत हल्के किस्म की लगती है। देश के कई रक्षा विशेषज्ञ, पुलिस, खुफिया विभाग के श्रेष्ठ अफसर नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बनाते हैं, अगर इसमें कमी रहती है तो यह बेहद गंभीर बात है। राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर पर जरूरत से ज्यादा बयानबाजी भी इस समस्या को उलझा रही है।
फिर धड़कने की तैयारी
6ब्बीस साल से बंद लखनऊ के हुसैनाबाद घंटाघर की घड़ी फिर से टिक-टिक करने वाली है। कोशिश चल रही है कि देश के सबसे ऊंचे घंटाघर को फिर से नया लुक दिया जाए। संयुक्त प्रांत ( तब उत्तर प्रदेश का यही नाम था) के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जार्ज कोपर के सम्मान में हुसैनाबाद ट्रस्ट ने १८८२ से १८८७ के बीच इसका निर्माण कराया। ब्रिटिश आर्किटेक्ट रिचर्ड रासकेल बेयन ने रिष स्टाइल में इसे डिजाइन किया था। इसमें जो घड़ी लगी है वह तकनीकी दृष्टि से विश्र्व की तीन नायाब घड़ियों में से एक मानी जाती है। यह घड़ी कितनी कीमती है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि घंटाघर के पूरे भवन के निर्माण पर जब नब्बे हजार रुपये खर्च हुए थे तब इसमें लगायी गयी घड़ी की कीमत २६ हजार ९ सौ ३३ रुपये थी। गन मेटल से निर्मित इस घड़ी में पांच बड़े घंटे लगे हैं, जिनकी आवाज तीन किलोमीटर दूर तक सुनायी पड़ती थी।हुसैनाबाद घंटाघर की घड़ी १९८४ तक लगातार चलती रही। १९८४ में यह खराब हो गयी। ब्रिटेन की फर्म जे.डब्ल्यू बेंसन द्वारा निर्मित इस घड़ी को स्केपमेंट और पेंडुलम के जरिये इस तरह से संबद्ध किया गया था कि यह पच्चानवे साल तक लगातार चलती रही। इस घड़ी के खराब होने के बाद इसे ठीक करने के प्रयास हुए। कोई ऐसा कारीगर नहीं मिला जो इसे ठीक कर पाता। १९९९ से २००३ तक कारीगर तलाशने के बाद बरेली की फर्म शब्बन एंड संस ने इसे ठीक कर देने का ठेका लिया। फर्म ने इस एवज में नौ लाख रुपये मांगे। बरेली की इस फर्म को ढाई लाख रुपये एडवांस भी दिए गये लेकिन वह इस घड़ी को ठीक नहीं कर पायी। इसी बीच घड़ी का दिल माना जाने वाला पुर्जा स्केपमेंट कहीं खो गया। इसके बाद हुसैनाबाद ट्रस्ट ने कोलकाता की एंग्लो रिक्श वाच कंपनी सहित कई विशेषज्ञ फर्मों और विशेषज्ञों से घड़ी को दोबारा चालू करने पर विचार विमर्श किया। कोई भी इस बात पर एकमत नहीं हो पाया कि यह घड़ी फिर से चल पाएगी या नहीं। लखनऊ की शान माने जाने वाले हुसैनाबाद के ऐतिहासिक घंटाघर की घड़ी को ठीक करने में जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए तब आईआईटी कानपुर के बीटेक मैकेनिकल अखिलेश अग्रवाल और मर्चेंट नेवी में सेवारत कैप्टन परितोष चौहान ने इसे ठीक करने का बीड़ा उठाया। इन्होंने घड़ी के मूल दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद गन मेटल से ही घड़ी के खो चुके स्केपमेंट को फिर से तैयार कर लिया। स्केपमेंट तैयार हो जाने के बाद अब यह दिक्कत सामने है कि कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि वह स्केपमेंट घड़ी में लगाकर उसे चलाने का रिस्क लिया जाए या नहीं। हुसैनाबाद ट्रस्ट अब इस स्केपमेंट का वीडियो तैयार करवाकर ब्रिटिश आर्कियोलाजिकल सोसायटी को भेज रहा है ताकि वहां से विशेषज्ञों की राय ली जा सके। लखनऊ के अपर जिलाधिकारी और हुसैनाबाद ट्रस्ट के सचिव ओम प्रकाश पाठक ने बताया कि लखनऊ में तैयार किए गए स्केपमेंट के वीडियो को अगर ब्रिटेन के विशेषज्ञों से हरी झंडी मिल जाती है तो इसकी मरम्मत का काम शुरू कर दिया जाएगा। घड़ी की मरम्मत के काम में पंद्रह लाख रुपये खर्च होने का अनुमान है। हुसैनाबाद ट्रस्ट ने घड़ी ठीक हो जाने की संभावना के बाद घंटाघर में आयी दरारें और जीर्ण शीर्ण हो चुकी उसकी सीढ़ियों की मरम्मत का फैसला भी कर लिया है। पीडब्ल्यूडी के रिटायर्ड प्रमुख अभियंता वी.के. श्रोतिया घंटाघर की मरम्मत में तकनीकी सलाह देंगे। घंटाघर की सीढ़ियों और इसकी दरारों को ठीक करने में तीन लाख रुपये का खर्च आएगा। घंटाघर को फिर से उसके पुराने स्वरूप में लौटाने पर खर्च होने वाले १८ लाख रुपये का व्यय हुसैनाबाद ट्रस्ट वहन करेगा। बीस फुट चौड़ाई और बीस फुट लंबाई के वर्ग पर निर्मित किए गए हुसैनाबाद घंटाघर की ऊंचाई २१२ फुट है। घंटाघर के शीर्ष पर पीपल का बगुला लगाया गया है, जो हवा की दिशा बताता है। ऐतिहासिक आसिफी इमामबाड़े और छोटे इमामबाड़े के बीच स्थित घंटाघर पर्यटकों के खास आकर्षण का केंद्र है।
आसान नहीं डगर
योग गुरु बाबा रामदेव ने भी राजनीति में प्रवेश की घोषणा कर दी है। उन्होंने अपनी पार्टी का नामकरण भी कर लिया है। उनकी पार्टी होगी भारत स्वाभिमान पार्टी। ऐसे में सहज सवाल उठता है कि क्या वे राजनीति में सफल हो पाएंगे या फिर अन्य बाबाओं की तरह उनका भी हाल होगा। बाबा रामदेव एक सफल योग गुरु हैं। वे हरियाणा में १९५३ में पैदा हुए। लकवा से पीड़ित होकर वे योग की ओर आगे बढ़े। योग द्वारा उनके लकवे का इलाज हो रहा था। वे उससे मुक्त भी हो गए। इसी दौरान वे इस विद्या में पारंगत हो गए फिर उन्होंने लोगों को मुफ्त योग सिखाना शुरू कर दिया। योग का प्रचार करते-करते और लोगों को बीमारियों से मुक्ति दिलाने की पहल के साथ ही उन्होंने भारी प्रसिद्धि हासिल कर ली। इस प्रसिद्धि का कारण उनके द्वारा अपने योग प्रचार में टीवी चैनलों का इस्तेमाल था। आयुर्वेद की दवाओं और घरेलू नुस्खों का योग के साथ साथ प्रचार करके बाबा रामदेव करोड़ों लोगों के बीच में परिचित चेहरा बन गए। यदि उन्हें लगता है कि वे पूरे देश में इतने ज्यादा प्रचारित हो गए हैं कि अगर अपनी राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो भारी सफलता हासिल होगी। वे राजनीति में सार्थक हस्तक्षेप चाहते थे इसलिए अपने योग शिविरों में उन्होंने राजनीतिज्ञों को आने का मौका दिया। नेताओं के पास लंबे चौड़े निमंत्रण पत्र भेजकर उन्हें बुलाया जाता। सहारा समूह से नजदीकी के बाद वे लालू व मुलायम के प्रभाव में आये। लालू ने तो समय-समय पर बाबा रामदेव का जमकर नगाड़ा बजाया फिर भी बाबा की बेचैनी बनी रही। इसलिए पिछले आम चुनाव से ठीक पहले उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की शुरुआत कर दी। योजना तो सीधे चुनाव मैदान में उतरने की थी लेकिन कम समय के कारण तैयारी नहीं हो पायी। जोधपुर में आयोजित सभा में उन्होंने स्वीकार भी किया था कि तैयारी अधूरी थी। उनका एक ही संदेश है कि सदस्य बनाइये और प्रशिक्षण दीजिए। लक्ष्य है कि दो करोड़ सक्रिय सदस्य बन जाएं। इसके लिए वे देश में ११ लाख योग कक्षाओं के नियमित आयोजन का आवाहन कर रहे हैं।इन कार्यक्रमों में उनकी हां में हां मिलाने के लिए उपकृत भक्तों का हुजूम भी दिख रहा है। बाबा उत्साहित हैं। उनका उत्साह छिपाये नहीं छिप रहा। वे कहते हैं कि कोई समय सीमा तो नहीं है लेकिन उनका राजनीतिक आधार अगले दो साल में तैयार हो जाएगा। यानी, २०१४ के चुनाव में बाबा रामदेव भी अपने प्रत्याशी मैदान में उतारेंगे। फिलहाल उनकी इस घोषणा से तो यही लगता है कि वह वही गलती कर रहे हैं जो करपात्री जी महराज ने सालों पहले की थी। जिन राजनीतिज्ञों को हटाने के लिए बाबा रामदेव घूम-घूम कर प्रवचन दे रहे हैं, उन्हीं राजनीतिज्ञों की बदौलत वे अब तक अपने योग शिविरों को चमकाते रहे हैं। राजनीतिज्ञों को यह अहसास होते देर नहीं लगेगा कि बाबा अब उनके क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे में वे उनके साथ क्या व्यवहार करेंगे यह तो आने वाला समय बताएगा। प्राणायाम के चमत्कार में बाबा रामदेव के प्रभाव में आये सामान्य जन उनका राजनैतिक संदेश भी मानेंगे इसकी क्या गारंटी है। बाबा रामदेव के आज करोड़ों प्रशंसक हैं। उनके अनुयायियों की संख्या भी लाखों में हैं। उनका अपना योग और आयुर्वेद का साम्राज्य है जो अरबों रूपये का है। उनका यह साम्राज्य दिनों दिन फैलता जा रहा है। ६००० लोगों को तो उन्होंने अपने उद्योग में सीधे-सीधे नौकरी दे रखी है। उनके व्यापारिक साम्राज्य से रोजगार के अन्य अवसर भी पैदा हुए हैं। वे करपात्री महाराज से अच्छी स्थिति में हैं, जिन्होंने राम राज्य परिषद बनाकर राजनीति में प्रवेश किया था। वे धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से भी बेहतर स्थिति में हैं, जिनकी राजनीति श्रीमती इंदिरा गांधी पर निर्भर थी। उनकी अपील किसी विशेष संप्रदाय अथवा जाति तक सीमित नहीं है। वे कोई सांप्रदायिक अथवा जातिवादी मसला उठा भी नहीं रहे। उन्होंने देवबंद के जमात-ए-उलेमा का निमंत्रण स्वीकार कर उनके मंच से हजारो मुस्लिम धार्मिक नेताओं को संबोधित किया और योग पर प्रवचन देकर उनकी वाहवाही हासिल की इसके बावजूद उनकी राजनैतिक यात्रा आसान नहीं है। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द जो आभा खड़ी की है, उसके पीछे अनेक मुख्यमंत्रियों और केन्द्र के मंत्रियो से उनकी नजदीकी प्रमुख है। लालू प्रसाद यादव से लेकर नरेंद्र मोदी तक सभी उनके मुरीद हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा से भी उनके अच्छे संबंध हैं।
सियासत का मुद्दा बने बिग बी
बिग बी भाजपा और कांग्रेस की तकरार का नया मुद्दा बन गए हैं। कांग्रेस जहां एक तरफ गुजरात का ब्रांडअंबेस्डर बनाने पर उनकी आलोचना कर रही है वहीं दूसरी तरफ भाजपा उन्हें एक सच्चा देशभक्त बनाकर कांग्रेस की अलोचना को खारिज कर रही है। बच्चन परिवार अक्सर अखबारों की सुर्खियों में बना रहता है। कभी यह सुर्खियां कुछ विवादों के चलते गहरा जाती हैं तो कभी बासी चर्चाओं में नया मोड़ आ जाता है। नेहरू गांधी परिवार तथा बच्चन परिवार के बीच दूरियां कायम हैं। इस बीच भाजपा अचानक बच्चन परिवार खासकर अमिताभ बच्चन के मान सम्मान को लेकर ज्यादा व्यग्र हो गयी है। गुजरात में नरेंद्र मोदी द्वारा सदी के महानायक और विज्ञापन जगत के बड़े नाम अमिताभ बच्च्न के लिए लाल कालीन बिछाये जाने के बाद ऐसा हो रहा है। उन्हें केरल का ब्रांड एम्बेसडर बनाये जाने के सवाल पर कामरेड आपस में गुत्थम गुत्था हैं।गुजरात का ब्रांड एम्बेसडर बनाये जाने का मसला अभी शांत नहीं हुआ कि अर्थ आवर के मौके पर नई दिल्ली में हुए एक समारोह में अभिषेक बच्चन की वीडियो क्लिपिंग हटा दी गयी। बच्चन परिवार से सपा का हनीमून खत्म हो चुका है। बच्चन परिवार की दुलारी बहू ऐश्र्वर्या राय का भी सितारा कुछ गर्दिश में है। उनके कीमती ब्रांड और फिल्मों में नंबर वन की पोजीशन कैटरीना कैफ झटक रही है। अमिताभ जया की जोड़ी के बाद ऐश अभिषेक की जोड़ी की अपनी अलग पहचान बनी है लेकिन कुल मिला करके बच्चन परिवार के दिन कुछ खास अच्छे नहीं चल रहे हैं। परिवार का हर सदस्य किसी न किसी वजह से अनचाही सुर्खियों से घिर रहा है। मुंबई में सी लिंक के दूसरे चरण के उद्घाटन पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के साथ अमिताभ बच्चन एक मंच पर नजर आए तो विवाद खड़ा हुआ। फिर डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ. द्वारा आयोजित अर्थ आवर का ब्रांड एम्बेसडर होने के बावजूद दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में अभिषेक बच्चन को दूर रखने पर प्रश्न खड़े हुए। गुजरात का ब्रांड एंबेसडर बनाए जाने पर मोदी के साथ नजदीकी के बाद अब कामनवेल्थ गेम के नाम पर भी बच्चन परिवार के साथ राजनीति की जा रही है। भारत कामनवेल्थ खेलों की तैयारी जोर शोर से कर रहा है। इन खेलों के ब्रांड एम्बेसडर के तौर पर कई जाने माने नाम जोड़े गए हैं मगर बच्चन परिवार को इस सूची से बाहर रखा गया है। अमिताभ बच्चन सरेआम कह चुके हैं कि राजा और रंक के बीच मित्रता संभव नहीं होती। इसके बावजूद बच्चन परिवार व नेहरू गांधी परिवार के बीच कायम दूरियों पर टीका टिप्पणी की जाती है। अमिताभ बच्चन को विभिन्न कंपनियों और कई फिल्म समारोहों ने अपने साथ जोड़ कर ब्रांड एम्बेसडर बनाया है। टीवी चैनलों में वे जनहित के विज्ञापन भी लगातार करते रहते हैं। अगर किसी जीवित भारतीय को दुनिया में सबसे ज्यादा पहचाना जाता है तो उनमें अमिताभ बच्चन एक हैं। अमिताभ बच्चन परिवार जया, अभिषेक व ऐश्र्वर्या की लोकप्रियता को तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि वे कामनवेल्थ खेलों को प्रमोट कर रहे लोगों की सूची में शामिल नहीं हैं लेकिन इस आयोजन को ही इससे प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि मिलती। कामनवेल्थ गेम के ब्रांड एम्बेसडर की सूची में शाहरुख खान का नाम है। उस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। वे भी पूरी दुनिया में लोकप्रिय होने के अलावा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के अनन्य मित्रों में एक हैं। कामनवेल्थ खेलों के प्रमोशन को लेकर दिल्ली सरकार और खुद आयोजन समिति कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। ऐसे में वो खेल और फिल्मी दुनिया की जानी मानी हस्तियों को ब्रांड एम्बेसडर बनाने में जुटी है लेकिन हैरानी की बात यह है कि ब्रांड एम्बेसडर के तौर पर बच्चन परिवार में से किसी को भी नहीं चुना गया। सदी के सबसे बड़े महानायक अमिताभ बच्चन के साथ जया बच्चन, अभिषेक बच्चन या फिर ऐश्वर्या राय इस लिस्ट में नहीं हैं। जिस सूची में आमिर खान, शाहरुख खान और कैटरीना कैफ का नाम है उसमें बच्चन परिवार के किसी भी सदस्य का नाम नहीं होना चौंकाता है।दिल्ली सरकार ने अपनी उपलब्धियां दर्शाने के लिए ब्रांड एम्बेसडर के तौर पर अमिताभ बच्चन को चुना था लेकिन अचानक ओमपुरी को अनुबंधित कर दिया गया। देखा जाए तो जब चर्चा का कोई मुद्दा नहीं होता तो बच्चन परिवार बहस के घेरे में आ जाता है। मुलायम सरकार के दौरान अमिताभ बच्चन को उत्तर प्रदेश सरकार के सरकारी विज्ञापनों से जोड़ा गया था। इसका लाभ कम मिला और मखौल ज्यादा उड़ा। अब नरेन्द्र मोदी उन्हें गुजरात सरकार की उपलब्धियों के प्रचार के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं।
नई सुबह का सपना
देश के छः से चौदह साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिये जाने को मौलिक अधिकार बनाया जाना सचमुच नई सुबह का सपना है। यह फैसला तो देश की आजादी के साथ ही ले लिये जाने की जरूरत थी लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने में तकरीबन छः दशक का वक्त लग गया। मनमोहन सिंह सरकार और संप्रग अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने यह महत्वपूर्ण पहल की। इस अभियान की महत्ता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इसकी शुरुआत करते हुए राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों से इस दिशा में समुचित योगदान देने का आह्वन किया। मनमोहन सिंह ने संबोधन के दौरान उन कठिनाइयों का जिक्र किया जो उन्होंने अपने बचपन में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान उठाई थीं। वे यह बात बताना भी नहीं भूले कि आज वे जो भी हैं शिक्षा की बदौलत हैं। शिक्षा के महत्व को भारतीय समाज ने शुरू से ही स्वीकार किया है। एक मोटे आंकलन के अनुसार देश में छः से चौदह वर्ष की आयु वर्ग के एक करोड़ ऐसे बच्चे हैं जो प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं। यह एक बड़ी संख्या है और महत्वपूर्ण चुनौती भी। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि स्कूल न जाने वालों अथवा बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की भारी तादाद है। इतनी बड़ी तादाद में बच्चों को शिक्षित करने के लिए तकरीबन १.७१ लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। इसमें ५५ प्रतिशत धनराशि केंद्र सरकार और ४५ प्रतिशत धनराशि राज्य सरकारों को खर्च करनी होगी। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय का दावा है कि देश में छः से चौदह साल की आयु के बच्चों की तादाद २२ करोड़ के आस-पास है, जिनमें करीब एक करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अपनी सामाजिक आर्थिक स्थितियों के चलते स्कूल नहीं जा पाते। बहरहाल प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के इस आश्र्वासन पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं है कि सभी बच्चों को शिक्षित करने में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जायेगी, इसमें पर्याप्त संदेह है कि राज्य सरकारें अपने हिस्से के धन का प्रबंधन कर पायेंगी। यदि किसी तरह धन का प्रबंध हो भी जाए तो भी यह आवश्यक नहीं कि राज्य सरकारें स्कूलों,शिक्षकों और अन्य संसाधनों की कमी दूर करने में भी तत्परता दिखायेंगी। वैसे भी धन की कमी अथवा उपलब्धता किसी कार्य के संपन्न होने की गारंटी नहीं है। इसका एक बड़ा प्रमाण सर्व शिक्षा अभियान है, जो दस्तावेजों में जितना सफल है यथार्थ के धरातल पर उतना ही असफल। सर्व शिक्षा अभियान और इससे पूर्व माध्याहृ भोजन योजना (मिड डे मील), आपेरशन ब्लैक बोर्ड व नयी शिक्षा नीति (१९८५) समय से व प्रभावी ढंग से लागू हो गयी होती तो आज शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ को लागू करने के लिए इतनी अधिक चिंता करने की जरूरत न पड़ती। शिक्षा पर आज भी न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें दस प्रतिशत बजट राशि का व्यय नहीं करती हैं। प्राथमिक शिक्षा हो, माध्यमिक शिक्षा अथवा उच्च शिक्षा सबका बुरा हाल है। एक ओर सुविधाओं से वंचित हजारों प्राथमिक विद्यालय हैं जिनमें न तो अध्यापक आते हैं और न ही मिड डे मिल दिये जाने के बावजूद छात्र पढ़ाई के लिए टिकते हैं तो दूसरी ओर पंच सितारा होटलों की शानो शौकत और भव्यता को मात देते इंटरनेशनल स्कूल व पब्लिक स्कूल हैं, जिनमें दाखले के लिए अभिभावक कुछ भी करने को तैयार हैं। इतनी विसंगतियों, अलग-अलग पाठ्यक्रमों, नित नये बदलावों के बीच सबको शिक्षा जहां समाज का आदर्श सपना है, वहीं राज्य सरकारों के लिए बोझ भी। देश के सभी राज्यों में स्वास्थ्य की तरह शिक्ष्ाा का भी भरपूर निजीकरण हो चुका है और जो जितना निवेश कर सकने की स्थिति में है उसे उतनी ही बेहतर शिक्षा मिल पा रही है। ऐसे में यदि मनमोहन सरकार ने जरूरतमंद वंचित तबकों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा को संवैधानिक दायरे में बांधते हुए इसे मौलिक अधिकार का दर्जा दिये जाने की पहल की है तो यह स्वागतयोग्य कदम है।यह सही है कि केंद्र सरकार को शिक्षा का अधिकार कानून २००९ के अमल में बाधा बनने वाली चुनौतियों का आभास है लेकिन राज्य सरकारों का रवैय्या निराश करने वाला है। पश्चिम बंगाल सरकार इसका विरोध कर रही है। उत्तर प्रदेश में यह कानून बीते एक अप्रैल से राज्य भर में लागू तो हो गया लेकिन अभी तक राज्य सरकार ने इस संबंध में कोई महत्वपूर्ण घोषणा नहीं की है। एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश में इस कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए पांच लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की जरूरत होगी, जबकि प्रदेश भर में कुल दो लाख शिक्षक ही हैं। केंद्र सरकार ने इस मद में अपने अंश की घोषणा नहीं की है, न ही राज्य सरकार ने कोई धनराशि मुहैया करायी है। बगैर आर्थिक संसाधनों के यह योजना कैसे प्रदेश भर में लागू की जायेगी यह बात अभी भी समझ से परे है। बहरहाल केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का दावा है कि छः से चौदह वर्ष के बीच की उम्र के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाने से इस वर्ग को शिक्षा हासिल करके अपनी और अपने परिवार की गरीबी दूर करने तथा विकास की मुख्य धारा में शामिल हो पाने का नया अवसर मिलेगा। सिब्बल के इस दावे को सच करके दिखाने की दिशा में उनका विभाग और विभिन्न राज्य सरकारें किस प्रकार रणनीति तय करेंगी और उसे अमल में लायेंगी यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। इस बीच उन तल्ख सच्चाइयों पर भी ध्यान देना जरूरी है जिनका जिक्र स्वाद कसैला कर सकता है। बच्चों को गांव की दहलीज पर और कस्बों-शहरों व महानगरों में अपनी पहुंच के भीतर गुणवत्तायुक्त व बेहतर शिक्षा मिल जाये इससे बेहतर और क्या हो सकता है। यह काम तभी संभव है जब केंद्र व राज्य सरकारों के साथ-साथ त्रिस्तरीय पंचायतें, स्वयंसेवी संगठन तथा अन्य सभी वर्ग भी अपनी भूमिका जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ निभायें। सच तो यह है कि उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों के दूर दराज और दुर्गम इलाकों में जहां पीने के पानी का इंतजाम नहीं हो सका है और लोग दो जून की रोटी के लिए बच्चों से भी मजदूरी कराने को विवश हैं वहां हर बच्चा शिक्षा के अधिकार को हासिल कर लेने के बावजूद कैसे साक्षर हो सकेगा। भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी व अज्ञानता का अभिशाप तो बना ही रहेगा न। यह दशा तो तभी बदलेगी जब समाज का प्रत्येक वर्ग इसे पूरा करने के लिए ललक के साथ आगे बढ़े। यह एक रुमानी और आदर्श अपना नहीं है बल्कि इक्कीसवीं शताब्दी में देश की सबसे बड़ी जरूरत भी है। बीते साल मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को जब संसद के पटल पर रखा था तो उसकी कुछ खासियतों का खूब जोर शोर से प्रचार प्रसार किया था। अब जबकि संसद की हरी झंडी मिलने के बाद एक अप्रैल से आम जनता के हाथों में यह कानून आ गया तो सवाल यह है कि आम जनता द्वारा इस कानून का फायदा उठाया भी जा सकेगा या नहीं। जो परिवार गरीबी रेखा के नीचे बैठे हैं, उनके भविष्य की उम्मीद शिक्षा पर टिकी है। यह उन्हें स्थायी तौर पर सशक्त भी बना सकती है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में २७.५ प्रतिशत लोग्ा गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसी तबके के तकरीबन २० करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। इसलिए भारत में गरीबी और शिक्षा की बिगड़ती स्थितियों को देखते हुए, २००१ में एक संविधान संशोधन हुआ। इसमें यह भी स्पष्ट हुआ कि सरकारी स्कूलों में सुधार के लिए राज्य सरकारें और अधिक पैसा खर्च करेगी। मगर हुआ इसके ठीक उल्टा, राज्य सरकारों ने गरीब बच्चों की जवाबदेही से बचने का रास्ता ढ़ूढ़ निकाला और सरकारी स्कूलों को सुधारने की बजाय गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में २५ आरक्षण देकर नया रास्ता दिखाया। फिलहाल, राज्य सरकारें एक बच्चे पर साल भर में करीब २,५०० रुपए खर्च करती हैं। अब खर्च की यह रकम राज्य सरकार प्राइवेट स्कूलों को देंगी। प्राइवेट स्कूलों की फीस तो साल भर में २,५०० रूपए से बहुत ज्यादा होती है। ऐसे में यह आशंका पनपती है कि प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए अलग से नियम कानून बनाए जा सकते हैं और उनके लिए सस्ते पैकेज वाली व्यवस्थाएं लागू हो सकती हैं। शिक्षा का यह अधिकार केवल छः से चौदह साल तक के बच्चों के लिए है। जबकि हमारा संविधान ६ साल के नीचे के १७ करोड़ बच्चों को भी प्राथमिक शिक्षा, पूर्ण स्वास्थ्य और पोषित भोजन का अधिकार देता चला आ रहा है। ऐसे में कह सकते हैं कि यह कानून शिक्षा के अधिकार के नाम पर संविधान में पहले से दर्ज अधिकारों को काट रहा है। दूसरी तरफ, १५ से १८ साल तक के बच्चों को भी यह कानून जगह नहीं दे रहा है। वैश्विक स्तर पर बचपन की सीमा १८ साल तक रखी गई है, जबकि केंद्र सरकार बचपन को लेकर अलग-अलग परिभाषाओं और आयु वर्गों में विभाजित है। इन सबके बावजूद वह १८ साल तक के बच्चों से काम नहीं करवाने के सिद्धांत पर चलने का दावा करती है मगर जब उस सिद्धांत को कानून या नीति में शामिल करने की बारी आती है तो वह पीछे हट जाती है। अगर कक्षाओं के हिसाब से देखें तो यह अधिकार कम से कम पहली और ज्यादा से ज्यादा आठवीं तक के बच्चों के लिए है। अर्थात जहां यह आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों को छोड़ रहा है, वहीं तमाम बच्चों को तकनीकी और उच्च शिक्षा का मौका भी नहीं दे रहा है। आमतौर से तकनीकी पाठयक्रम बारहवीं के बाद ही शुरू होते हैं मगर यह कानून तो उन्हें केवल साक्षर बनाकर छोड़ देने भर के लिए है। कुल मिला कर शिक्षा के अधिकार का यह कानून न तो सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देता है, न ही। पूर्ण शिक्षा की गांरटी ही दुनिया का कोई भी देश सरकारी स्कूलों को सहायता दिए बगैर सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य नहीं पा सकता है। विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश जैसे अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस अपने राष्ट्रीय बजट का ६७ प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं। अपने देश में ४० करोड़ बच्चों की शिक्षा पर राष्ट्रीय बजट का केवल ३ प्रतिशत ही खर्च किया जाता है। देश की करीब ४० लाख बस्तियों में प्राथमिक स्कूल नहीं हैं। देश के आधे बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं। देश भर में १.७ करोड़ बाल मजदूर हैं। हम २०१५ तक स्कूली शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने की हालत में नहीं हैं। ऐसे में तो हमारी सरकार को बच्चों की शिक्षा पर और ज्यादा खर्च करना चाहिए मगर वह तो केंद्रीय बजट (२००९-१०) से सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील जैसी योजनाओं को दरकिनार करने पर तुली है।जब भारत में शिक्षा का आधारभूत ढांचा कमजोर था तब उसने कहीं ज्यादा बड़े वैज्ञानिक पैदा किए। वैसे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उनकी सक्रियता ने बुरी तरह से उपेक्षित शिक्षा के एजेंडे को राष्ट्रव्यापी बहस के केंद्र में ला दिया है। उनके कई ताजा प्रस्तावों में शिक्षा को लेकर आधुनिक दृष्टि और समझ भी दिखती है। स्कूली बच्चों की पढ़ाई को अंकों के दबाव से मुक्त रखने की बात हो या नर्सरी में दाखले की न्यूनतम उम्र तीन वर्ष से बढ़ाकर चार वर्ष करने का सुझाव, या फिर दसवीं और बारहवीं में गणित और विज्ञान की पढ़ाई एक करने का इरादा इन सबमें वह जरूरी संवेदनशीलता है जिसकी कमी अरसे से महसूस की जा रही थी। यद्यपि चुनौतियां कहीं ज्यादा गहरी हैं। उसके सवाल कहीं ज्यादा नुकीले हैं। चाहे प्राथमिक स्तर की शिक्षा हो या उच्च शिक्षा एक बहु परतीय गैर बराबरी के अलावा डरावनी अराजकता से लेकर भ्रष्टाचार तक हमारी शिक्षा व्यवस्था के लगभग स्वीकार्य अंग बन चुके हैं। आलम यह है कि बच्चे का स्कूल तय होते ही तय हो जाता है कि वह भविष्य में क्या बनेगा। अगर वह ठेठ सरकारी स्कूलों में जा रहा है तो उसकी पढ़ाई बीच में छूट जाएगी या किसी तरह दसवीं बारहवीं पास करके वह चपरासी या इसके आसपास के कुछ पदों की शोभा बढ़ाएगा। अगर वह साधारण स्कूलों में पढ़ता है तो क्लर्क से लेकर अफसर तक की नौकरी में कहीं खप जाएगा। अगर वह महंगे पब्लिक स्कूलों का छात्र है तो अभिजात्य संस्थानों का महत्वाकांक्षी छात्र और भविष्य का आला अफसर या मैनेजर होगा। अगर वह सबसे ऊंचे स्कूलों में पढ़ता है या विदेश में पढ़ाई करके लौटता है तो इस देश पर राज करेगा। वैसे इस नियम के अपवाद भी हैं। कहा जाता है कि इस देश ने असंख्या गुदड़ी के लाल भी पैदा किये हैं जिन्होंने अभावों से लड़ कर बेशुमार उपलब्धि हासिल की है। जब कपिल सिब्बल दसवीं और बारहवीं के पाठ्यक्रम को एक करके सबको बराबरी के मौके देने की बात करते हैं तो लगता है कि यह चांद पर जाने के लिए सीढ़ी बनाने का काम है। शिक्षा की असमानताएं पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं हैं बल्कि पाठ्यक्रम में वे सबसे कम और सबसे देर से दिखती हैं। सबसे ज्यादा वे उस बुनियादी ढांचे में हैं, जो इस देश में शिक्षा के तंत्र को नियंत्रित करता है। कहा जा सकता है कि जो सामाजिक गैर बराबरी है, वही स्कूली गैर बराबरी में भी झांकती है। शिक्षा को लेकर बढ़ते उपयोगितावादी नजरिये ने अनजाने में इसे उसी जड़ता के कुएं में धकेल दिया है जिससे बाहर आने की कोशिश में न जाने कितने वर्ष खर्च किये गये। हालत यह है कि जो सबसे अच्छे छात्र हैं, जिन्हें सबसे अच्छी पढ़ाई हासिल हुई है, वे अपने अध्ययन का सबसे कम इस्तेमाल कर पाते हैं। अकसर हम पाते हैं कि किसी खास अनुशासन में आईआईटी करने के बाद लड़के आईआईएम कर लेते हैं और वहां से टाप करके सबसे ऊंची सैलरी देने वाली किसी फर्म में साबुन से लेकर शीतल पेय तक बेचने के काम में जुट जाते हैं। हाल के दिनों में सूचना प्रौद्योगिकी का जो हल्ला मचा, उसमें कई भारतीय युवकों ने अमेरिका जाकर अच्छा काम किया लेकिन वह काम भी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ उपयोगी सॉफ्टवेयर बनाने से आगे जाता नजर नहीं आ रहा। जैसे-जैसे शिक्षा का ढांचा मजबूत और बड़ा होता गया, कुछ कुशल पेशेवर इंजीनियर और रट्टामार अफसर निकालने तक सीमित रह गई। आमिर खान की फिल्म 'थ्री इडियट्स' इसी प्रवृत्ति पर अपने अंदाज में चोट करती है।
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